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रुद्र वीणा

Type: तत् वाद्य

“रुद्र वीणा सागौन की लकड़ी, धातु, कद्दू, और बाँस से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र उत्तर भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपयोग किया जाता है।“



उत्तर भारत में रुद्र वीणा

Material: सागौन की लकड़ी, धातु, कद्दू, बाँस

“रुद्र वीणा एक प्राचीन वाद्य यंत्र है। इसमें सागौन की लकड़ी या बाँस से बना एक लंबा नलीदार ढाँचा होता है, जिसके दोनों किनारों पर लगभग चौदह इंच के दो खोखले अनुनादक/तुंबे लगे होते हैं। यह तुंबे सूखे या खोखले कद्दू से बने होते हैं। इसमें अंगुलिपटल (दाँडी) पर पीतल की चौबीस सारिकाएँ (मंद्र, मद्ध्य, और तर: तीनों सप्तकों में) लगाई गई होती हैं, जिन्हें मोम की मदद से अचल बनाया जाता है। इन सारिकाओं के ऊपर पीतल की पतली नुकीली प्लेट्स लगाई जाती हैं, जिन्हें सार कहा जाता है। इसमें 4 मुख्य तार और 3 चिकारी/ताल (दो दाईं ओर और एक बाईं ओर) तार होते हैं। ये सभी तार 3 कीलों, जिन्हें ककुभा कहा जाता है, की मदद से नली के एक कोने पर बांधे जाते हैं, जिसमें तारों को समायोजित करने के लिए दोनों तरफ 8 नियामक होते हैं। चार मुख्य तार मुख्य घुड़च से गुजरते हैं और अपने संबंधित खूँटियों में बंधने से पहले, वे मेरु कहे जाने वाले एक ऊपरी घुड़च से होकर गुजरते हैं। चिकारी तार अपनी-अपन खूँटियों पर लगने के लिए दो पार्श्व घुड़च पर लगे होते हैं, एक-एक दोनों तरफ। इसमें लगभग साढ़े तीन फ़ीट की लंबाई वाला एक अंगुलिपटल (दाँडी) होता है जो सभी सारिकाओं और तारों को एक साथ रखता है। यह दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुली में पहने जाने वाले मिजराव से बजाया जाता है। पार्श्व तारों को छोटी उंगली पर पहने गए मिजराव से बजाया जाता है। ड्रोन तारों के बाएँ पार्श्व को छोटी उंगली पर पहने गए मिजराव से बजाया जाता है। रुद्र वीणा को बजाने का पारंपरिक आसन वज्रासन या दरबारी बैठक हुआ करता था (जिसमें वीणा को तिरछे रखा जाता था, जहाँ ऊपरी तुंबा बाएँ कंधे पर टिका होता है, जबकि निचला तुंबा दाहिनी जांघ पर रखा जाता है और अंगुलिपटल (दाँडी) छाती के पास रखा जाता है)। बाद में, वादकों ने इसे बजाने के लिए एक नई मुद्रा का आविष्कार किया, जिसे सुखासन के रूप में जाना जाता है (इसमें वीणा को आधा तिरछा रखा जाता है, ऊपरी तुंबे को दाहिनी जांघ पर रखा जाता है, जबकि निचले तुंबे को फर्श पर रखा जाता है और अंगुलिपटल (दाँडी) को छाती से दूर रखा जाता है। पारंपरिक मुद्रा में रुद्र वीणा बजाते समय जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, इस नई मुद्रा से उन परेशानियों में कमी आई। माना जाता है कि वीणा शब्द का उद्गम वण शब्द से हुआ है, और यह ऋग्वेद में वर्णित एक तार वाद्य यंत्र है। वैदिक पुजारी कात्यायन ने अथर्व वेद में सौ तारों से युक्त एक वाद्य यंत्र के बारे में बताने के लिए भी वण का प्रयोग किया। वण का अर्थ ध्वनि (शब्द) और गति उत्पन्न करना है। इसलिए, वण को वह तार वाद्य यंत्र माना जाता था जिसने वीणा को जन्म दिया। यह माना जाता है कि रुद्र वीणा भगवान शिव द्वारा देवी पार्वती की सुंदरता के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में बनाई गई थी। माना जाता है कि इस वाद्य यंत्र को भगवान शिव ने सबसे पहले बजाया था, और यह भी माना जाता है कि इसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ होती हैं। यह माना जाता था कि रुद्र वीणा महिलाओं के नाजुक कंधों के लिए बहुत भारी हुआ करता था। लिहाजा, महिलाओं को इसे बजाने की अनुमति नहीं थी। हालांकि, आधुनिक युग कुछ महिला वादक भी हैं। रुद्र वीणा अब लगभग विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुका एक दुर्लभ वाद्य यंत्र बन गया है। इसको बनाने वाले शिल्पकार और साथ ही इसके वादक, दोनों ही, अब बहुत कम पाए जाते हैं। इस वाद्य यंत्र ने उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दिनों में सुरबहार, सितार और सरोद, आदि जैसे अन्य तार वाद्य यंत्रों के विकास के साथ ही अपना महत्व खो दिया। यह लकड़ी से बना एक लंबा नलीदार ढाँचा। इसमें दो बड़े आकार के गोल अनुनादक होते हैं, जो केंद्र से एक समान दूरी पर, नली के नीचे लगे होते हैं और उत्तम गुणवत्ता वाले कद्दू से बने होते हैं। इसमें चार बजने वाले तार लगे होते हैं, जिनमें से एक इस्पात और तीन तांबे के तार होते हैं जो निचले छोर पर हुक से बंधे, और नली के समानांतर खिंचे होते हैं और अलंकृत समस्वरण खूँटी तक ले जाए जाते हैं। नली के दोनों तरफ घुड़चों पर दो ड्रोन तार होते हैं जो अपनी-अपनी खूँटियों तक खिंचे होते और उससे बंधे होते हैं। चौबीस पीतल युक्त उभरे हुए लकड़ी की सारिकाएँ होती हैं जिन्हें मोम की मदद से नली पर लगाया गया होता है। इसमें लगे अनुनादक बड़े पैमाने पर लकड़ी के फूलों की नक्काशी से सजाए गए होते हैं। इसमें खूँटी धानी पर भी नक्काशी हुई होती है। नली का निचला सिरा एक पक्षी की उकेरा जाता है और हाथी के दांत से बने चौड़े समतल घुड़च के लिए आधार के रूप में कार्य करता है। बजाते समय, एक तुंबा बाएं कंधे पर और दूसरा तुंबा दाहिनी जांघ पर टिका होता है। इसे दाहिने हाथ की उंगलियों पर पहने जाने वाले तार से बने मिजराव के द्वारा बजाया जाता है। यह उत्तरी भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपयोग होने वाला वाद्य यंत्र है।”