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प्राचीन भारत के वस्त्र और कपड़े

The site of Mohenjo-Daro

मोहनजोदड़ो खुदाई स्थल चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

भारत के वस्त्रों की कहानी दुनिया की सबसे पुरानी कहानियों में से एक है तथा यह प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है। मध्यपाषाण युग की गुफ़ा चित्रकारियों में कमर परिधानों को दर्शाने वाले उदाहरण मिले हैं, लेकिन वस्त्र के उत्पादन और उपयोग के ठोस साक्ष्य इतिहासोन्मुख काल यानी तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व से ही दिखाई देना शुरू होते हैं। हड़प्पा और चन्हूदड़ो में मिलने वाला, जंगली देशी रेशम कीट प्रजाति का साक्ष्य, मध्य तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व में रेशम के उपयोग का संकेत देता है।

दुखद रूप से, प्राचीन भारतीय वस्त्र विनिर्माण से संबंधित कोई भी ठोस सबूत नहीं बचा है, लेकिन मूर्त साक्ष्य की यह कमी पुरातात्विक खोज और साहित्यिक संदर्भों की बहुतायत से प्रतिसंतुलित होती है। मोहनजोदड़ो (2500 से 1500 ईसा पूर्व) के स्थल पर हुई खुदाई में, चाँदी के बर्तन पर लिपटे हुए, बुने और मजीठ (एक जड़ी-बूटी रंजक) से रंगे हुए, कपास के टुकड़ों के साथ रंजक कुंड की मौजूदगी का पता चलता है। इससे पता चलता है कि यहाँ कपड़े पर पक्का रंग चढ़ाने की प्रक्रिया की उन्नत समझ थी, जिसमें रंगबंधक का उपयोग किया जाता था, जो कि एक कार्बनिक ऑक्साइड होता है जो रंजक में घुलकर कपड़े पर रंग को पक्का कर देता है।

इसके अलावा, खुदाई से मिली, नक्काशी में उकेरी गई एक पत्थर की मूर्ति, बहुत ही स्पष्ट रूप से आकृति को रूपंकानों वाले कपड़े में लिपटे हुए दर्शाती है। ये दोनों सबूत, प्राचीन भारतीय सभ्यता में विद्यमान एक परिपक्व वस्त्र शिल्पकारिता के स्पष्ट परिसाक्ष्य हैं।

सिंधु घाटी के घरों में तकलियों और तकली चक्रों की खोज ने साबित कर दिया है कि कपास और ऊन की कताई करना बहुत आम बात थी। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, लोथल, सुरकोतदा और कालीबंगा जैसे सिंधु सभ्यता के स्थलों से पत्थर, चिकनी मिट्टी, धातु, टेराकोटा अथवा लकड़ी के तकली चक्रों के सबसे पुराने नमूने मिले हैं। माना जाता है कि हड़प्पा की वाणिज्यिक फसलों में कपास का प्रमुख स्थान था।

पुरातात्विक साक्ष्यों से, हमें हड़प्पा सभ्यता के दौरान पहने जाने वाले परिधानों की झलक मिलती है। मातृ-देवी की मूर्तिकाएँ, जो कमर तक नग्न हैं, हमें बताती हैं कि महिलाएँ घुटने तक की लंबाई वाले बहुत ही छोटे निचले वस्त्र पहनती थीं।

Mother Goddess

मातृ-देवी चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

Priest King

पुरोहित-नरेश चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

मोहनजोदड़ो स्थल से प्राप्त, तिपतिया (त्रिमुखी पत्तियों वाला) रूपांकन युक्त वस्त्र पहने पुरोहित- नरेश की मूर्ति से ऐसा प्रतीत होता है कि कढ़ाई वाला अथवा बिना कढ़ाई वाला चोगा, बाएं कंधे पर और दाएं हाथ के नीचे पहना जाता था। हड़प्पा में पाए गए ठीकरे (बर्तन के टूटे टुकड़े) पर एक व्यक्ति की आकृति, जांघिया (ब्रीच) अथवा चिपकी हुई धोती पहने हुए दिखाई देती है।

