Sorry, you need to enable JavaScript to visit this website.

मध्यकालीन भारत के वस्त्र एवं कपड़े

भारत में वस्त्रों और कपड़ों के इतिहास की इतनी गहरी जड़ें हैं कि वे प्राचीन काल तक फैली हुईं हैं। जहाँ प्राचीन काल में वस्त्रों के उत्पादन, उपयोग और व्यापार को दर्शाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं, वहीं मध्ययुगीन काल में इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन अपना आकर लेने लगते हैं। वस्त्र शिल्प के प्रति राजाओं की संरक्षणता मध्ययुगीन काल में तीव्रता से अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ गई, जिसके कारण इन वस्त्रों और कपड़ों का उत्पादन और व्यापार बढ़ गया। विशेषतः मुग़ल काल के दौरान, मध्ययुगीन काल, भारत में वस्त्र और कपड़े बनाने में उपयोग की जाने वाली तकनीक, रूपांकन और प्रौद्योगिकी में फ़ारसी प्रभाव के आगमन का भी साक्षी रहा है।

medieval

तंबू पैनल, लगभग 1635, संभवतः आमेर के राजा जय सिंह प्रथम से संबंधित। चित्र स्रोत: मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

वस्त्रों का विभिन्न उपयोगों के लिए उत्पादन किया जाता था जिनमें परिधान, सजावटी सामान जैसे कि वॉल हैंगिंग्स, कालीन, तंबू, आदि, शामिल थे। दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के शासकों ने रईसों और सामंतों को उनके सम्मान में हजारों चोगे प्रदान किए। दरबार की ज़रूरतों को ही पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता होती थी। इस प्रकार, दो प्रकार के कारख़ाने या कार्यशालाएँ थीं जहाँ कपड़े का उत्पादन किया जाता था। पहले, स्वतंत्र कारखाने, जो कारीगरों द्वारा उनकी निजी पूंजी से काफ़ी छोटे स्तर पर चलाए जाते थे। दूसरे, शाही कारख़ाने, जिनको राजदरबार द्वारा संरक्षण प्राप्त था और जो विशेष रूप से शाही घराने की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करते थे।

शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान भारत आए फ़्रांसीसी यात्री, फ़्रांसुआ बर्नियर, ने अपने यात्रा वृत्तांत ट्रेवल्स इन मुग़ल एंपायर में इन कार्यशालाओं के बारे में लिखा था। उन्होंने इसमें कई विशाल कक्षों के संयोजनों का वर्णन किया है जहाँ विभिन्न विशिष्टताओं के कारीगर कार्य करते थे। एक विशाल कक्ष में, अधीक्षक के अधीन कढ़ाई करने वालों, अन्य में चित्रकारों, दर्ज़ियों, मलमल बुनकरों, ज़री का काम करने वालों, आदि, को देखा जा सकता था। कुछ रईस अपनी निजी कार्यशालाएँ भी चलाते थे।

सूती कपड़ा, मध्ययुगीन काल में, विशेष रूप से मुगलों के अधीन, सबसे व्यापक रूप से उत्पादित और क्रय-विक्रय किया जाने वाला कपड़ा था। दिल्ली, लाहौर, आगरा, पटना, बनारस, अहमदाबाद, बुरहानपुर और ढाका सूती कपड़े के प्रमुख उत्पादन केंद्र थे। इस कपड़े के उत्पादन की एक निश्चित प्रक्रिया थी।
कटी हुई कपास को पहले कुछ दिनों के लिए धूप में सुखाया जाता था। उसके बाद रुई की ओटाई के दौरान कपास के रेशे को कपास के बीज से अलग किया जाता था। ओटाई दो प्रकार के उपकरणों के प्रयोग से की जाती थी, या तो रोलर-बोर्ड जिसमें, हाथ से एक बेलनाकार रोलर का प्रयोग एक सपाट पटल पर किया जाता था, या सर्पिल गरारी वाली ओटनी (चरखी) जो कि दो लकड़ी के रोलर की बनी होती थी। चरखी सबसे सामान्य विधि थी।

medieval

मुग़ल वॉल हैंगिंग, कपास और रेशम। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

medieval

धुनकी का उपयोग करते हुए कपास की धुनाई, मिफ़्ता-उल-फ़ुज़ाला, 15वीं शताब्दी ग्रंथ। चित्र साभार: टेक्नोलॉजी इन मीडीएवल इंडिया, इशरत आलम।

medieval

15वीं शताब्दी ग्रंथ मिफ़्ता-उल-फ़ुज़ाला में पाया गया, भारत में चरखे के प्रथम चित्रों में से एक। चित्र साभार: टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी इन मीडीएवल इंडिया, इरफ़ान हबीब।

