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पहाड़ियों के अदृश्य रत्न- उत्तराखंड की रसोई के खजाने

हर साल हज़ारों लोग, मोक्ष की खोज में, देवभूमि उत्तराखंड आते हैं। ये यात्राएँ एक साधारण सप्ताहांत के अवकाश से लेकर ज्ञानोदय की चिंतनशील खोज के लिए की जाती हैं। इस भूमि के दिव्य वातावरण में भाग लेने का एक सरल मगर निश्चित तरीका है, इसका भोजन। छांदोग्य उपनिषद में, ऋषि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को भोजन का महत्व समझाने का प्रयास करते हुए, उसे 15 दिनों तक भोजन से दूर रहने के लिए कहते हैं। वे श्वेतकेतु को पानी पीते रहने की सलाह देते हैं (यह प्राण या श्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है)। 15 दिनों के अंत में, पुत्र से वेदों का व्याख्यान करने के लिए कहा जाता है। श्वेतकेतु घबरा जाता है क्योंकि उसे कोई भी भजन याद नहीं आता है। अपनी भूख को शांत करने के बाद ही उसका ज्ञान और विद्वत्ता पुनः स्थापित होते हैं। उद्दालक तब हैरान श्वेतकेतु को समझाते हैं कि यह भोजन ही है जो मन को पोषण देता है। कहानी की सीख यह है कि इस क्षेत्र के विशिष्ट स्वादों का आनंद लिए बिना देवताओं की भूमि की यात्रा कदाचित अधूरी है।

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उत्तराखंड, एक आध्यात्मिक सैरगाह

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उत्तराखंड का लुभावना भूदृश्य

उत्तराखंड राज्य को इसकी अनूठी भौगोलिक स्थिति से परिभाषित किया जा सकता है। इसके उत्तर-पश्चिम में हिमाचल प्रदेश राज्य और दक्षिण-पश्चिम में उत्तर प्रदेश राज्य स्थित हैं; उत्तर-पूर्व में तिब्बत है और दक्षिण-पूर्व में नेपाल स्थित है। इस क्षेत्र की प्रमुख भौगोलिक विशेषता हिमालय है, और क्षेत्र की जलवायु ऊँचाई के अनुसार बदलती रहती है। राज्य के सबसे उत्तरी हिस्से में ग्रेटर हिमालय का एक हिस्सा शामिल है। इससे सटा हुआ दक्षिण में लैसर हिमालय है। हिमालय की तलहटी के दक्षिण में शिवालिक पर्वत श्रेणी है।

दून, समृद्ध पर्यावरणीय विविधता वाली एक खुली घाटी है जो हिमालय की तलहटी और शिवालिक पर्वत श्रेणी के बीच स्थित है। राज्य के सबसे दक्षिणी हिस्से में तराई पट्टी का एक हिस्सा शामिल है, जो जलोढ़ मिट्टी से समृद्ध, एक निचली भूमि है। उत्तराखंड के दो मुख्य प्रशासनिक विभाग हैं: उत्तर-पश्चिमी भाग जिसे गढ़वाल के नाम से जाना जाता है और दक्षिण-पूर्वी जिसको कुमाऊँ के नाम से जाना जाता है। ये दोनों क्षेत्रीय विभाजन, समान नामों के ऐतिहासिक साम्राज्यों के साथ भी (करीब-करीब) मेल खाते हैं और इनमें विशिष्ट सांस्कृतिक और जातीय विशेषताएँ पाई जाती हैं।

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उत्तराखंड में सोपान कृषि (टेरेस फ़ार्मिंग) (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

