वास्को द गामा का भारत के लिए खोजा गया समुद्री मार्ग। चित्र स्रोत: ब्रिटैनिका।
पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में कालीकट में वास्को द गामा के आगमन ने भारत और यूरोप के बीच व्यापार का मार्ग प्रशस्त किया। इस पुर्तगाली नाविक ने केप ऑफ़ गुड होप के रास्ते यूरोप से भारत के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजा। इसके बाद इसी मार्ग से पुर्तगाली, डच, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ भी आए तथा सोलहवीं शताब्दी की शुरुआत से ही उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापारिक कारखाने स्थापित करने शुरू कर दिए थे। यूरोपीय व्यापारी भारत में उत्पादित रेशम और कपास की बहुतायत से आकर्षित हुए थे। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार हेतु 1600 में स्थापित, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, अगस्त 1608 में भारत में आई। वह मुख्य रूप से मसाले, कपास और रेशम का व्यापार करती थी।
सत्रहवीं शताब्दी के दौरान, कपास की वस्तुओं का निर्यात बहुत तेजी से बढ़ा। गुजरात तट पर सूरत का बंदरगाह भारत को खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जोड़ता था; जबकि, कोरोमंडल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली बंदरगाह, जावा, सुमात्रा तथा पेनांग के साथ व्यापार मार्गों द्वारा जुड़े हुए थे। भारतीय व्यापारी और साहूकार उत्पादन का वित्तपोषण करके, गाँवों से बुने हुए कपड़े को एकत्रित करके तथा, बंदरगाह शहरों तक इसे पहुँचाकर, निर्यात तंत्र से जुड़े हुए थे।
सूरत का बंदरगाह, 19वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: वैटिकन।
भारत की मुद्रित सूती पोशाक,18वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
भारत से आयातित छपाई वाले (मुद्रित) सूती वस्त्र, 1680 के दशक से, इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देशों में लोकप्रिय हो गए। भारतीय कपड़े अपने सुंदर फूलों वाले रूपांकानों, बारीक गठन और उचित क़ीमत के लिए पसंद किए जाते थे। स्वयं रानी सहित इंग्लैंड के अमीर लोग भारतीय कपड़े से बने वस्त्र पहनते थे। 1730 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पाँच लाख नवासी हजार थानों का आर्डर दिया। इसमें कपास और रेशम उत्पादों की अठानवे किस्मों की सूची सम्मिलित थी। अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में, भारतीय वस्त्रों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण इंग्लैंड के स्थानीय ऊन और रेशम निर्माताओं ने इसके आयात का विरोध किया।
1721 में, अंग्रेज़ी सरकार ने इंग्लैंड में छींट के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अधिनियम प्रस्तुत किया। यह अधिनियम 'कैलिको अधिनियम' के नाम से जाना जाता है। ‘छींट’ शब्द छपाई वाले (मुद्रित) सूती वस्त्रों को संदर्भित करता है। ‘छींट’ हिंदी का शब्द है जिसका मतलब होता है वह कपड़ा जिसमें छोटे और रंगीन फ़ूलों के रूपांकन (डिज़ाइन) होते हैं। अंग्रेज़ उद्योगपति भारत के उत्पादों के आयात को रोककर इंगलैंड में अपने लिए एक सुनिश्चित बाजार चाहते थे। 1730 के दशक के दौरान, इंग्लैंड में प्रथम वस्त्र उद्योग स्थापित हुआ। भारतीय डिज़ाइनों की नकल की गई और भारत से आयातित सफ़ेद मलमल पर इन्हें बनाया गया। परिणामस्वरूप, इससे अत्यधिक मूल्यवान भारतीय वस्त्रों का बाज़ार लगभग समाप्त हो गया।