इसके बाद, कपास के रेशे को दो प्रकार की तकनीकों का उपयोग करके सीधा किया जाता था। पहली, आदिम विधि में, कपास को एक छड़ी से पीटा जाता था, जिसमें रेशे के टूटने की संभावना बहुत अधिक होती थी। इसलिए, धुनाई की दूसरी विधि को प्राथमिकता दी गई थी जिसमें कपास को धुनकी के माध्यम से धुना जाता था। यह उपकरण भारत में 11वीं शताब्दी ईस्वी में उपयोग में आया था और यह आज तक उपयोग में है। प्रक्रिया को धुनाई कहा जाता है और यह, विशेष रूप से, धुनिया या कपास धुनिया नामक एक निश्चित जाति द्वारा ही की जाती थी।

अगले चरण में रेशे से सूत काता जाता था, जो फिर दो प्रकार के उपकरणों का उपयोग करके किया जाता था। पहला तकली, जो प्राचीन काल से उपयोग में लाया गया एक सरल उपकरण था। दूसरा चरखा, जिसके प्रवेश के साथ मध्यकाल की कताई प्रक्रिया ने एक नाटकीय मोड़ लिया। 13वीं से 14वीं शताब्दी के दौरान, चरखा इस्लामी दुनिया के माध्यम से भारत में आया। तकली और चरखा, दोनों ही, एक साथ अस्तित्व में बने रहे। पहले का महीन और दूसरे का मोटे सूत कातने के लिए प्रयोग किया जाता था। कताई अधिकतर महिलाओं द्वारा की जाती थी।

medieval

एक क्षैतिज करघे पर काम करते हुए जुलाहे, संत कबीर, लगभग 15वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

med

कपास ओटनी और अराल कील (क्रैंक हैंडल) सहित चरखा, कांगड़ा चित्रकारी, लगभग 1760, राष्ट्रीय संग्रहालय।

सूत की कताई के बाद, इसका कपड़ा बुना जाता था। मध्यकालीन भारत मे बुनाई अधिकतर, समकोण पर एक दूसरे से गुँथे, ताना और बाना धागों के दो युग्मों वाली समतल प्रक्षेपण-ढरकी हथकरघा (थ्रो-शटल हैंडलूम) पर की जाती थी। 16वीं शताब्दी से हमें गड्ढा करघा (पिट लूम) का संदर्भ मिलना आरंभ होता है। इसका प्रथम चित्र तूती-नामा या तोते की कहानियाँ से आता है, जिसमें दिए गए लघु चित्रों को 16वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर के अधीन बनाया गया था।

यदि किसी को मध्ययुगीन काल की सबसे उत्कृष्ट वस्तु का नाम देना हो, जिसकी भारत और बाहरी दुनिया में बहुत मांग थी, वह था मलमल। मलमल सादा, बुना हुआ सूती कपड़ा होता है, जो बनावट में बहुत महीन और हल्का होता हो। मुगलों के अधीन, ढाका में उत्पादित मलमल सबसे अच्छा माना जाता था। यह इतना नाज़ुक और महीन कपड़ा था कि कहा जाता है कि एक बार जब बादशाह औरंगज़ेब ने अपनी बेटी को नग्न दिखने के लिए फटकार लगाई, तो उसने जवाब दिया कि वह मलमल की सात परतें पहने हुई थी!

मुग़ल सम्राट स्वयं एक विशेष प्रकार का मलमल का कपड़ा पहनते थे, जो मलमल खास के रूप में जाना जाता था, जो सबसे बेहतरीन कपड़ा था। इसकी रेशमी और उत्तम बनावट के कारण इसे अब्रवान (बहता पानी), बफ़्त ह्वा (बुनी हुई हवा) और शबनम (शाम की ओस) जैसे नाम दिए गए थे। जामदानी इस अवधि की एक प्रकार की उत्कृष्ट मलमल बुनावट थी जिसमें मलमल पर ज्यामितीय और पुष्प आकृतियाँ बुनी जाती थीं। मुगल शासकों ने मलमल उत्पादन को प्रोत्साहन दिया। अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखित आईन-ए-अकबरी के अनुसार सोनारगाँव, बनारस, आगरा, मालवा, दक्कन, गुजरात, लाहौर, मुल्तान, बुरहानपुर और गोलकुंडा मलमल शिल्प के अन्य केंद्र थे।