राज्य के भूदृश्य का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ों, जंगलों और बंजर भूमि से ढका हुआ है, जिससे भूमि का केवल एक छोटा प्रतिशत ही खेती के लिए बचता है। कृषि, अर्थव्यवस्था के बजाय, जीविका द्वारा संचालित है, और मुख्य रूप से वर्षा पर आधारित है। फिर भी, यहाँ की भूमि ज्यादातर उपजाऊ है। पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ भूमि कटाव की आशंका होती है, सोपान कृषि (टेरेस फ़ार्मिंग) की जाती है । मिश्रित फसल (मिक्स्ड क्रॉपिंग) का तरीक़ा (एक ही क्षेत्र में एक या एक से अधिक फसलों को उगाना) खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली मुख्य फसलों में गेहूँ , चावल, विभिन्न प्रकार के मोटे अनाज, विभिन्न प्रकार की दालें, काबुली चना, सोयाबीन, सरसों और विभिन्न प्रकार के फल शामिल हैं। गेहूँ, जो वर्तमान में इस क्षेत्र की सबसे अधिक उगाई जाने वाली फसल है, वास्तव में यहाँ देर से उगाई गई थी। परंपरागत रूप से, आहार में श्वेतसार (स्टार्च) की आवश्यकता मुख्य रूप से मंडुआ (रागी) और झंगोरा (सामा चावल) जैसे अनाजों से पूरी होती थी। ये अनाज अत्यधिक पौष्टिक होते हैं और जिस तरीक़े से गेहूँ इस क्षेत्र के दैनिक आहार का हिस्सा बन गया है, उस पर पारंपरिक किसान अक्सर अफ़सोस करते हैं। गर्मियों के दौरान, मूंग, मलका, अरहर और चना जैसी दालें पसंद की जाती हैं। सर्दियों में उड़द, गहत, राजमा और पहाड़ी तूर जैसी गर्मी प्रदान करने वाली दालों का उपयोग किया जाता है। भट्ट नामक सोयाबीन का एक स्थानीय प्रकार, इस क्षेत्र का विशेष भोज्य पदार्थ है। विभिन्न प्रकार के पत्तेदार साग आहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। जंगली खाद्य पौधे भी पाक-टोकरी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं (जैसे जंगली खुमी या च्यून्स) और उन्हें पहचानने का ज्ञान पारंपरिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता है।

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रागी (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

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एक पहाड़ी थाली (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

विशिष्ट पहाड़ी भोजन थाली पौष्टिक गुण और आराम प्रदान करने वाले तत्त्वों से भरी होती है। इसमें चावल, रोटी, एक या दो मौसमी सब्जियाँ, दाल और चटनी होती है। भोजन में दालें विशेष स्थान रखती हैं और मौसम के आधार पर इनके विभिन्न प्रकारों का उपयोग किया जाता है। इस क्षेत्र की एक विशेषता यह है कि दाल को आम तौर पर रात भर भिगोया जाता है और फिर पकाने से पहले, पारंपरिक रूप से सिलबट्टे पर महीन पीसा जाता है (दुसरे स्थानों की तरह दाल को उबालकर और बाद में तड़का नहीं लगाया जाता)। मौसमी सब्ज़ियाँ जैसे लौकी, तोरी, मूली और कद्दू को सरसों के तेल में, कुरकुरे सरसों के बीज जैसे जखिया के बीज का तड़का लगाकर, हल्का पकाया जाता है। इस तरह पकाने से सब्जियों के असली स्वाद और पोषक तत्वों को बनाए रखने में मदद मिलती है।

तड़के के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक अन्य पारंपरिक घटक है चाइव (एक प्रकार का प्याज़), जिसे जंबू के नाम से जाना जाता है। चूंकि राज्य के कुछ क्षेत्रों में दालों का उत्पादन कम है, इसलिए दाल की जगह अक्सर, रसेदार सब्जियाँ बनाई जाती हैं। इस तरह का परिवर्तन, यानी, कम उत्पादन वाले खाद्य पदार्थों के विकल्प के रूप में कुछ अन्य व्यंजनों का उपयोग, इस क्षेत्र की विशेषता है। दूसरी ओर, बहुतायत में उत्पादित खाद्य पदार्थों को अक्सर धूप में सुखाकर रख लिया जाता है जिससे कि वे सर्दियों में ठंड के महीनों के दौरान भी काम में आते रहें।

