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काटुम कुटुम

Katum Kutum
Katum Kutum

‘उत्तम कला वहाँ से शुरू होती है जहाँ प्रकृति समाप्त होती है’ - मार्क शगाल
अबन ठाकुर के नाम से जाने जाने वाले, अबनिंद्रनाथ टैगोर, रबिंद्रनाथ टैगोर के कलाकार भतीजे थे। बहुत कम उम्र से ही उन्होंने कला में रूचि दिखाई – उनकी पहली कृति, अपने पिता की रंगीन पंसिलों से, नौ वर्ष की आयु में बनी थी। जब वे लगभग २० वर्ष के थे तब उनका कलकत्ता गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट में दाखिला हुआ जहाँ उन्होंने, वहाँ पढ़ाने वाले यूरोपीय चित्रकारों, ओ. गिलहार्डी से पस्टेल का उपयोग और सी. पामर से तैल चित्र बनाना सीखा। उन्होंने अंग्रेज़ी राज्य के दौरान कला विद्यालयों में सिखाई जाने वाली पाश्चात्य कला शैली के विरोध में पेंटिंग की मुग़ल और राजपूत शैलियों का आधुनिकीकरण किया और भारतीय कला शैली का विकास किया, जिसका बाद में बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट नाम पड़ा। अपनी बाद की कृतियों में उन्होंने अपनी कला में चीनी और जापानी सुलेखन-संबंधी परंपराओं का समावेश किया।

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अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में अबन ठाकुर ने कला की दुनिया को एक नई दृश्य अभिव्यक्ति का स्वरूप भेंट किया - पेड़ की बेकार डालियों और जड़ों, फलों के बीजों, बहती हुई लकड़ी और बची-खुची काम न आने वाली लकड़ी से बनी मूर्तियाँ। उन्होंने इसका नाम कुटुम काटम रखा जो बाद में काटुम कुटुम में बदल गया क्योंकि दूसरा वाला नाम शायद बोलने में सरल था। उखड़े हुए पेड़, मनुष्यों और जानवरों की आकृतियों और अन्य कला कृतियों में, बदल दिए जाते थे जिन्हें संजो के रखा जा सकता था। कुटुम काटम का अर्थ मिली हुई वस्तुओं से बनी कलाकृतियाँ है।

अबन ठाकुर के एक शिष्य ने अपने गुरु की स्मृतियों को याद करते हुए बताया था कि उसने अपने बचपन में उस महान कलाकार को कीड़ों द्वारा खायी हुई पेड़ की डाली, या एक फल के बीज को मंत्रमुग्ध होते हुए घूरते हुए पाया था। शायद वे प्रकृति के द्वारा फेंके हुए टुकड़ों में छिपी कला को देख रहे थे। ऐसा लगता था कि वे इन डालियों, बीजों, बांस के टुकड़ों से बाते करते थे और उन सब को कला कृतियों में परिवर्तित कर के उनमें जान डाल देते थे। उनका कलात्मक हाथ एक घुमावदार पेड़ की डाली को कपड़े में लपेट देता था, उसको बीजों से बना एक चेहरा देता था, उसकी कमर में धागे बांधता था, उसे नथनी और चूड़ियों से सजाता था, उसके सर पर आँचल उढ़ाकर उस डाली को एक संथाल कन्या के रूप में बदल देता था।

अबन ठाकुर ने एक अन्य विद्यार्थी को इस कला को उनके द्वारा दिए गए नाम, कुटुम काटम, का अर्थ समझाया। कुटुम शब्द का अर्थ है रिश्तेदार और काटम का अर्थ है रूप या संरचना। अतः इस प्रकार उनकी रचनाएँ उनके रिश्तेदार हैं और वे बहुत भावुक व्यक्ति हैं। उनको अपने ऊपर पेंट किया जाना या वार्निश लगवाना बिल्कुल पसंद नहीं है। उनको उनके प्राकृतिक रंगों में ही प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि इसी से प्रकृति प्रसन्न होती है। अबन ठाकुर ने अपनी कला विद्या, कल्पना और अनुभव से फेंकी हुई और परित्यक्त डालियों और जड़ों से सौंदर्य मूल्य की नई वस्तुओं का निर्माण किया, और इस प्रकार से प्रकृति और कला में सामंजस्य स्थापित किया।

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इस मूर्ती शैली के कलाकार अपनी कलात्मक दृष्टि द्वारा पेड़ों की कटी-फटी छालें और टूटी डंडियों, जड़ों और तनों में सुंदरता देखते हैं और आधुनिक ज्ञान के इस्तेमाल से उनसे कला की सुंदर आकृतियाँ बनाते हैं। कलाकार पेड़ों की डालों, डंडियों और तनों को उनके प्राकृतिक आकार में लेता है और कम से कम तराश कर और काट कर उनको बदल देता है। माँ प्रकृति के फेंके हुए टुकड़े भी सुंदर होते हैं और इनसे हमारी कल्पना और सृजनात्मकता जागृत हो सकती है और ये हमें अपना दृष्टिकोण कला के माध्यम से व्यक्त करने में मदद करते हैं। "

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