medieval

महीन मलमल के चोगे पहने राजकुमार दारा शिकोह और सुलेमान शिकोह। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

dd

रेशम और मखमल का तंबू पैनल, मुग़ल काल, 17वीं शताब्दी। चित्र साभार: होनोलुलु म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

ff

पुरुष चोगा (कोट), रेशम और ज़री, मुग़ल काल, आरंभिक 18वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

रेशम एक अन्य कपड़ा था जिसका उपयोग मध्ययुगीन काल के दौरान किया जाता था। हालाँकि, कपास के विपरीत, इसका उत्पादन काफ़ी कम था, विशेषकर 17वीं शताब्दी के दौरान। यह एक लघु और स्थानीय उद्योग था। इसलिए, चीन और मध्य एशिया से रेशम का आयात कर, इसकी माँग की पूर्ती की जाती थी। कश्मीर और बंगाल, रेशम कीट पालन और रेशम बुनाई के दो महत्वपूर्ण केंद्र थे। तारिख़-ए-रशीदी, मिर्ज़ा दुगलत बेग द्वारा लिखित एक मध्ययुगीन कृति में, कश्मीर में रेशम कीट पालन का उल्लेख है।

हालांकि बंगाल में रेशम का उत्पादन आवश्यकता से अधिक किया जाता था। 17वीं शताब्दी में भारत की यात्रा करने आए एक फ़्रांसीसी व्यापारी, टैवर्नियर, का कथन था कि बंगाल में कासिमबाज़ार, रेशम उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र था। मुग़ल काल में अहमदाबाद, सूरत, सिंध, दिल्ली, आगरा और मालदा अन्य महत्वपूर्ण केंद्र थे।

पश्चिमी भारत में, रेशम अधिकतर कपास के साथ मिश्रित किया जाता था। इसका एक उदाहरण अलचा कपड़ा है जो गुजरात के कैम्बे में बनाया जाता था। अलचा नीले, सफ़ेद और लाल रंग का धारीदार कपड़ा होता था, लेकिन कभी-कभी इसे बुने हुए फूलों से भी सजाया जाता था। संभवतः उसका उपयोग पतलून बनाने के लिए किया जाता था। मुग़ल काल में उत्पादित सरबंडी, कपूरनूर, गुलबदन, निहाल और तफ़सील, और मशरू अन्य कपास और रेशम से बने मिश्रित कपड़े थे।

इस क्षेत्र में उत्पादित एकमात्र शुद्ध रेशम था पटोला, जिसे इकत तकनीक का उपयोग करके बनाया जाता था। इसमें, ताने और बाने के सूत पहले रंगे जाते थे और फिर उन्हें शानदार पैटर्नों में बुना जाता था। पटोला का मुख्य केंद्र गुजरात में पाटन था।

मुग़ल शाही घराने और अभिजात वर्ग विशेष रूप से मखमल के शौकीन थे जो रेशम से बनाया जाता था। मखमली परिधान समारोहों में पहने जाते थे, जो धूमधाम और दिखावे का प्रतीक होते थे। सम्राट भी अपने अनुचरों के सम्मान में उन्हें मखमल के बने चोगे प्रदान करते थे। इन मखमली परिधानों पर अक्सर सोने और चांदी के धागों से ज़री का काम किया जाता था। 16वीं शताब्दी के दौरान, सादे और ज़रीदर, दोनों प्रकार के मखमल का उत्पादन अहमदाबाद और लाहौर में और 17वीं शताब्दी में घरगाँव और असम में किया जाता था।