पत्तेदार साग को हल्के से तला, या उबाला जाता है और फिर अधिक जटिल व्यंजनों को बनाने के लिए पीस लिया जाता है। इस क्षेत्र का एक विशेष पत्तेदार शाक है बिच्छू घास (बिच्छू-बूटी) जिसे गढ़वाल में कंडाली और कुमाऊँ में सिसुण के नाम से भी जाना जाता है। यह पौधा अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है और माना जाता है कि यह पेट की विभिन्न बीमारियों का इलाज भी करता है। अन्य पसंदीदा पत्तेदार साग हैं: टुकुलु (कोमल कद्दू के पत्ते), पट्यूड (अरबी के पत्ते), सरसों के पत्ते, और मूली के पत्ते।

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जखिया के बीज (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

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कंडाली या बिच्छू घास (बिच्छू-बूटी)

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मंडुए की रोटी, काफुली और पिसी लूण

गढ़वाल और कुमाऊँ के व्यंजन एक दूसरे से थोड़े ही भिन्न हैं, और उनमें विभिन्नताओं से ज्यादा समानताएँ हैं, जो कि अधिक महत्वपूर्ण हैं। प्रायः, एक ही व्यंजन को प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले पहाड़ी व्यंजनों में से एक काफुली है (गढ़वाल में धपड़ी के नाम से भी जाना जाता है), जो राज्य का एक हरा, स्वादिष्ट व्यंजन है जिसे मुख्य भोजन में खाया जाता है। पालक और मेथी को पहले उबाला जाता है और फिर उसका लसदार मिश्रण बनाने के लिए इन्हें पीसा जाता है। इस मिश्रण को फिर सरसों के तेल, हींग, प्याज और लहसुन के साथ तड़का लगाया जाता है और इसमें हल्दी, धनिया और जीरा जैसे मसाले डाले जाते हैं। अंत में, मिश्रण को गाढ़ा बनाने के लिए इसमें चावल का आटा मिलाया जाता है। काफुली को पारंपरिक रूप से मंडुए की रोटी के साथ परोसा जाता है। मंडुआ या रागी एक अत्यधिक पौष्टिक अनाज है जो प्रोटीन, कैल्शियम, खनिज और रेशों से भरपूर है, और हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगता है। मंडुए के आटे का उपयोग बाड़ी नामक जल्दी पकने वाले व्यंजन को बनाने के लिए भी किया जाता है, जिसमें आटे को उबलते पानी में डाला जाता है और ऊपर से घी डाला जाता है।

विभिन्न प्रकार की दालों का उपयोग करके इस क्षेत्र में प्रोटीन से भरपूर व्यंजन तैयार किए जाते हैं। फानू एक पौष्टिक व्यंजन है, जिसे गहत (चना) या अरहर से बनाया जाता है। दालों को कुछ घंटों के लिए भिगोया जाता है और फिर उन्हें महीन पीसा जाता है। दाल के इस मिश्रण के एक हिस्से से कटलेट बनाए जाते हैं और उन्हें गर्म तेल में हल्के कड़े होने तक तला जाता है। मिश्रण के शेष भाग को सरसों के तेल या घी और मसालों से तड़का लगाया जाता है, और धीमी आँच पर इसका रसा पकाया जाता है। अंत में, कटलेट को रसे में डाल दिया जाता है।

उड़द से बना चैंसू एक और पारंपरिक रसेदार व्यंजन है, जिसमें दालों को पहले भूनकर फिर पीसकर महीन चूर्ण बनाया जाता और फिर उसमें तेल, लहसुन और साबुत लाल मिर्च के साथ तड़का लगाया जाता है। भटोनी, उत्तराखंड की एक क्षेत्रीय विशेषता है जिसे कुमाऊँ में भट्ट के डुबके नाम से भी जाना जाता है। इसे बनाने के लिए, भट्ट (स्थानीय सोयाबीन) को पीसकर तेल और मसालों के साथ तड़का लगाया जाता है, और इसे धीमी आँच पर तब तक पकाया जाता है जब तक यह गाढ़ी न हो जाए। इस व्यंजन को पारंपरिक रूप से एक लोहे की कड़ाही या कड़ीदार डेगची में पकाया जाता है जो इसे विशेष गहरा हरा रंग प्रदान करती हैं।

