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फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज : भारत में अंग्रेज़ी शासन का प्रतीक

चेन्नई में बंगाल की खाड़ी के किनारे एक आलीशीन सफ़ेद इमारत बड़ी शान से खड़ी है। इसमें केवल तत्कालीन मद्रास शहर का ही समृद्ध इतिहास नहीं, बल्कि भारत में मौजूद रह चुके औपनिवेशिक शासन का भी समग्र इतिहास समाया हुआ है। फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण 1639-1640 ईस्वी में किया गया था। इसे भारत के पहले अंग्रेज़ी किले के रूप में देखा जाता है। इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार केंद्र के रूप में स्थापित, यह अनगिनत युद्धों, प्लेग की बीमारी, और विरोध को सहने के बाद मद्रास जैसे विशाल शहर में बदल गया। वर्तमान में यह किला तमिलनाडु की विधान सभा के प्रशासनिक मुख्यालय के रूप में काम करता है। साथ ही, यह उन सैनिकों के लिए एक छावनी के रूप में भी काम करता है जो दक्षिण भारत के विविध क्षेत्रों में तैनात किए जाने के भेजे जाते हैं।

23 अप्रैल, 1644 ईस्वी को किले का आरंभिक निर्माण-कार्य पूरा हुआ। इस दिन को कई देशों में “सेंट जॉर्ज दिवस” के रूप में भी मनाया जाता है। इसलिए किले को यही शुभ नाम दिया गया। लेकिन 1644 ईस्वी के बाद भी अनगिनत निर्माण-कार्य और पुनर्निर्माण-कार्य होते रहे। वर्तमान में हमें जो फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज दिखाई देता है, वह 1639-1644 ईस्वी में बनवाए गए किले से कई मायनों में अलग है। स्वतंत्रता के बाद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा इस किले को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया।

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का दृश्य। चित्र सौजन्य : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

उत्पत्ति

ईस्ट इंडिया कंपनी 17वीं शताब्दी के आरंभ तक सूरत में अपना पहला व्यापार केंद्र स्थापित कर चुकी थी। फिर उसने अपने व्यापार का विस्तार करने के लिए मलक्का जलसंधि के निकट के तटीय क्षेत्र की ओर बढ़ने का निर्णय लिया। 1637 ईस्वी में एक अंग्रेज़ व्यापारी और ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि, फ़्रांसिस डे, समुद्री मार्ग से दक्षिणी कोरोमंडल तट की यात्रा पर निकल पड़े। यात्रा करते हुए वे मद्रासपट्टीनम नाम के एक छोटे-से गाँव पहुँचे। जहाँ भी उनकी नज़र पड़ी, वहाँ उन्हें बस बंजर भूमि ही दिखाई दी। इस भूमि पर छोटे-छोटे रेत के टीले थे और एकदम दूर मछुआरों की कुछ झोपड़ियाँ थीं। लेकिन फ़्रांसिस डे और मद्रास पर शासन करने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले एजेंट, एंड्रू कोगन, ने इस क्षेत्र को उसकी बंजरता पर ध्यान ना देते हुए, रणनीतिक दृष्टि से इस स्थल का महत्त्व समझा।

2 अगस्त, 1639 ईस्वी को प्रशासक फ़्रांसिस डे ने चंद्रगिरि के राजा से ​समझौता करने के बाद कोरोमंडल के तटवर्ती क्षेत्र के इस भूभाग को खरीद लिया। इस भूमि को 500 पैगोडा प्रतिवर्ष के पट्टे पर दिया गया। अंग्रेज़ों ने पुर्तगाली व्यापारियों को यहाँ घर बनाकर बसने की अनुमति दे दी। यह विवेकपूर्ण समझौता, दो शक्तिशाली व्यापारी समूहों ने, एक दूसरे के साथ पारस्परिक रूप से लाभकारी संबंध बनाए रखने के लिए किया था। यह पहली बार था कि इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के किसी भूभाग पर मालिकाना अधिकार प्राप्तकर उसकी किलेबंदी करने जा रही थी। द्वीप पर ईंट से एक फ़ैक्टरी (माल गोदाम) बनवाया गया, उस पर तोपों को चढ़ाया गया, और इसी को बड़ी शान से “फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज” का नाम दिया गया।

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज और मद्रास शहर का मानचित्र, 1726 ईस्वी। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स