भारत का छींटदार कपड़ा,18वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
भारत का छींटदार कपड़ा,18वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
भारत के आपूर्ति व्यापारियों के पास उनके उत्कृष्ट खरीदारों के चयन के लिए साधन थे। पुर्तगाली, अंग्रेज़, डच, फ़्रांसीसी के साथ-साथ स्थानीय व्यापारियों ने बुने हुए कपड़े प्राप्त करने के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा की। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1750 के दशक से भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करना भी शुरू कर दिया। अंग्रेज़ों का सबसे बड़ा प्रहार 1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला को हराना था। यह ब्रिटिश सैन्य ताकत और भारतीय व्यापार पर एकाधिकार करने हेतु उनका शक्ति प्रदर्शन था। इस युद्ध के बाद, भारतीय व्यापारियों द्वारा नियंत्रित, वस्त्र निर्यात तंत्र का पतन होना शुरू हो गया। यूरोपीय कंपनियों ने धीरे-धीरे भारतीयों पर अधिकार जमा लिया। इसके परिणामस्वरूप सूरत और हुगली जैसे पुराने बंदरगाहों, जिनके द्वारा स्थानीय व्यापारी अपने निर्यात का संचालन करते थे, का पतन हो गया। अंतत:, स्थानीय साहूकार भी धीरे-धीरे दिवालिया हो गए।
सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, सूरत के बंदरगाह से होने वाले व्यापार का सकल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। 1740 के दशक तक, यह कम होकर 3 करोड़ रुपये ही रह गया। जहाँ सूरत और हुगली के पुराने बंदरगाह बंद होने लगे, वहीं बॉम्बे और कलकत्ता जैसे नए बंदरगाह विकसित होने लगे। यह भारत में औपनिवेशिक शक्ति का एक ज्वलंत सूचक था। यूरोपीय कंपनियों ने अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इन नए बंदरगाहों के द्वारा व्यापार को नियंत्रित करना शुरू कर दिया।
फ़ोर्ट विलियम, कलकत्ता, जान वैन रायन द्वारा चित्रित, 1754। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
1760 के दशक के दौरान, औद्योगिक क्रांति के उद्भव ने इंग्लैंड में औद्योगिक विकास को उत्प्रेरित किया। इसके कारण कई नई उत्पादन प्रक्रियाओं और यंत्रीकृत कारखाना प्रणाली का उदय होना, एक अभूतपूर्व परिवर्तन था। आधुनिक उत्पादन विधियों के संदर्भ में वस्त्र इस क्रांति का प्रमुख उद्योग था। 18वीं शताब्दी के दौरान, वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने के लिए भाप के इंजन, स्पिनिंग जेनी नामक कताई मशीन, कताई फ़्रेम, पानी से चलने वाला कताई फ़्रेम (वॉटर फ़्रेम), क्रॉम्पटन का कताई खच्चर (स्पिनिंग म्यूल), इत्यादि, जैसे विशिष्ट आविष्कार हुए। औद्योगिक क्रांति ने ब्रिटेन को दुनिया का अग्रणी वाणिज्यिक राष्ट्र बना दिया। इस देश ने, अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों के माध्यम से, भारतीय उपमहाद्वीप पर बड़े पैमाने पर सैन्य और राजनीतिक आधिपत्य स्थापित किया।
जेम्स हारग्रीव्स की स्पिनिंग जेनी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
जॉन अर्कराइट का वाटर फ़्रेम। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