प्राचीन भारत में सिलाई की कला भी प्रचलित थी जैसा कि स्थल पर पाई गई सुइयों की संख्या से स्पष्ट है। सिंधु घाटी के प्राचीन स्थलों के पतन के बाद 1000 वर्षों के लिए वस्त्रों के साक्ष्य का अभाव है, लेकिन 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में यूनानी चिकित्सक सीटीज़ियन के लेखन में फ़ारसी लोगों के बीच चमकीले रंग के भारतीय वस्त्रों की लोकप्रियता का उल्लेख है, जो दर्शाता है कि सिंधु सभ्यता की अवधि के बाद भी भारतीय कपड़ों का निर्यात जारी रहा।

हमें वैदिक काल (1500-800 ईसा पूर्व) से परिधान की सामग्रियों और शैलियों के उद्धरण मिलते हैं जो प्राचीन भारत के वस्त्र इतिहास के विकास को इंगित करते हैं। ऋग्वेद में बुनकर को वासोवाय के रूप में वर्णित किया गया है। पुरुष बुनकर को वय कहा जाता था जबकि महिला बुनकर को वयित्री कहा जाता था। ऋग्वेद में मुख्य रूप से दो परिधान, वास अथवा निचला परिधान और अधिवास अथवा ऊपरी परिधान का उल्लेख है। उत्तरकालीन संहिताओं में, निवी, अथवा अंतर्वस्त्र, शब्द का भी उपयोग किया गया है। अत्क एक बुने हुए और सही नाप के बने हुए परिधान के रूप में वर्णित किया गया है। प्रायः आवरण वस्त्र तथा चोगे का उल्लेख सत्ताधारियों को इंगित करने के लिए किया गया है। कढ़ाई के भी उद्धरण वैदिक ग्रंथों में पेशस् के रूप में प्रकट होते हैं, जो नर्तकियों द्वारा उपयोग किया जाने वाला कढ़ा हुआ वस्त्र प्रतीत होता है।

ऐसा लगता है कि अच्छे परिधान पहनकर तैयार होने की सामान्य रिवाज़ थी और इसे सुवास और सुवासना अथवा 'सुसज्जित' जैसे शब्दों से समझा जा सकता है। परिधान विभिन्न रंगों के होते थे और इतिहास में इस समय तक, कपड़ों का उपयोग बहुत दृढ़ता से स्थापित हो गया था और ऋग्वेद में कपड़ों के रूपकों का उपयोग भी बहुत बार होता है। इंद्र को समर्पित एक भजन में, स्तुतियों और भजनों की तुलना सुरुचिपूर्ण रूप से निर्मित परिधानों अथवा वस्त्रेवभद्र सुकृता से की जाती है, जिसका अभिप्राय है सम्मानपूर्ण उपहार के रूप में ग्रहण करने योग्य। ऊर्णा सूत्र (ऊनी धागा) का उत्तरकालीन संहिताओं और ब्राह्मणों में लगातार उल्लेख किया गया है। ऊर्णा भेड़ के ऊन और बकरी के बाल को निर्दिष्ट करता है।

उत्तरकालीन वैदिक काल के परिधानों में भी निवी, वास और अधिवास सम्मिलित हैं। इस अवधि में रेशम और ऊन का उपयोग शतपथ ब्राह्मण से स्पष्ट हो जाता है, जो बलि के परिधानों का वर्णन करता है जिसमें रेशम का अंतर्वस्त्र (तैप्या), एक बिना रंगा हुआ ऊन का परिधान और पगड़ी सम्मिलित हैं। 'ताना' और 'बाना' शब्दों का बार-बार उपयोग, बुनाई की कला में इस अवधि तक हुए विकास को दर्शाता है।

Satapatha Brahmana

शतपथ ब्राह्मण चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

छपाई वाले (मुद्रित) कपड़े का सबसे पहला उद्धरण वैदिक युग के आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के चित्रंत शब्द से मिलता है। यज्ञोपवीत, ब्राह्मणों द्वारा पहना जाने वाला पवित्र धागा, कपास के सूत से बनाया जाता था।

