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राजस्थान की पगड़ी बांधने की प्रथा

Domain:सामाजिक प्रथाएँ, अनुष्ठान एवं उत्सवी कार्यक्रम

State: राजस्थान

Description:

पगड़ी बांधने (जिसे स्थानीय बोली में साफ़ा बांधना कहते हैं) की प्रथा में एक लंबे, ज़्यादातर बिना सिले कपड़े को एक निश्चित तरीके से तहों में मोड़कर पुरुषों के सर पर बांधा जाता है। यह कपड़ा या तो सादा होता है या इस पर तरह तरह के डिज़ाइन छपे होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं: क) साफ़ा जो ८-१० मीटर लंबा और १ मीटर चौड़ा होता है; और ख) पाग या पगड़ी जो २० मीटर लंबी और २० सेंटीमीटर चौड़ी होती है। लंबाई की विशालता को देखते हुए, साफ़ा बांधना एक जटिल कार्य है। प्रत्येक समुदाय इस परिधान को अपने विशिष्ट तरीके से पहनता है। इसका सबसे प्राचीन सबूत ईसा पूर्व दूसरी सदी के कुषाण काल की एक मूर्ती से मिलता है जिसमें एक महिला को साफ़ा पहने हुए दिखाया गया है। हालांकि आधुनिक साफ़ा लगभग ३०० साल पुराना है और अब केवल पुरुषों द्वारा ही पहना जाता है। औपनिवेशिक काल के ब्रिटिश नृवंशविज्ञानियों ने इस तथ्य के बारे में सजीवतापूर्वक लिखा है। आज साफ़ा गौरव और पहचान का प्रतीक है। इसके कई व्यवहारिक उपयोग भी हैं। यह पहनने वालों के सिरों की अत्यधिक तापमानों से रक्षा करता है। साफ़े का तकिये, गद्दे या कुँए से पानी खींचने की डोरी के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है। राजस्थान प्रदेश एक मरुभूमि है और लोगों ने वहाँ की प्रकृति में रगों की कमी को रंग-बिरंगे परधानों और संगीत से पूरा किया है, और साफ़ो के असंख्य रंग इसी बात के अनुरूप हैं। संदर्भ चाहे शहरी हो या ग्रामीण, साफ़े सब जगह हैं और इस प्रदेश की सबसे जिवंत परंपरा हैं। यह संस्कृति राजस्थान के सभी ३३ जिलों में प्रचलित है लेकिन मारवाड़, मेवाड़, ढूँढाड़, हाडोती, गोडवाड, शेखावती, वगाड, बिकाना और मेवात के क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय है। हिंदुओं के कुछ समुदाय जो इस परंपरा को मानते है वे हैं: राजपूत, चरण, भाट, बिश्नोई, जसनाथी, जाट, राईका (रेबारी), कालबेलिया, जोगी, रामस्नेही, ब्राह्मण, गुज्जर, महाजन, मीना, भील, गवारिया, कामध, मेघवाल, सूथर, नाई, लोहार और कुम्हार। इनके आलावा, प्रदेश में रहने वाले लंगा, मंगनयार, सिंधी, कायमखानी, रंगरेज़ जैसे मुसलमान समुदाय और सिख समुदाय भी हैं। यह परंपरा वर्गों, जातियों और पंथों के भेदभाव से परे सभी लोगों में फैली हुई है।