किले का विकास

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का आरंभिक निर्माण-कार्य 1639 से 1644 ईस्वी के बीच किया गया था। बाद में 1760 और 1770 के दशकों में इस किले का विस्तार किया गया। इस किले की पहली योजना केवल एक छोटे वर्ग के आकार की थी, (जो वर्तमान में विधान सभा और सचिवालय की इमारत के रूप में मौजूद है)। इस किले का रूप और आकार कई बार परिवर्तित होता रहा, जिसके बाद ही इसका वर्तमान रूप स्थापित हुआ।

1640 ईस्वी में एंड्रू कोगन की एजेंसी के तहत “आंतरिक दीवारों” के पहले अहाते के भीतर फ़ैक्टरी की व्यापार चौकी स्थापित की गई थी। समय के साथ किले में दो अलग-अलग प्रकार की बस्तियाँ उभरकर सामने आईं। अहाते की दीवारों के भीतर वाली “वाइट टाउन” कहलाती थी। यह अंग्रेज़ों और यूरोपियों का निवास-स्थान था। इसमें कंपनी की वस्तुओं के लिए माल गोदाम, अधिकारियों के लिए घर, और कंपनी के कर्मचारियों के लिए निवास स्थान भी शामिल थे। दूसरी ओर किले के उत्तर में जुलाहों, धोबियों, और रंगसाज़ों की झोपड़ियाँ थीं। इस समूह को “ब्लैक टाउन” यानी मूल निवासियों की बस्ती के रूप में संदर्भित किया जाने लगा। ब्लैक टाउन फैलता गया और धीरे-धीरे तट पर रहने वाले मछुआरों के गाँवों से जुड़ गया। अंततः इससे मद्रास शहर का जन्म हुआ। इस शहर की स्थापना हो जाने के कारण इसके आसपास के क्षेत्र में दूरगामी प्रभाव पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप यह वाणिज्यिक गतिविधियों का केंद्र बन गया और अंततः यहाँ विभिन्न व्यापार केंद्रों और बाज़ारों की स्थापना हो गई। किले की सीमाएँ भी समय के साथ बढ़ गईं।

फ़्रांस की मद्रास पर घेराबंदी और उसपर कब्ज़ा

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज पर शत्रुओं द्वारा कई बार आक्रमण हुए, जिनमें से एक 1746 ईस्वी में फ़्रांस द्वारा उसकी घेराबंदी थी। अदमिराल दे ला बोर्दोनाई के नेतृत्व में फ़्रांसीसी नौसेना ने इस किले पर आक्रमण कर दिया और यह तीन दिनों के अंदर उनके कब्ज़े में आ गया। आक्रमण के दौरान इस संरचना के आंतरिक भाग बुरी तरह ध्वस्त हो गए। फ़्रांसीसियों द्वारा ब्लैक टाउन को बुरी तरह लूटा गया और सैन थोम पर कब्ज़ा कर लिया गया। इन सबके बीच गिरजाघर ही एक ऐसा स्मारक था जिसका निर्माण बुद्धिमानी से और योजनाबद्ध ढंग से किया गया था। इसी के कारण इस गिरजाघर को कम-से-कम क्षति पहुँची। इस किले को तीन वर्ष तक कब्ज़े में रखा गया। 1749 ईस्वी में एक्स ला चैपल संधि हो जाने के परिणास्वरूप इसे इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी को लौटा दिया गया। आक्रमण के बाद किले के पुनर्निर्माण के लिए एक नई रूपरेखा तैयार की गई और पुनर्निर्माण का कार्य शुरू किया गया। यह कार्य 1783 ईस्वी तक चला। इस किले का रूप और आकार तब से लेकर वर्तमान तक मोटे तौर पर अपरिवर्तित रहा है।

1754 ईस्वी के मद्रास को दर्शाती, ऑलिवर हिल की चित्रकारी

किले के इतिहास के अवशेष

किले के भीतर ऐसे विभिन्न स्मारक और संरचनाएँ मौजूद हैं जो फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज के उद्भव से लेकर वर्तमान तक की यात्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं।

सेंट मेरी गिरिजाघर

सेंट मेरी गिरिजाघर को समूचे एशिया के सबसे प्राचीन आँग्ल गिरजाघर के रूप में देखा जाता है। इसकी आधारशिला 25 मार्च, 1678 ईस्वी को रखी गई थी। राज्यपाल स्ट्रेनशैम मास्टर ने इस विस्मयकारी संरचना का निर्माण करने के लिए वाइट टाउन के प्रत्येक घर से 800 पगोडे की राशि इकठ्ठा की थी। इस संरचना को बनकर तैयार होने में 2 साल लग गए और “लेडी डे” यानी 25 मार्च, 1680 ईस्वी को, इसका विधिवत् नामकरण किया गया। इसी से इसका नाम सेंट मेरी गिरिजाघर पड़ा।

