Domain:प्रदर्शन कला
State: उड़ीसा
Description:
छऊ पूर्वी भारत की एक प्रमुख नृत्य परंपरा है। यह पूर्वी भारत में उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल प्रांतों के सीमावर्ती क्षेत्रों के आदिवासी क्षेत्र में प्रचलित है। छऊ के तीन विशिष्ट प्रकार होते हैं:
(i) झारखंड का सेरैकेल्ला छऊ,
(ii) उड़ीसा का मयूरभंज छऊ,
(iii) पश्चिम बंगाल का पुरुलिया छऊ
मुखौटे सेरैकेल्ला और पुरुलिया के नृत्य के अभिन्न अंग हैं। वसंत उत्सव चैत्र पर्व के उत्सव-काल में छऊ नृत्य की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो इसके अनुष्ठानों से स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। यह लोगों की एक कला है क्योंकि यह पूरे समुदाय को सम्मिलित करती है। पारंपरिक कलाकारों के परिवारों के पुरुष नर्तकों, या गुरु या उस्तादों द्वारा प्रशिक्षित कलाकारों द्वारा इसका प्रदर्शन किया जाता है। इसकी उत्पत्ति नृत्य की देशज शैलियों और युद्ध प्रथाओं से हुई थी। खेल (दिखावटी संग्राम तकनीकियाँ), चालिस और टोपकस (पक्षियों और जानवरों की शैली के अनुरूप चाल) और उफ्लिस (एक गाँव की गृहिणी के दैनिक कार्यों पर आधारित भंगिमाएँ) छऊ नृत्य की मौलिक शब्दावली गठित करते हैं। नृत्य, संगीत और मुखौटा बनाने का ज्ञान मौखिक रूप से प्रसारित किया जाता है। यह एक खुले स्थान में प्रदर्शित किया जाता है जिसे अखाड़ा या असार कहा जाता है और यह रात भर चलता है। नर्तक ऐसे प्रदर्शन करते हैं जिनकी विभिन्न विषय-वास्तु होती हैं: स्थानीय किंवदंतियाँ, लोकसाहित्य और रामायण और महाभारत महाकाव्यों के प्रकरण और अमूर्त विषय। ढोल, धुम्सा और खर्का जैसे देशी ढोलों की ताल और मोहुरि एवं शहनाई की धुन इसके जीवंत संगीत की विशेषता है। नर्तक मूल रूप से मुंडा, महतो, कालिंदी, पट्टनायक, समल, दरोगा, मोहंती, आचार्य, भोल, कर, दुबे और साहू समुदायोँ के लोग होते हैं। संगीतकार मुखि, कालिंदी, गढे, धदा, समुदायों से होते हैं। वे यंत्र बनाने में भी सम्मिलित होते हैं। मुखौटा पुरुलिया और सेरैकेल्ला के छऊ नृत्य का एक अभिन्न हिस्सा है। इन मुखौटों को बनाने में महाराणा, महापात्र, सूत्रधार नामक पारंपरिक चित्रकारों के समुदाय सम्मिलित हैं।