वैदिक काल के बाद, वस्त्र के लिए प्रयोग किए जाने वाले कपड़ों की प्रकृति अथवा स्रोत के संबंध में, दो अलग अलग पद्धतियाँ स्थापित हुईं। पशु बलि के वैदिक मत का अनुसरण करने वालों ने खाल को कपड़ों का प्रमुख स्रोत माना, जबकि अन्य, विशेष रूप से बौद्ध और जैन मत के लोगों ने कपास को मुख्यता दी।

संस्कृत महाकाव्य, महाभारत (400 ईसा पूर्व-400 ईसवी) में, हिमालयी क्षेत्रों के सामंती राजकुमारों द्वारा युधिष्ठिर के लिए लाए गए उपहारों में, रेशमी कपड़ों का उल्लेख है। ऋग्वेद के बाद से बुनाई के कई उद्धरण पाए जाते हैं। पूर्वतर समय से ही महिला बुनकर हुआ करती थीं। महाभारत में छपाई वाले कपड़ों का भी उल्लेख है। छपाई वाले कपड़ों के लिए प्रयोग किया जाने वाला प्रचलित शब्द चित्र वस्त्र है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि प्राचीन भारत में कपड़ों पर छपाई भी की जाती थी। महाभारत में, 'मणि चीर' का उद्धरण है, जो संभवतः दक्षिण भारतीय कपड़ा था जिसकी किनारियों पर मोतियों को बुना जाता था।

Scenes from Mahabharata on Gouache and gold paper, c.1650 from Detroit Institute of Arts Museum showing
different kinds of costumes of that period

गॉचे और सुनहरे काग़ज़ पर महाभारत के दृश्य, उस काल की विभिन्न प्रकार की वेशभूषाएँ प्रदर्शित करते हुए, लगभग 1650, डेट्रॉइट इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्ट्स म्यूज़ियम से।

A relief scene of the Ramayana depicting the costumes worn during 5th/6th - 3rd century BCE, Uttar Pradesh. Image source: Wikiwand

5वीं/6वीं से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान पहने जाने वाले परिधानों को दर्शाते हुए रामायण का एक नक्काशी किया गया दृश्य, उत्तर प्रदेश. चित्र स्रोत: विकिवांड।

वाल्मीकि की रामायण (5वीं/6वीं - तीसरी शताब्दी ईसवी) के अनुसार, सीता के वधू साज-सामान में ऊनी कपड़े, पशुखाल के कपड़े, कीमती पत्थर, विविध रंगों के महीन रेशमी वस्त्र, राजसी और सजावटी तथा विभिन्न प्रकार के भव्य रथ सम्मिलित थे। महाकाव्यों, रामायण और महाभारत, में घूँघट, चोली और शारीरिक कपड़ों का बार-बार उल्लेख किया गया है। शादी के समय दुल्हन के साथ-साथ दूल्हे द्वारा उपयोग किए जाने वाले ऊपरी और निचले परिधान, हंस रूपांकनों से सुस्सजित, रेशमी कपड़े के बने होते थे। रामायण में छपाई वाले कपड़ों के कई उद्धरण हैं। रावण के घर की स्त्रियाँ विभिन्न रंगों के परिधान पहनती थीं; छपाई वाले कालीन, छपाई वाले कंबल और छपाई वाले कपड़े उपहार के रूप में वितरित किए जाते थे।

कौटिल्य द्वारा राजनीति पर रचित ग्रंथ, अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व), में सूत कातने वालों और बुनकरों को सामग्री वितरित करने के तरीकों के विषय में चर्चा है, चाहे वे लोग श्रमिक शिल्पी संघ के सदस्य हों अथवा घर में निजी तौर पर कार्य करते हों। इसमें सूत कातने वालों और बुनकरों को सामग्री वितरित करने हेतु 'अध्यादेशों' का उल्लेख है। इस पुस्तक में वर्णित कपड़ों में बंगाल की सफ़ेद छाल, बनारस का सन का कपड़ा, और दक्षिण भारत का कपास सम्मिलित हैं। यह बहुत ही मुलायम और मख़मली श्रेणी के कंबलों को भी संदर्भित करता है।