उत्तराखंड के चिह्नक व्यंजनों में से एक है कंडाली का साग। इस व्यंजन को बनाने के लिए, कंडाली के पौधे की कोमल पत्तियों को चिमटे का इस्तेमाल करके तोड़ा जाता है (क्योंकि पौधा छोटे, चुभने वाले कांटों से ढका होता है)। पत्तियों को तब तक उबाला जाता है जब तक कि वे मुलायम न हो जाएँ। इसके बाद साग में, जखिया के बीज और साबुत लाल मिर्च के साथ, सरसों के तेल से तड़का लगाया जाता है। उत्तराखंड में, सर्दियों में विशेष व्यंजनों की मांग होती है जो शरीर को गर्म रखने के लिए बनाए जाते हैं। ऐसा ही एक व्यंजन है ठेचवानी, जिसे पहाड़ी मूली या स्थानीय मूली और आलू के उपयोग से तैयार किया जाता है। मूली को पीसा जाता है और घी में जाखिया के बीज के साथ आलू और मसाले मिलाकर पकाया जाता है।

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काफुली

उरद, काली सेम, राजमा और चना जैसी दालों के मेल से तैयार, एक अन्य शीतकालीन स्वादिष्ट व्यंजन, रुस है। इस व्यंजन को तैयार करने के लिए, दालों को पहले रात भर पानी में भिगोया जाता है और फिर उबाला जाता है। इसके बाद, दाल के पानी को दाल से अलग किया जाता है, उसमें चावल का आटा मिलाया जाता है और घी और मसालों के साथ तड़का लगाया जाता है। बची हुई उबली दाल (रसे से अलग की हुई) का उपयोग स्वादिष्ट बड़ियाँ या कटलेट बनाने के लिए किया जाता है।

स्वादिष्ट चटनियों और अतिरिक्त संलग्न व्यंजनों के बिना पहाड़ी भोजन को अधूरा माना जाता है। पहाड़ी या स्थानीय ककड़ी से तैयार, कुमाऊँनी रायता, गर्मियों के दौरान बहुत लोकप्रिय है। इस क्षेत्र का एक और प्रसिद्ध स्वादिष्ट व्यंजन है, भांग की चटनी। उन लोगों के लिए जिन्हें इसका ज्ञान नहीं है, पकवान का नाम विशेष जिज्ञासा जगा सकता है क्योंकि भांग या भांग का पौधा अपने मादक और भ्रमात्मक गुणों के लिए जाना जाता है। परंतु, भांग के बीजों का उपभोग करना सुरक्षित है और ये एमिनो और फैटी एसिड की अच्छाइयों से भरपूर हैं। इस चटनी को बनाने के लिए, भांग के बीजों को पहले भुना जाता है और फिर हरी मिर्च, धनिया और पुदीने की पत्तियों के साथ पीसा जाता है। यह दानेदार चटनी रोटियों और पराठों के साथ बहुत स्वादिष्ट लगती है।

एक अन्य क्षेत्रीय स्वादिष्ट व्यंजन है चुल्लू (खुबानी) की चटनी, जिसे, आधी पकी खुबानियों के गूदे को, लहसुन, पुदीने, मिर्च और नमक के साथ पीसकर तैयार किया जाता है। उत्तराखंड में रोटियों और पराठों को अक्सर पिसी लूण - जड़ी बूटियों और मसालों के साथ पिसे हुए सेंधे नमक, के साथ खाया जाता है। स्वाद से भरा हुआ होने के अलावा यह चटपटा व्यंजन सूक्ष्म पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। परंपरागत रूप से, पिसी लूण कड़ी सर्दियों के महीनों के दौरान, जब सब्ज़ियाँ कम मिलती हैं, तब रोटियों के साथ शौक से खाया जाता है। देंदूसा, पिसी लूण का एक प्रकार है, जिसे सेंधे नमक, राई और लाल मिर्च को एक साथ पीसकर तैयार किया जाता है।