एडवर्ड फ़ोल (किले के मुख्य तोपची तथा मुख्य अभियंता) द्वारा सेंट मेरी गिरिजाघर की रूपरेखा ध्यानपूर्वक तैयार किए जाने के बाद उसका निर्माण किया गया था। सेंट मेरी गिरिजाघर का अधिकतर रूप और आकार ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। ठोस पत्थर की चिनाई से निर्मित, इस गिरजाघर की दीवारें 4 फ़ीट मोटी हैं जबकि इसकी (घुमावदार) छत 2 फ़ीट मोटी है। मध्य में एक गलियारा है जहाँ सर सैम्युअल हुड और ड्ररी नामक दो नौसेना के अध्यक्षों की याद में स्मारक हैं। वर्तमान में इस गिरजाघर में सागौन की लकड़ी की बेंचें हैं जिनकी जालियाँ सरकंडे से बनाई गई हैं। इनपर लगभग 500 लोग बैठ सकते हैं। वेदी पर एक शानदार चित्रकारी है जो ईसा मसीह के अंतिम भोज (लास्ट सप्पर) को दर्शाती है। यह चित्रकारी 18वीं शताब्दी में जॉर्ज विल्सन द्वारा बनाई गई थी। बाहर की ओर सुंदर घुमावदार सीढ़ियाँ हैं जो इमारत के एक बीच के खंड की ओर जाती हैं, और इस खंड द्वारा गिरिजाघर की मीनार इमारत से, और आंतरिक भाग में, पहली मंजिल का निर्माण करने वाले सुंदर लकड़ी के गलियारे से, जुड़ी हुई है। यह लकड़ी का गलियारा बर्मा की सागौन की लकड़ी से बना हुआ है। इसपर महीन नक्काशी मौजूद है। वेदी के निकट का जो भाग पादरियों के लिए होता है, उससे सटी हुईं सीढ़ियों से ईस्ट इंडिया कंपनी के विविध प्रतिनिधियों की कब्रों के पत्थर दिखाई देते हैं, जो ग्रेनाइट से बने हुए हैं। इनमें सबसे पुराना अंग्रेज़ी कब्र का पत्थर एलिज़ाबेथ बेकर का है, जो मद्रास के गवर्नर, आरॉन बेकर की पत्नी थीं। ये सभी पत्थर कब्रिस्तान में थे जहाँ वर्तमान में मद्रास लॉ कॉलेज की इमारत स्थित है। जब फ़्रांसीसियों ने किले पर आक्रमण किया था, तब उन्होंने कब्रिस्तान पर छावनी लगाई, कब्रों के पत्थर हटाकर वहाँ तोपें चढ़ाईं, और फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज पर बमबारी की थी। जब इस किले को अंग्रेज़ों को लौटा दिया गया, तब उन्होंने इन तोपों को वहाँ से हटाकर उन्हें सेंट मेरी गिरिजाघर के आसपास खड़ा कर दिया।

सेंट मेरी गिरिजाघर का दृश्य। चित्र सौजन्य : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

1804 ईस्वी में थॉमस डैनियल द्वारा बनाई गई फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज में स्थित गवर्नमेंट हाउस की चित्रकारी। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स

किले का संग्रहालय

1790 ईस्वी में किले के भीतर फ़ोर्ट एक्सचेंज स्थापित किया गया - एक ऐसा स्थान था जहाँ व्यापारियों द्वारा वस्तुओं और उत्पादों का आदान-प्रदान किया जाता था। यह 1795 ईस्वी में बनकर तैयार हुआ था। इसे बाद में किले के संग्राहालय में बदल दिया गया। यह संग्रहालय फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज में एएसआई की एकमात्र ऐसी संस्थान है जिसमें प्रवेश करने के लिए टिकट लगता है। यह संग्रहालय 1948 में आम जनता के लिए खुला था। इससे पहले यह इमारत मद्रास बैंक का कार्यालय थी। इसमें, 3661 पंजीकृत पुरावस्तुओं द्वारा, अंग्रेज़ों के भारत पर तीन सदियों के शासन को प्रदर्शित किया गया है। इनमें तलवारों, खंजरों, बंदूकों, पदकों, सिक्कों, मूल पत्रों, जैसी पुरावस्तुएँ शामिल हैं।