जहाँ तक ​​ऊन का संबंध है, यह मध्यकालीन भारत में एक प्रमुख तंतु नहीं था। इसका कारण आंशिक रूप से देश की जलवायु था जो कि बहुत ठंडी नहीं थी और कुछ सीमा तक, ऊनी सामान का बहुत महंगा और केवल शासक वर्ग द्वारा वहनीय होना था। आम आबादी ऊनी कपड़ों का बहुत कम उपयोग करती थी क्योंकि इसका उल्लेख उस समय की कृतियों में नहीं मिलता है। लोग अपेक्षाकृत, ठंड में सूती गद्देदार कपड़ों और कपास की रज़ाइयों का उपयोग किया करते थे। इसके बावजूद भी, ऊनी कपड़े भारत में निर्मित होते थे, मुख्यतः कश्मीर में, जहाँ तिब्बत, काबुल और सिंध से ऊन लाया जाता था। राजस्थान में अलवर और मेड़ता, पंजाब, आगरा और उत्तर प्रदेश में फ़तेहपुर सीकरी, तटीय आंध्र के एल्लूर अन्य केंद्र थे।

dd

बूटा रूपांकन सहित कश्मीरी शॉल। 18वीं शताब्दी. चित्र स्रोत: सालार जंग संग्रहालय।

xx

बूटा रूपांकन सहित कश्मीरी शॉल। चित्र स्रोत: इलाहाबाद संग्रहालय।

एक ऊनी वस्तु जिसकी राजघरानों में उच्च मांग थी, वह थी कश्मीरी शॉल। मुगलों के अधीन, 40,000 करघों के संचालन के साथ, शॉल उद्योग का अभूतपूर्व रूप से विस्तार हुआ। बर्नियर ने अपनी कृति में उल्लेख किया है कि कश्मीर के शॉल निर्माता बहुत अधिक धन अर्जित करते थे। ऐसा कहा जाता है कि राजा ज़ैन अल-आबिदीन (1420-70) फ़ारसी ट्विल टैपेस्ट्री तकनीक (कानी बुनाई) और एक नए प्रकार का करघा बनाने के लिए फ़ारसी शिल्पकारों को कश्मीर में लाए। लेकिन सुइ की कढ़ाई मुगल काल के दौरान विकसित की गई थी। अबुल फ़ज़ल ने बताया है कि अकबर ने शॉल के उत्पादन को प्रोत्साहित किया क्योंकि इसे शाही लोगों द्वारा बहुत पसंद किया जाता था और यह रईसों और विदेशी शासकों के लिए उपहार की एक वस्तु भी थी। जहाँगीर ने अपने संस्मरण में उल्लेख किया है कि कश्मीरी शॉल उनका सबसे पसंदीदा वस्त्र है। शाहजहाँ ने इन शॉलों को बड़ी संख्या में गोलकुंडा और बीजापुर के शासकों को भेजा था।

अबुल फ़ज़ल ने बताया है कि मुग़ल प्रशासन का कश्मीरी शॉल पर एकाधिकार था। शॉल बुनाई के लिए ऊन या पश्म को व्यापारियों और मज़दूरों के एक समूह के माध्यम से चीनी प्रांतों, तुरफ़ान और तिब्बत से लाया जाता था। पहले नक़्क़ाश या डिज़ाईन बनाने वाला, डिज़ाईन बनाता था, फिर अधीक्षक द्वारा निर्देश लिखे जाते थे, और बुनकरों को उन निर्देशों की प्रतियाँ दी जाती थीं, जो तब शॉल पर वांछित डिज़ाईन की बुनाई करते थे। शॉल की सबसे उत्तम किस्म वह होती थी जो तूश या तिब्बती मृग के ऊन से बनाई जाती थी।

dd

मुग़ल कालीन, 1610, लाहौर। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

इसी तरह, कालीन बुनना भी मध्ययुगीन काल के दौरान एक विकसित शिल्प बन गया था। वास्तव में, मुगलों से पहले भारत में कालीन बुनाई के संदर्भ काफी दुर्लभ हैं। कालीन निर्माण के मुख्य केंद्र आगरा, फ़तेहपुर, जौनपुर, ज़फ़राबाद, अलवर, कश्मीर, अहमदाबाद और लाहौर थे। पईल कालीनों (जिन कालीनों की सतह पर रेशे के लूप होते हैं) को भी इस दौरान, एक ऊर्ध्वाधर करघे पर बुना जाता था, जिसे संभवतः फ़ारस से लाया गया था। लाला टीक चंद द्वारा लिखित 18वीं शताब्दी के शब्दकोष बहार-ए-आज़म में इन कालीनों के बारे में कहा गया है कि ये मखमल की तरह बढ़िया, नरम, आलीशान, बहुरंगी होते हैं और पईल तकनीक से तकिए और कालीन भी बनाए जाते हैं।

dd

मुग़ल कालीन, लाहौर, रेशम और ऊन, 17वीं शताब्दी। चित्र साभार: जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

dd

कालीन, संभवतया कश्मीर, पश्मीना, रेशम, 18वीं शताब्दी ईस्वी। चित्र स्रोत: जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी। विकिमीडिया कॉमन्स ।