अर्थशास्त्र में, राजा के राजस्व के स्रोत के रूप में कपास पर परिचर्चा की गई है, लेकिन मुख्य रूप से खाल और ऊन, या फिर रेशम, घास और पौधों के तंतुओं पर सबसे अधिक महत्व दिया गया है। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार के यूनानी राजदूत, मेगस्थनीज़, ने अपनी पुस्तक इंडिका में उल्लेख किया है कि भारतीय चोगों में सोने का काम किया जाता है तथा वे कीमती रत्नों के साथ अलंकृत किए जाते हैं और लोग, फूलों के रूपांकानों से युक्त, उत्कृष्ट मलमल के बने परिधान पहनते हैं।

बौद्ध साहित्य में विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उल्लेख किया गया है, जैसे कि सन का कपड़ा (खोमन), सूती कपड़ा (कप्पासीकम), रेशमी कपड़ा (कोस्सेयम), इत्यादि। इस साहित्य में पाए जाने वाले अन्य संबंधित शब्द हैं - बुनकर (तंतुवाय), बुनाई की जगह (तंतवित्त्थानम), बुनाई के उपकरण (तंतभांड) और करघा (तंतका)। जातक कथाएँ भी कताई और बुनाई के उपकरणों को संदर्भित करती हैं। बौद्ध जातकों में रेशम का उल्लेख है और पाली साहित्य बौद्ध काल की वस्त्र कला का एक समृद्ध चित्र प्रस्तुत करता है, तथा बनारस के प्रसिद्ध कपड़े 'कसेय्य्क’ (बनारस का रेशम) और गंधार के चमकीले लाल रंग के ऊनी कंबलों का वर्णन करता है।

This sculpture of Didarganj Yakshi depicts the beautifully folded lower garment showing costume styles during the Mauryan period. Image source: Wikipedia Commons.

सुंदर रूप से मुड़े हुए निचले परिधान से युक्त, दीदारगंज यक्षी की यह मूर्ति मौर्य काल की पोशाक शैलियाँ प्रदर्शित करती है। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

The Bodhisattva wears a cap topped with a bow, a long flowing upper garment and dhoti. British Museum, London. Image Source: The Journal of Indian Art and Industry, Vol. VIII

शीर्ष भाग पर गज के साथ टोपी, लंबा ऊपरी परिधान और धोती पहने हुए बोधीसत्त्व। ब्रिटिश म्यूज़ियम, लंदन। चित्र स्रोत: द जर्नल ऑफ़ इंडियन आर्ट एंड इंडस्ट्री, खंड VIII।

जैन ग्रंथों में कपास के धागे (कपासिकासूतम) और कपास के कपड़े (कपासी कडूसम) का उल्लेख है। प्राचीन वैयाकरण, पाणिनि ने अष्टाध्यायी (5वीं/4वीं शताब्दी ईसा पूर्व, सबसे पुराना व्याकरण ग्रंथ) में तुला, अथवा सूती धागे, का उल्लेख प्रचलित कपड़ों में से एक के रूप में किया है। वे करघे को तंत्र, वह स्थान जहाँ बुनकर अपना करघा लगाता है उसको अवाया और ढरकी को प्रवानी, के रूप में संदर्भित करते हैं। पतंजलि का वर्णन है कि सूत कातने वाला कपास को तीन श्रेणियों - बहुत पतला, मध्यम, मोटा - में कातता है। कौटिल्य का वर्णन है कि धागे (सूत्र), कोट (वर्मन्) और कपड़े (वस्त्र) कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित किए जाते हैं। अर्थशास्त्र सूत कताई को नियंत्रित करने के लिए उत्तरदायी, धागा अध्यक्ष (सूत्राध्यक्ष) का संदर्भ देता है।

Headless statue of Kanishka, ruler of Kushana dynasty, 1st century BCE. The King wears a tunic, a belt and a long overcoat.