संग्रहालय की 3 मंज़िलों पर कुल मिलाकर दस कला दीर्घाएँ हैं, जिनमें से कुछ में चीनी मिट्टी की चीजों की, रूपचित्रों की, और भारतीय-फ़्रांसिसी दीर्घाएँ हैं। संग्रहालय के भीतर एक और महत्त्वपूर्ण वस्तु है। वह है लॉर्ड कॉर्नवॉलिस की संगमरमर की मूर्ति। ऐसा कहा जाता है कि यह संगमरमर की मूर्ति तत्कालीन समय में जहाज़ से मद्रास शहर लाई जाने वाली अकेली सबसे बड़ी और सबसे भारी वस्तु थी। मूर्ति को जहाज़ से नीचे उतारकर समुद्रतट तक लाने का भव्य दृश्य देखने के लिए लोगों के लिए सार्वजनिक छुट्टी की घोषणा की गई थी। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस दो बार भारत के गवर्नर-जनरल रहे। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज़ सरकार के इस महान कार्य के पीछे एक विशेष कारण था। उन्हें यह विश्वास था कि लॉर्ड कॉर्नवॉलिस कुछ ऐसा हासिल कर पाएँगे जो उस समय लगभग असंभव माना जाता था। यह था मैसूर के शेर, टीपू सुल्तान, को हराना। संग्रहालय में एक और कीमती वस्तु है और वह है भारत का ध्वज जिसे 15 अगस्त, 1947 को फहराया गया था।

किले के संग्रहालय का दृश्य। चित्र सौजन्य : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

किले के संग्रहालय में मौजूद रूपचित्र कला दीर्घा का दृश्य। चित्र सौजन्य : फ़्लिकर

ध्वजदंड

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का ध्वजदंड, भारत में अंग्रेज़ी शासन की एक और महत्त्वपूर्ण निशानी है। इस ध्वजदंड की ऊँचाई 148 फ़ीट की है और यह 1688 ईस्वी से किले में सीधे खड़ा है। ऐसा माना जाता है कि यह पूरे देश में सबसे ऊँचे ध्वजदंडों में से एक है। यह ध्वजदंड मूलतः किसी जहाज़ का मस्तूल था और इसे सागौन की लकड़ी के एक लंबे टुकड़े से बनाया गया था। 12 जून, 1688 ईस्वी को मद्रास के तत्कालीन गवर्नर, एलिहू येल, ने ध्वजदंड पर यूनियन जैक या ब्रिटिश ध्वज को फहराने की अनुमति प्राप्त की। किंवदंती के अनुसार यूनियन जैक को स्वतंत्रता से पहले केवल दो अवसरों पर बदला या उतारा गया था। ऐसा पहली बार 1746 ईस्वी में हुआ था जब फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने किले पर कब्ज़ा कर लिया था, और दूसरी बार 26 जनवरी, 1932, को जब स्वतंत्रता सेनानी आर्य भाश्याम ने किले की चोटी पर चढ़कर यूनियन जैक को हटाकर उसके स्थान पर भारतीय तिरंगा फहराया था। उनके इस साहसिक कार्य के लिए उन्हें कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। रिहाई के बाद उन्होंने फिर से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। इस घटना के बाद सीधे 15 अगस्त, 1947 को ही यूनियन जैक को नीचे उतारा गया और उसके स्थान पर भारतीय तिरंगे को फहराया गया।

ध्वजदंड का दृश्य। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स

चार्ल्स स्ट्रीट (मार्ग)

यह बात याद रखना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि यह किला यहाँ के निवासियों के लिए एक शहर भी था। किले का ऐसा ही एक भाग है चार्ल्स स्ट्रीट (मार्ग)। एक समय में वेलेज़्ली हाउस और क्लाइव हाउस नामक दो मुख्य इमारतों के यहाँ बने होने से यह मार्ग प्रसिद्ध है।

वेलेज़्ली हाउस

वेलेज़्ली हाउस का आधा भाग पूरी तरह ढह चुका है और वर्तमान में इस संरचना का थोड़ा ही हिस्सा बचा हुआ है। लेकिन फिर भी एक समय ऐसा भी था जब यह एक भव्य इमारत हुआ करती थी। इसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, बड़े-बड़े कमरे, चौड़ी सीढ़ियाँ, और बड़े हॉल थे। यह इमारत 1796 ईस्वी में बनवाई गई थी और इसके बारे में ऐसा माना जाता है कि इसमें वेलिंगटन के प्रथम ड्यूक, आर्थर वेलेज़्ले, और भारत के गवर्नर-जनरल, रिचर्ड वेलेज़्ले नामक दोनों वेलेज़्ली बंधु रहे थे। 1808 ईस्वी में जॉन हॉपनर ने आर्थर वेलेज़्ले का रूपचित्र तैयार किया। इसे पहले राजभोज कक्ष (बैनक्वेटिंग हॉल) में प्रदर्शित किया गया था, और बाद में किले के संग्रहालय में स्थानांतरित किया गया।

