दुर्लभ देशज संथाल कठपुतली का खेल
चदर बदर या चदर बंधनी बहुत ही दुर्लभ देशज संथाल कठपुतली का खेल और संथाली संस्कृति का प्रमाण चिह्न है। कठपुतली का खेल हमेशा से ही लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है और लोक विद्या में इसने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह लुप्त होती हुई कला शैली, एक समय में झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडीशा, बिहार और असम में रहने वाले संथाल समुदायों द्वारा प्रदर्शित की जाती थी। आज मुट्ठी भर चदर बदर के कठपुतली का खेल दिखानेवाले पश्चिम बंगाल के बीरभूम, बर्धमान, उत्तर दिनाजपुर और बंकुरा जिलों और झारखंड के दुमका क्षेत्र में फैले हुए हैं। इस कला के लुप्त होने का मुख्य कारण यह है कि समुदाय के बहुत ही कम लोगों ने कठपुतलियाँ बनाने का मूल काम सीखा और उन्हें अस्थायी मंचों पर जिवंत बनाने का कौशल हासिल किया है। हालाँकि सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारी मदद से समुदाय के कुछ सदस्य इस कला शैली को बनाए रखने और इसे आने वाली पीढ़ियों को सौंपने का एक साहसी प्रयास कर रहे हैं।
कठपुतलियाँ बनाना चदर बदर का मुख्य पहलू है और इसमें तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है। जटिल कारीगरी से बनी, कठपुतलियाँ बांस या लकड़ी से बनाई जाती हैं और ये लगभग ८ से ९ इंच लंबी होती हैं। क्षेत्र में उपलब्ध हल्की लकड़ी पर नक्काशी की जाती है और एक बार कठपुतली बन जाती है तो उसे पेंट करके कपड़े पहनाए जाते हैं। कठपुतलियों के हाथ-पैर जटिल लीवर द्वारा नियंत्रित तंत्रों सहित होते हैं, जिन्हें खेल दिखाने वाले चलाते हैं। खेल दिखाने के लिए कठपुतलियों को एक छतरी से ढके छोटे चबूतरे पर रखा या एक चारों या तीन तरफ़ से खुले लकड़ी के डब्बे के अंदर लटकाया जाता है। अस्थायी मंच के पर्दे प्रदर्शन के ठीक पहले हटाए जाते हैं ताकि दर्शकों को पहले से कठपुतलियों को देखने का मौका न मिल पाए। कठपुतलियों को चलाने वाली डोर, लीवर और डंडियों को एक चादर या आवरण से ढक दिया जाता है। खेल दिखाने वाला डोर को खींचता है, जिससे डंडियाँ ऊपर नीचे होती हैं, और इस वजह से कठपुतली के हाथ-पैर चलते हैं। खेल दिखानेवाला प्राचीन संथाल संस्कृति से शब्दों और कविताओं का उपयोग करके कहानियाँ सुनाता है और इन कहानियों के सार को स्पष्ट करने के लिए कठपुतलियों द्वारा सही हाव-भाव दिखलाता है।
प्रदर्शन के साथ बाजे बनम, लगर, तिरेन्य या बांसुरी और टुंडा या माडल जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का मिश्रण बजाया जाता है। जब कठपुतलियाँ नाचती हैं तब ताल-मेल इतना सही होता है कि लगता है जैसे ये आकृतियाँ स्वचालित हैं। संगीत और गायन सहित ये कठपुतलियाँ एक लयबद्ध संथाली नाच का भ्रम पैदा कर देती हैं। यह प्रदर्शन देशज सजीवता और सरलता का प्रदर्शन है और समुदाय के सदस्यों द्वारा अपनी संस्कृति को बनाए रखने का प्रयास है। खेल दिखानेवाले की उँगलियों पर बंधी डोरी द्वारा कठपुतलियाँ चलाई जाती हैं। दुर्गा पूजा के आस-पास मनाए जाने वाले दसैन त्योहार के दौरान सदमुदाय के कुछ सदस्य इस कठपुतली नाट्य कला के प्रदर्शन की परंपरा को निभाते हैं।
वे कठपुतलियों को आस-पास के गाँवों में ले जाते हैं, खेल दिखाते हैं और अपने कार्य के आभार के रूप में चावल, दालें और दान प्राप्त करते हैं। ये प्रदर्शन संथाली त्योहारों और विवाहों जैसे अन्य खुशी के मौकों पर भी किए जाते हैं। चदर बदर की प्रस्तुति में जिलों के आधार पर कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। बीरभूम जिले में मंच गोल जबकि दिनाजपुर में यह सामान्यतः चौकोर होता है। चदर बदर के प्रदर्शन का समय तय नहीं होता है और यह दर्शकों की रूचि पर आधारित होता है। यदि दर्शक और देखना चाहते हैं तो खेल दिखानेवाला आसानी से प्रदर्शन का समय बढ़ा सकता है। खेल दिखानेवालों का अपनी कठपुतलियों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ाव होता है और वे उनसे अपने बच्चों के जैसा व्यव्हार करते हैं। सभी कठपुतलियों को नाम दिए जाते हैं – राम और लक्ष्मण पुरुष कठपुतलियों के और खुकुमोनी, सोनामोनी और लक्ष्मिमोनी स्त्री कठपुतलियों के सामान्य नाम होते हैं।
बीरभूम में चदर बदर कलाकार गोपाल नगर – करंपारा और निम्दंगा गाँवों में देखे जाते हैं। चदर बदर कठपुतलियाँ बनाने के लिए ईज़ेडसीसी ने बीरभूम जिले में शांतिनिकेतन में अपने सृजनी शिल्पग्राम में एक कार्यशिविर आयोजित किया था। देश के अन्य हिस्सों की तरह, इन कठपुतलियोँ का घर में सजाने और सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित करने में भी प्रयोग किया जा सकता है। कुछ वर्षों पहले ही यह कला बिल्कुल लुप्त हो गई थी और बहुत ही कम युवा संथालियों को इसके बारे में पता था। परंतु इस कला को फिर से जीवित किया जा रहा है और कई युवा लोग इस कला को सीख रहे हैं और अब वे इसका प्रदर्शन भी कर रहे हैं।