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सांची के बौद्ध स्मारक

भोपाल से लगभग 40 किमी दूर मैदान जैसे दिखने वाली एक पहाड़ी पर बौद्ध स्मारकों (अखंड स्तंभों, महलों, मंदिरों और मठों) से समृद्ध सांची स्थित है। ये स्मारक संरक्षण की विभिन्न अवस्थाओं में हैं। इनमें से अधिकांश दूसरी और पहली शताब्दी ईसा पूर्व के हैं। आज भी दर्शनीय यह सबसे पुराना बौद्ध स्थल है, जो 12वीं सदी तक भारत में एक प्रमुख बौद्ध केंद्र रहा था।

मध्य प्रदेश के सांची में स्थित बौद्ध स्मारकों को 1989 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। हालांकि, बुद्ध के जीवन से किसी भी तरह से न जुड़ा हुआ यह स्थल, महान वास्तुशिल्प और मूर्तिकला की आकर्षक बौद्ध संरचनाओं से समृद्ध है, और दुनिया के सबसे प्राचीन बौद्ध निर्माण कृतियों में से एक है। इस जगह पर दूसरी सदी ई.पू. से लेकर 12वीं सदी तक निर्माण कार्य चलते रहे हैं। स्मारकों में रेलिंग लगे स्तूप, स्तंभ, मठ, मंदिर और परिक्रमा मार्ग, शामिल हैं। 13वीं शताब्दी के बाद, बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही, यह स्थल परित्यक्त हो गया और कालांतर में यह स्थान पेड़-पौधों और कीचड़ आदि से भर गया।

यहां सबसे पहले दूसरी शताब्दी ई.पू. में शासक अशोक महान द्वारा एक स्तूप का निर्माण करवाया गया था, जिसमें बुद्ध के अवशेष हैं। ये स्मारक एक पहाड़ी पर स्थित हैं। मूल रूप से ईंटों से बने स्तूप को बाद में पत्थरों से मरम्मत करके इसपर प्लास्टर चढ़ा दिया गया। स्तूपों को घेरने वाली रेलिंग और अच्छी तरह से नक्काशी किए गए प्रवेश द्वारों को बाद में बनवाया गया है। रेलिंग उन लोगों द्वारा बनाई गई थी, जो लकड़ी का काम छोड़कर पत्थर संबंधी कारीगरी का काम शुरू किए थे।

यहाँ स्थित अन्य दो महत्वपूर्ण स्तूपों में बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्र और महामोदगलायन के अवशेष हैं। इन दोनों के अवशेषों को प्रारंभिक अंग्रेज खोजकर्ताओं द्वारा इंग्लैंड भेजा गया था, जिन्हें बाद में सांची लाया गया तथा अभी इन्हें यहीं के चेतियागीरी विहार में रखा गया है। अन्य महत्वपूर्ण संरचनाओं में मठ और जल भंडार हैं, जो बहुत अच्छी अवस्था में संरक्षित हैं। यहां एक संग्रहालय भी है।
यहां एक अशोक स्तंभ भी है, जिसमें प्रसिद्ध राजाज्ञा का उल्लेख है। पारस-ग्रीक शैली में बने इस स्तंभ की धात्विक चमक को देखा जाए तो यह मौर्यकालीन कारीगरी का जीवंत उदाहरण है, जो आज भी नायाब है। स्मारकों पर पाए गए शिलालेखों पर दाताओं के नाम हैं, जो इस बात का संकेत करते हैं कि यह स्थल पास में बसे संपन्न बौद्ध समुदाय के संरक्षण के चलते अपनी समृद्धता को बनाए रखा था। ये शिलालेख ब्राह्मी लिपि के मूल्यवान स्रोत भी हैं। 

सांची के बौद्ध स्मारक हीनयान और महायान शाखाओं से जुड़े हुए हैं। पहले बुद्ध को चित्रित करने में विश्वास नहीं किया जाता था, लेकिन उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण वस्तुओं, घटनाओं, जैसे कि हाथी (जन्म), स्तूप (मृत्यु), पेड़ (ज्ञान), और एक चक्र (उपदेश) से जुड़े प्रतीकों द्वारा उनकी उपस्थिति को प्रतिपादित किया गया। बाद में, महायान शाखा के विस्तार के साथ बुद्ध की मूर्तियां भी स्थापित की जाने लगीं। पूजा के लिए उपयोग किए जाने वाले सांची के मंदिर स्वतंत्र रूप से निर्मित संरचनाओं की शुरूआत को दर्शाते हैं। इसके अलावा, अंततः भारतीय समाज में आत्मसात किए गए भारतीय समाज में विदेशियों की उपस्थिति को मूर्तियों में पाए गए ग्रीक-बैक्ट्रियन विशेषताओं से इंगित किया गया है।

सच्चाई यह है कि सांची के स्मारक, समय की मार, उपेक्षा और लूट के बाद भी अपने अस्तित्व को बचाए हुए हैं, जो प्राचीन भारत की उच्च स्तरीय कारीगरी और तकनीकी का एक प्रमाण है। प्राचीन काल से संबंधित इस स्थल का दुनिया भर में फैले बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत ही महत्व है।