वेलेज़्ली हाउस का दृश्य। चित्र सौजन्य : फ़्लिकर

क्लाइव हाउस

किले के परिसर में वेलेज़्ले हाउस से कुछ ही फ़ीट की दूरी पर क्लाइव हाउस नाम की सबसे शानदार इमारत है जिसकी प्रतिष्ठा वर्तमान में भी कायम है। यह इमारत आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का मुख्यालय है। यह एक तीन-मंज़िली इमारत है जिसकी छतें अत्यधिक ऊँची हैं। सभी मंज़िलों पर मध्य में एक बड़ा हॉल है, और इनका उपयोग गणमान्य अतिथियों के स्वागत के लिए किया जाता था। इस इमारत का निर्माण आर्मीनिया के एक संपन्न व्यक्ति, कोजा नज़र जान द्वारा स्वयं और अपने परिवार के लिए किया गया था। 1749 ईस्वी में अंग्रेज़ों द्वारा इस किले पर फिर से कब्ज़ा किए जाने के बाद यह इमारत मद्रास के डिप्टी गवर्नर, रिचर्ड प्रिंस का निवास-स्थान बन गई। 1753 ईस्वी में इस इमारत को, इसके सबसे महत्वपूर्ण किराएदारों में से एक, रॉबर्ट क्लाइव को दे दिया गया। 1753 में ही किले के सेंट मेरी गिरिजाघर में रॉबर्ट क्लाइव का मार्गरेट से विवाह संपन्न हुआ। 1700 के दशक के अंत में क्लाइव हाउस महालेखाकार का कार्यालय बन गया और, 20वीं शताब्दी के मध्य में एएसआई के अधिकार में आने तक, यह इसी कार्यालय के रूप में काम आता रहा। इमारत के एक भाग में रॉबर्ट क्लाइव के जीवन से संबंधित विभिन्न रूपचित्र और दस्तावेज़ों की प्रतियाँ प्रदर्शित हैं, इसलिए एएसआई द्वारा इस भाग को “क्लाइव्ज़ कॉर्नर” नाम दिया गया है।

क्लाइव हाउस का दृश्य। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स

वर्तमान फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज

वर्तमान में इस किले का जो रूप और महत्त्व है, वह 1640 ईस्वी में बनी मूल संरचना से पूरी तरह अलग है, लेकिन इसके बावजूद यह आज भी देश का एक उत्तम प्रतीक है। वर्तमान में यह न केवल तमिलनाडु सरकार की वैधानिक और प्रशासनिक शाखाओं का केंद्र है, बल्कि यह भारतीय थलसेना और नौसेना के लिए भी सैन्य संचालन केंद्र के रूप में काम करता है। साथ ही, यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का मुख्यालय भी है।

वर्तमान में विधानसभा भवन इस किले परिसर की सबसे शानदार इमारत है। लेकिन यहाँ विभिन्न कार्यालय होने के कारण, इस जगह पर पर्यटकों के लिए प्रवेश की मनाही है। भले ही हमें वर्तमान में पिछली इमारतों की तुलना में एक नई संरचना दिखाई देती है, लेकिन इसकी आधारशिला निश्चित रूप से औपनिवेशिक काल में डाली गई थी। इस इमारत का उपयोग विविध कामों के लिए किया जाता है। विधानसभा कक्ष पूर्व में है, सचिवालय के कार्यालय पीछे की ओर हैं, और तमिलनाडु सरकार के मंत्रियों के कार्यालय सबसे ऊपरी मंज़िल पर हैं। 2010 में कुछ समय के लिए विधानसभा भवन और सचिवालय को अन्नई सलाई पर स्थित ओमंडूरार सरकारी ईस्टेट पर स्थानांतरित किया गया था, जहाँ वर्तमान में तमिलनाडु सरकार का मल्टी सुपर स्पेशालिटी अस्पताल खड़ा है। 2011 में विधानसभा भवन और सचिवालय को किले में पुनःस्थापित किया गया।

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज, भारत पर अंग्रेज़ों के आधिपत्य का, और, मुख्य रूप से, भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता के उतार-चढ़ाव का साक्षी रहा है।

वर्तमान में मौजूद सचिवालय इमारत का दृश्य। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स