मध्यकालीन भारत के दौरान वस्त्रों और कपड़ों को सजाने की तकनीकों पर चर्चा, शानदार शिल्प कौशल और कारीगरों द्वारा उत्कृष्टता से किए गए कार्यो को उजागर करने के लिए, बहुत महत्वपूर्ण है। पहली विधि सुंदर रंगों और आकृतियों में कपड़ों की रंगाई थी। रंगाई से पहले कपड़े को विरंजित करने की आवश्यकता होती थी। टैवर्नियर हमें बताते है कि नींबू का उपयोग कपास को विरंजित करने के लिए किया जाता था। चूना, साबुन, गंधक और चावल के माड़ का उपयोग कपड़ों को उबालने और विरंजित करने के लिए किया जाता था। विरंजन और धुलाई, नदी या तालाब के पास एक विशिष्ट जाति के लोगों द्वारा की जाती थी।

रंगाई की प्रक्रिया काफ़ी सामान्य और सस्ती थी। इसमें कपड़े को उबालने के लिए तांबे के बर्तन, रंग को घोलने के लिए एक मिट्टी के कुंड, जैसी आम चीज़ों की आवश्यकता होती थी, और कपड़े को रंग सोखने के लिए उसमें डुबो दिया जाता था। एक छड़ी का उपयोग कर, रंग के घोल को हिलाया जाता था। रंग चढ़ने के बाद, कपड़े को मुलायम गठन प्रदान करने के लिए लकड़ी के डंडे से पीटा जाता था। इसके बाद इसे धूप में सुखाया जाता था।

dd

छत को ढकता हुआ चित्रकारी युक्त मुग़ल कालीन, 1755 ईस्वी। चित्र स्रोत: क्लीवलैंड म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट। विकिमीडिया कॉमन्स।

रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता था। इनमें सबसे प्रमुख रंग था नील (इंडिगो डाइ), जो नीले रंग को प्राप्त करने के लिए नील के पौधों से मिलता था। सबसे अच्छी नील की फसल आगरा के पास बयाना क्षेत्र और अहमदाबाद के पास सरखेज में पाई जाती थी। कैम्बे और बड़ौदा भी महत्वपूर्ण केंद्र थे।

med

साँचा छपाई वाला सूती कापड़ा, 15वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

लाल रंग, लाख से प्राप्त किया जाता था, जो कुनैन के वृक्ष पर मिलने वाले लाख के कीड़ों का स्राव होता है। यह उत्तर प्रदेश, पंजाब, बंगाल और दक्कन में पाया जाता था। यह महंगा होता था और इसका आम तौर पर रेशम के कपड़े पर ही उपयोग किया जाता था। दक्कन और दक्षिण भारतीय क्षेत्र में अल (मोरिंडा सिट्रिफ़ोलिया) वृक्ष और चैय पौधे की जड़ से भी लाल रंग निकाला जाता था। इसी तरह, हरसिंगार के पौधों और गेंदे के फूलों से पीला रंग प्राप्त होता था। बबूल के पेड़ की छाल को पानी में उबालकर विभिन्न प्रकार के भूरे रंग उत्पन्न किए जाते थे। इन सभी रंगों को लोह सल्फेट, चूना, चीनी, सोडा कार्बोनेट, आदि, जैसे रंगबंधकों के साथ मिश्रित किया जाता था।

इस अवधि के दौरान कपड़े को सजाने के लिए बाँधने और रंगने की विधि (बांधनी) भी प्रचलित थी। अबुल फ़ज़ल ने उल्लेख किया है कि अकबर के शासनकाल के दौरान बांधनी कपड़ा निर्माता काफी समृद्ध हो गए थे। एक अन्य विधि थी कलमकारी, जिसमें कपड़े पर कलम तूलिका से चित्रकारी की जाती थी। बर्नियर ने उल्लेख किया है कि मछलीपटनम चित्रित वस्त्रों का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था। इसका सबसे महत्वपूर्ण उपयोग सजावट के लिए किया जाता था, उदाहरण के लिए दीवार पर सजाने के लिए वॉल हैंगिंग पर कलमकारी की जाती थी।

medieval

रूमाल, कलमकारी, सूती, लगभग 1640-50। चित्र स्रोत: मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

med

पलंगपोश, छींट, 17वीं शताब्दी। यूरोपीय बाज़ारों के लिए उत्पादित। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