उत्तराखंड का भोजन मुख्य रूप से शाकाहारी है। फिर भी, मांसाहारी व्यंजन भी कभी-कभार पहाड़ी भोजन सूचि में शामिल किए जाते हैं। आमतौर पर बकरे का मांस पसंद किया जाता है। जब किसी जानवर का, मांस के लिए वध किया जाता है, तो इसका उद्देश्य सभी संभावित खाने योग्य सभी भागों का उपयोग करना होता है। भुन्नी या भुटवा एक अनोखा गढ़वाली व्यंजन है जो बकरे की आंतों, कलेजे, उदर और रक्त से तैयार किया जाता है। इन सभी अंगों को, अनचाही गंध से छुटकारा पाने के लिए, गर्म पानी से अच्छी तरह से धोया जाता है। फिर इन्हें लोहे की कड़ाही में चुनिंदा मसालों के साथ तब तक पकाया जाता है जब तक कि ये अंग गलकर एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से मिल न जाएँ। मांस को हल्के मसालेदार और तीखे रसे में भी पकाया जाता है जिसमें प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन और अन्य मसाले शामिल होते हैं।

उत्तराखंड की मिठाइयाँ भी इस क्षेत्र की मिट्टी के स्वाद को प्रदर्शित करती हैं। झंगोरा की खीर, झंगोरा या सामा चावल से बनाई जाती है, और यह अत्यधिक पौष्टिक मीठा पकवान है। सामा चावल, मानव जाति को ज्ञात सबसे प्राचीन अनाजों में से एक है और यह हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगता है। एक और अनोखी मिठाई है सिंगोड़ी, जिसे अल्मोड़ा क्षेत्र में सबसे पहले बनाया गया था। सिंगोड़ी वास्तव में खोया और कसा हुआ नारियल होता है जिसे इसी क्षेत्र में उगने वाले मालू नामक सुगंधित पत्ते में लपेटकर बनाया जाता है। अल्मोड़ा जिले का एक और व्यंजन है बाल मिठाई: खोये और शक्कर से बनी गहरे भूरे रंग की बर्फ़ी। मिठाई को मोती जैसे चीनी के दानों में लपेटा जाता है, जो इसे मोहक रूप प्रदान करते हैं। मीठा गुलगुला गेहूँ के आटे और गुड़ से बनी एक और दिलचस्प मिठाई है। समारोहों और उत्सवों पर विशेष मिठाइयाँ और व्यंजन बनते हैं। अरसा, गुड़ और चावल के आटे से बने गुलगुले, शादियों में ज़रूर बनाए जाते हैं। मीठा भात या खुसका, यानी, गुड़ और घी के साथ पकाया जाने वाला चावल, शादी की भोजनसूचि का एक और अनिवार्य हिस्सा होता है। यह मिठाई पहाड़ी चावल (लाल चावल का एक स्थानीय प्रकार) से बनाई जाती है, जो इस पकवान को विशिष्ट चिपचिपा और भूसे जैसा स्वाद प्रदान करते हैं।

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सिंगोड़ी (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

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बाल मिठाई (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

पहाड़ों से शहरों की ओर बड़े पैमाने पर स्थानांतरण, कृषि का परित्याग और खाना पकाने के पारंपरिक तरीकों के समाप्त होने, जैसी आधुनिक गतिविधियों ने उत्तराखंड की पाक संस्कृति को प्रभावित किया है। क्षेत्र के विशिष्ट व्यंजन, मनुष्य और उसके समीपी पर्यावरण के बीच एक गहरे संबंध को दर्शाते हैं। हाल ही में, विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों और स्वयं-सहायता समुदाय समूहों द्वारा क्षेत्र के भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो न केवल पारंपरिक पाक वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करते हैं, बल्कि बाहरी दुनिया में भी इनको प्रदर्शित करते हैं। इस क्षेत्र के पर्यटन उद्योग ने भी आतिथ्य क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए यहाँ के विशिष्ट व्यंजनों को शीघ्रता से अपनाया है। इस क्षेत्र के कई रिसॉर्ट और होम-स्टे, अब यात्रियों को क्षेत्र के पौष्टिक स्वाद के साथ स्वयं को परिचित कराने का अवसर प्रदान करने के लिए अपनी भोजनसूचि में यहाँ के विशिश्त्र व्यंजनों का विकल्प प्रदान करते हैं।