कंपनी ने प्रतिस्पर्धा को खत्म करने, लागत को नियंत्रित करने, तथा कपास और रेशम की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए नियंत्रण और प्रबंधन की प्रणाली विकसित की। इसने कपड़े के व्यापार से जुड़े मौजूदा व्यापारियों और दलालों को हटाने तथा बुनकर पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश भी की। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक भारतीय वस्त्र का विश्व व्यापार पर वर्चस्व बना हुआ था। इंग्लैंड में नव-स्थापित वस्त्र उद्योगों का तब तक विस्तार नहीं हुआ था और भारतीय कपड़ों की अब भी बड़ी माँग थी। अंग्रेजों ने जब भारतीय वस्त्रों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए स्वयं को पर्याप्त रूप से सशक्त बना लिया, तब 1774 में कैलिको अधिनियम को हटा दिया गया।
ब्रिटेन में सूती वस्त्र उद्योगों के असाधारण विकास ने धीरे-धीरे भारत में वस्त्र उत्पादकों को प्रभावित किया। भारतीय वस्त्रों को यूरोपीय और अमरीकी बाजारों में अंग्रेज़ी वस्त्रों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। इंग्लैंड में उपयोग की जाने वाली आधुनिक तकनीक के कारण वहाँ भारत की तुलना में अधिक सस्ते और लंबे समय तक टिकाऊ वस्त्रों का उत्पादन होता था। ब्रिटेन में आयातित भारतीय वस्त्रों पर उच्च शुल्क लगाए जाने के बाद, भारत से कपड़ा निर्यात करना भी मुश्किल हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, ब्रिटेन में निर्मित सूती वस्त्रों ने भारतीय उत्पादों को अफ़्रीका, अमरीका और यूरोप जैसे उसके पारंपरिक बाजारों से सफलतापूर्वक हटा दिया। यूरोपीय कंपनियों ने भी धीरे-धीरे भारतीय सामग्रियाँ खरीदना बंद कर दिया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय वस्त्र व्यापार में भारी गिरावट आई। 19वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में देश भर के हजारों बुनकर और सूत कातने वाले बेरोजगार हो गए।
दादाभाई नौरोजी पर एक डाक टिकट। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।
भारत ने उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अपने कपास और रेशम की वस्तुओं के समृद्ध और अत्यधिक इष्ट बाजार को खो दिया। इस बीच, यह केवल इंग्लैंड के लिए कच्चे कपास का आपूर्तिकर्ता बन गया। कपड़े का उत्पादन करने के लिए, इंग्लैंड में इस कच्चे माल को कारखानों में संसाधित किया जाता था। अंतत:, ब्रिटिश व्यापारियों ने भारत के बाजार पर अधिकार जमाने के लिए निर्मित वस्तुओं का भारत में निर्यात करना शुरू कर दिया। इस प्रकार, उन्नीसवीं शताब्दी के औपनिवेशिक भारत को भारतीय संसाधनों के वृहत शोषण द्वारा निरूपित किया जा सकता है। प्रख्यात विद्वान दादाभाई नौरोजी ने इस शोषण को दर्शाने के लिए ड्रेन ऑफ़ वेल्थ अथवा धन पलायन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है।
1810 के दशक की शुरुआत में, कुछ अंग्रेज़ व्यापारियों ने भारत में सूती धागा निर्माण उद्योग स्थापित करने का निर्णय लिया। 1818 में, इस उद्देश्य से, कलकत्ता में फ़ोर्ट ग्लॉस्टर मिल के नाम की पहली सूती कपड़े की मिल स्थापित की गई। इसमें सालाना लगभग 7,00,000 पाउंड धागे की कताई की जाती थी।
1830 के दशक में, भारतीय बाजार पूरी तरह से अंग्रेज़ी कपड़े से भर गया। वास्तव में, भारतीयों द्वारा पहने जाने वाले सभी सूती कपड़ों का दो-तिहाई हिस्सा 1850 के दशक तक इंग्लैंड में बनाया जाता था। मैनचेस्टर और लैंकशर शहर, सूती वस्त्र के थानों के लिए, विश्व विक्रय केंद्र बन गए थे। 1811-12 में, भारत के निर्यात में 33 प्रतिशत सूती कपड़े के थान शामिल थे, और 1850-51 तक, यह केवल 3 प्रतिशत ही रह गए थे।