मुख्य रूप से लकड़ी के साँचे का उपयोग करते हुए, वस्त्रों पर छपाई भी की जाती थी। साँचे से छपाई करने वाले को छीपा कहा जाता था। संत नामदेव स्वयं को छीपा कहते थे। यूरोप में छपाई वाले कैलिको या छींट के कपड़ों की बहुत माँग थी। गुजरात छींटदार कपड़े के उत्पादन और निर्यात का एक बहुत महत्वपूर्ण केंद्र था। लाहौर और बाद में लखनऊ और फ़र्रुख़ाबाद ने भी अपने छींटदार कपड़े के लिए लोकप्रियता अर्जित की थी।

medieval

18वीं सदी की शुरुआत में बूटा रूपांकन युक्त शॉल की एक पट्टी। चित्र साभार: मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट।

मुग़लों के अधीन रूपांकन, विशेष रूप से पुष्प रूपांकन, प्राकृतिक दुनिया से प्रेरित थे। प्रारंभिक फूलदार आकृतियों में बड़े फूलों के साथ एकल पौधों को चित्रित किया जाता था लेकिन 17वीं शताब्दी तक, अत्यधिक जटिल और विस्तृत रूपांकन बनाए जाने लगे। गुलाब, आइरिस, कुमुदिनी (लिली), अफ़ीम के फूल, न केवल वस्त्रों पर बल्कि वास्तुकला पर भी दिखाई देते थे। मुगलों के राज्यकाल के दौरान, पेज़्ली (आंसू के आकार का) बूटा एक प्रमुख रूपांकन बन गया था, जिसे वस्त्रों, तंबुओं, शॉलों, कालीनों, आदि, पर पाया जा सकता था।

मध्यकालीन भारत में वस्त्रों को सजाने के लिए उन पर कढ़ाई करने का भी प्रचलन था। लकड़ी के फ़्रेम पर सोने और चांदी के तारों से कढ़ाई की जाती थी, जिसे जरदोज़ी के काम के रूप में जाना जाता था। इस प्रकार की कढ़ाई रेशम, साटन और मखमली कपड़े पर की जाती थी ताकि झिलमिलाते धागों के साथ ये कपड़े जगमगा उठें। मध्यकालीन भारत के कशीदाकार अधिकतर शुद्ध सोने और चांदी के धागों का इस्तेमाल करते थे। भारतीयों को 17वीं शताब्दी के अंत तक अन्य घातुओं पर सोने की परत चढ़ाने की कला का ज्ञान नहीं था। टैवर्नियर द्वारा उनकी कृति में इस बात का उल्लेख किया गया है। सोने की परत चढ़ाने की कला भारत में 19वीं शताब्दी में ही आई।

बहार-ए-आजम में कढ़ाई के अन्य रूपों, कशीदा और चिकन का उल्लेख है। यह दोनों ही धागे की कढ़ाई हैं। पहले में, आकृति को मोटे रंग के धागों का उपयोग करके कपड़े पर बनाया जाता था, जबकि दूसरे में हल्के रंग के कपड़े पर सफ़ेद रंग के धागे का उपयोग किया जाता है। चंद ने लिखा था कि, "कपड़े पर चिकन की कढ़ाई के काम को चिकन-दोज़ी कहा जाता है और कपड़े पर कढ़ाई करने वाले को चिकन-दोज़ कहा जाता है

me

किनारी का टुकड़ा, मलमल पर धागा कढ़ाई, 18 वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

मध्ययुगीन काल में वस्त्र उद्योग में अत्यधिक वृद्धि हुई और मुगलों के अधीन यह सबसे बड़ा उद्योग बन गया, और भारत के कपड़ों के खरीदार पूरे यूरोप भर में फैले हुए थे। अंग्रेज़ों के आगमन के बाद ही इस उद्योग का क्षय हुआ, क्योंकि हाथ से तैयार किए गए भारतीय वस्त्र, ब्रिटेन के नव-स्थापित उद्योगों में निर्मित सस्ते कपड़ों से प्रतिस्पर्धा न कर सके।