कुषाण वंश के शासक, कनिष्क, की अशिरस्क प्रतिमा, पहली शताब्दी ईसा पूर्व। राजा, अँगरखा, कमरबंद और एक लंबा ओवरकोट पहने हुए हैं।

Sculpture, Kushana period, 2nd century CE. Even though appearing nude, a ridge across the lady’s feet indicates a diaphanous muslin covering. Image Source: National Museum, Kolkata

मूर्ति, कुषाण काल, दूसरी शताब्दी ईसवी। नग्न दिखने के बावजूद, महिला के पैरों पर उभाड़ है जो पारदर्शी मलमल आवरण इंगित करता है। चित्र स्रोत: राष्ट्रीय संग्रहालय, कोलकाता।

गुप्त काल में, उच्च वर्ग के लिए बारीक कपड़ा और गरीबों के लिए मोटा कपड़ा बनाया जाता था। अमरकोश (गुप्त काल के दौरान लिखित एक पर्याय शब्दकोश) में हम सूती कपड़े (करपसम, फलम), धागा (तंतु, सूत्रम), बुनाई के उपकरण (वेमा, वामदण्ड) और कपड़े की बुनाई (वानी, व्युति) से जुड़े हुए शब्द पाते हैं।

इस काल में, कालिदास, एक सुंदर हंस रूपांकानों वाले कपड़े को पार्वती के परिधान के रूप में संदर्भित करते हैं। 7वीं शताब्दी में, बाणभट्ट विभिन्न रूपांकानों से युक्त, बंधन और रंजन प्रक्रिया द्वारा निर्मित, महंगे वस्त्रों को संदर्भित करते हैं। मिस्र की ममी को भारतीय मलमल में लपेटा जाता था। मध्य एशिया में भी प्रतिरोध-रंगाई द्वारा बने सूती कपड़े के टुकड़े की खोज की गई है।

7वीं शताब्दी ईसा पूर्व के परिधानों का प्रत्यक्षदर्शी विवरण, भारत आए एक चीनी भिक्षु यात्री, ह्युन सियांग द्वारा दिया गया था, जो उल्लेख करता है कि भारत में अधिकतर सफेद वस्त्र पहने जाते थे। “पुरुष अपने परिधान को अपनी कमर में लपेटते थे, फिर इसे बगल के नीचे एकत्रित करते थे, और इसे दाहिनी ओर लटकाते हुए पूरे शरीर पर गिरने देते थे। महिलाओं के चोगे जमीन तक रहते थे तथा उनके कंधों को पूरी तरह से ढँकते थे।“ वह उल्लेख करता है कि परिधानों को किउ-शे-ये (जंगली रेशम कीट से बना कपड़ा), कपास, तथा त्सो-मो (क्षौम) से बनाया जाता है, जो किन्न-पो-लो (कंबल) से बना एक प्रकार का सन के कपड़े के सामान कपड़ा होता है, जिसे महीन बकरी के बालों से बुना जाता है, बहुत क़ीमती होता है और इसे उत्कृष्ट कपड़ा माना जाता है। उत्तर भारत में लोग छोटे और चुस्त कपड़े पहनते थे। परिधान विविध रंगों के होते थे और श्रमण (भिक्षु जो तपस्या करते थे और आध्यात्मिक विमुक्ति के उद्देश्य से जीवन जीते थे) चोगे पहनते थे। .

Buddha sculpture, Gupta period, 5th century CE depicts Buddha’s left hand holding up a portion of the outer robe or sanghati. It shows that long hanging cloths with pleats was a favoured garment in that period. Image Source: Wikimedia Commons.

बुद्ध मूर्ति, गुप्त काल, 5वीं शताब्दी ईसवी, बुद्ध के बाएं हाथ को बाहरी चोगे या संघाटी के एक हिस्से को पकड़े हुए दर्शाती है। यह मूर्ति दर्शाती है कि चुन्नट के साथ लंबे लटकने वाले वस्त्र उस अवधि में पसंदीदा परिधान थे। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।