भारतीय सूती वस्त्र उद्योग का वास्तविक विकास 1851 में बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग मिल की स्थापना के साथ शुरू हुआ। यह एक पारसी व्यापारी द्वारा पूर्णतया भारतीय पूँजी से स्थापित की गई थी। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में, भारत में लैंकशर सूती थानों के आयात और इंग्लैंड में कच्चे कपास के निर्यात में तेजी से वृद्धि हुई थी। अंग्रेजों द्वारा नियोजित, पारसी व्यापारियों ने इस व्यापार से बृहत वित्तीय संसाधनों को अधिगृहीत कर लिया था।
तालिका 1: मुंबई से इंग्लैंड निर्यातित कपास का मूल्य (1861-1866)
वर्ष | मान (पाउंड में) |
---|---|
1861-62 | 9,262,817 |
1862-63 | 14,834,640 |
1863-64 | 27,912,117 |
1864-65 | 30,370,482 |
1865-66 | 25,534,179 |
कुल वार्षिक औसत |
|
107,914,235 21,582,847 |
तालिका 2 (क): भारत में सूती वस्त्र मिलों का विकास, 1879-80 से 1894-95
1879-80 | 1884-85 | 1889-90 | 1894-95 | |
---|---|---|---|---|
मिल संख्या | 58 | 81 | 114 | 144 |
नियोजित लोग | 39,537 | 61,596 | 99,224 | 139,578 |
करघे | 13,307 | 16,455 | 22,078 | 34,161 |
तकलियाँ | 1,407,830 | 2,037,055 | 2,934,637 | 3,711,669 |
तालिका 2 (ख): भारतीय ट्विस्ट और धागों का निर्यात, 1879-80 से 1890-91, पाउंड में
भारतीय ट्विस्ट और धागा निर्यात | 1879-80 | 1885-86 | 1890-91 |
---|---|---|---|
26,704,716 | 79,324,341 | 170,518,804 |
स्रोत: गाडगिल (1924), पृष्ठ 75 & 76
बीसवीं शताब्दी का पहला दशक भारत में बड़े बदलावों का दौर था। स्वदेशी आंदोलन (1906-1911) के उद्भव ने राष्ट्रवाद को बहुत बल दिया और सभी भारतीयों को विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया। इससे भारतीय उद्योगपतियों ने बड़े पैमाने पर अपनी मिलों में कपड़ा उत्पादन किया। 1900 और 1912 के बीच भारत में सूती वस्त्र के थानों का उत्पादन दो गुना हो गया।
इस बीच, प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) के दौरान भारतीय मिलों को बड़ा घरेलू बाजार प्राप्त हुआ। इन मिलों ने जूट बैग, टैंट, चमड़े के जूते और सेना की वर्दी सहित कई युद्ध आवश्यकताओं की आपूर्ति की। भारत ने इस अवधि के दौरान फ़ारस, तुर्की, अफ़्रीका और सीलोन के साथ व्यापार संबंध विकसित किए। इसके परिणामस्वरूप, भारत के वस्त्र उद्योग ने एक बार फिर अपने उत्पादों के लिए एक व्यापक बाजार को अधिगृहीत करना शुरू कर दिया।
चरखे के साथ महात्मा गांधी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
स्वदेशी आंदोलन आत्मनिर्भरता के विचार को बढ़ावा देने में सहायक था। स्वराज की महत्ता पर बल देने में महात्मा गांधी की भूमिका उस शताब्दी की एक क्रांतिकारी घटना थी। स्व-सहायता, स्वयं-सेवा, आत्म-संतोष और तपस्या के प्रतीक के रूप में, चरखे के प्रति गांधी का दृष्टिकोण स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा का द्योतक था। उन्होंने देश भर के लोगों को अपनी स्वयं की खादी कातने के लिए प्रोत्साहित किया। खादी का उपयोग आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में किया जाता था। गांधी का, चरखे के माध्यम से, स्वराज की कल्पना करने का यह अविश्वसनीय संकल्प, अविस्मरणीय है और अभी भी प्रासंगिक है।