पिप्पली: एक भूला-बिसरा मसाला
मेघालय का उत्तर पूर्वी राज्य भारतीय लंबी कली मिर्च अथवा पिप्पली का घर है। यह मसाला सूखी हरी मिर्च जैसा दिखता है और प्रायः भूल से एंथूरियम फूल का दाना (स्पाइक) समझा जाता है। पिप्पली नियमित काली मिर्च की तुलना में बहुत अधिक तीखी होती है तथा यह आयुर्वेदिक दवाओं का एक सामान्य घटक है। एक बहुआयामी मसाला, पिप्पली पाइपरेसी श्रेणी की फूल वाली बेल पर उगती है।
अपने नाम के अनुरूप, पिप्पली लंबी और आकार में शंक्वाकार होती है। पिप्पली साधारण काली मिर्च के परिवार की ही एक सदस्य है। पिप्पली पर लगे मिर्च के दानों को धूप में सुखाया जाता है और फिर या तो साबुत या ग्राइंडर में पीसकर उपयोग किया जाता है। जब स्वाद की बात आती है, यद्यपि यह काली मिर्च के समान ही होती है परंतु इसमें अधिक मिश्रित स्वाद होता है जो एक ही बार में मीठा, तीखा और खट्टा, सभी लगता है। यूरोप और अन्य पश्चिमी देशों ने लंबे समय से पिप्पली का उपयोग छोड़ दिया है। इन क्षेत्रों में इसे व्यावहारिक रूप से भुला दिया गया है। हालाँकि, भारतीय खाना पकाने में अभी भी पिप्पली का उपयोग किया जाता है, परंतु आयुर्वेद, यूनानी, और सिद्ध -3 पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणालियों - में इसका अधिक उपयोग होता है।
पिप्पली की बेलें मुख्य रूप से मेघालय के चेरापूंजी क्षेत्र में उगती हैं। यह बहुत पतली, बारहमासी और सुगंधमयी होती हैं और पेड़ों की छाया में अच्छी तरह से पनपती हैं। इस मसाले की खेती असम, पश्चिम बंगाल, नेपाल और उत्तर प्रदेश में भी की जाती है। पौधे बरसात के मौसम की शुरुआत में लगाए जाते हैं और इसके लिए उपयुक्त मिट्टी चूना पत्थर है। पौधों का जीवनकाल लगभग 4 से 5 वर्ष का होता है, जिसके बाद उपज कम हो जाती है और पौधों को उखाड़ दिया जाता है तथा नए पौधे लगाए जाते हैं। ये पौधे रोपण के लगभग 5 महीने बाद उपज देने लगते हैं। मेघालय में, पाइपर लॉन्गम जंगल में उगता है और जैविक होता है। कभी-कभी गोबर के उपले का खाद के रूप में उपयोग किया जाता है। हालांकि, प्रायः किसी भी खाद की आवश्यकता नहीं होती है। किसान मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता पर ही भरोसा करते हैं, जो वन क्षेत्रों में सड़ने वाले मरे पत्तों द्वारा मिलती है। पिप्पली के दाने, जो पौधे के फूल होते हैं, जनवरी में काटे जाते हैं, जब वे हरे, तीख़े और कोमल ही होते हैं। फिर दानों को धूप में अच्छी तरह से तब तक सुखाया जाता है जब तक कि वे भूरे रंग के न हो जाएँ। पिप्पली की बेल जंगल में पेड़ों के तनों पर उगती है। इसलिए, इन लताओं को बाहर से आधार प्रदान करने की आवश्यकता नहीं होती है।
उपयोग
पिप्पली के पौधे के फल और जड़ें उसके सबसे लाभप्रद हिस्से हैं। आयुर्वेद में जड़ों की बहुत मांग है। जड़ें और तने के मोटे हिस्सों को काटकर सुखाया जाता है और आयुर्वेदिक तथा यूनानी प्रणालियों में एक महत्वपूर्ण औषधि (पीपलामूल अथवा पिप्पली) के रूप में उपयोग किया जाता है। फलों का मसाले और अचार के रूप में भी उपयोग किया जाता है। उनका तीखा, मिर्च जैसा स्वाद होता है। दक्षिण भारत में, पाइपर लॉन्गम पौधे की जड़ का कंदाथिपिल्ली रसम नामक औषधीय सूप बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। यह शरीर के दर्द, गठिया के दर्द, सर्दी और खाँसी से राहत दिलाने में लाभप्रद बताया गया है। पिप्पली कोमा और उनींदेपन में नसवार के रूप में उपयोग की जाती है और यह वातहर के रूप में भी प्रभावी है। यह उन लोगों को शामक के रूप में भी दी जाती है जो अनिद्रा और मिर्गी से पीड़ित होते हैं। आज यह एक बहुत दृढ़ विश्वास है कि पिप्पली कैंसर से भी लड़ने में निर्णायक सिद्ध हो सकती है।
मिर्चों के बीच संघर्ष
पिप्पली नियमित भूमि व्यापार मार्गों के माध्यम से यूरोप में आती थी, जबकि काली मिर्च समुद्री मार्गों से आती थी। धीरे-धीरे अधिक से अधिक जल व्यापार मार्ग खुल गए जिसके परिणामस्वरूप काली मिर्च सस्ती और अधिक सुलभ हो गई। पिप्पली के विषाद को और बढ़ाने के लिए दक्षिण अमरीका की मिर्ची भी बाज़ार में दिखानी शुरू हो गई। थोड़े ही समय में यह पिप्पली का प्राकृतिक विकल्प बन गई। इसे "अमरीकी लंबी काली मिर्च" कहा जाने लगा। इसलिए, पिप्पली धीरे-धीरे विभिन्न प्रतियोगियों से हार गई और हालांकि, यह अभी भी भारत में अच्छी तरह से जानी जाती है, लेकिन पश्चिम में लोगों ने इसे करीब-करीब भुला ही दिया है!