Sorry, you need to enable JavaScript to visit this website.

भोगाली बीहू - विपुलता का त्योहार

बोहागोते अमारे आई मोहुरा होई घुरे  माघोत क्षुनोर हातेरे लखिमी आदोरे
क्षोरोत निक्सई तोरारे क्षोजई आइर ए केक्ष्ह
भारतोरे पूर्बा देखोर सूर्या उठा देक्ष्ह

"बोहाग में (के महीने में), माँ नृत्य करती है और मोहुरा (धागे की रील) की तरह सुघड़ता के साथ गोल घूमती है। माघ में, वह समृद्धि की देवी का स्वागत करती है।
वह शरद के शरदकालीन आकाश के सितारों से अपने बालों को सजाती है।
वह उगते हुए सूरज की भूमि है। "

स्वर्गीय डॉ. भूपेन हज़ारिका के गीत के ये सदाबहार बोल, भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी हिस्से में स्थित असमिया भूमि के सौन्दर्य और भाव को उपयुक्त तरीके से बयान करते हैं। यह गीत उस भू-भाग की प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता के गहरे अंतर-संबंध को दर्शाता है। बीहू का त्योहार, और उसका कृषि और उर्वरता के साथ अभिन्न संबंध, असम की संस्कृति और विरासत के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। माघ बीहू या भोगाली बीहू उदार प्रकृति और विपुलता का उत्सव है। यह असम के लोगों के लिए एक समुदाय के रूप में आनंद लेने (भोगा कोरा) और प्रकृति के उपहारों को साझा करने, और अपनी पहचान और अपनेपन की भावना को मजबूत बनाने का एक अवसर है। त्योहार के दौरान बनाए और परोसे जाने वाले अनगिनत व्यंजन, नमकीन और चटपटे पकवानों द्वारा भोग-विलासिता और एक दूसरे के साथ अपने सुख दुःख साझा करने की भावना अभिव्यक्त होती है।

bhogali=1

असम का हरा-भरा परिदृश्य

mm

बोहाग बीहू को नृत्यों, गीतों और खुशियाँ मनाकर चिह्नित किया जाता है। (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

Bhogali

काटी बीहू अच्छी फसल के लिए प्रार्थना का अवसर है। (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

बीहू के त्योहार के तीन रूप हैं: बोहाग बीहू , काटी बीहू , और माघ बीहू , जिनमें से प्रत्येक रूप, क्षेत्र के कृषि-कलेंडर की महत्वपूर्ण घटनाओं से मेल खाता है। बोहाग बीहू (मध्य अप्रैल में मनाया जाता है) वसंत की शुरुआत और फसल-रोपण चक्र की शुरुआत का संकेत देता है। काटी बीहू (अक्टूबर) को अच्छी फसल के लिए प्रार्थना के दिन के रूप में मनाया जाता है। माघ बीहू (मध्य जनवरी) फसल पकने के बाद कृषि चक्र के पूरा होने की निशानी के तौर पर मनाया जाता है। माघ बीहू को माघ की संक्रांति पर मनाया जाता है, अर्थात पूह या पौष मास के आखिरी दिन (चंद्र कलेंडर के अनुसार)। इसलिए इसे दोमाही या दो महीने का संगम (समाहार) भी कहा जाता है। इस दिन को हिंदू चंद्र वर्ष में शुभ माना जाता है और इसे मकर संक्रांति के रूप में भी जाना जाता है, अर्थात, जिस दिन सूर्य अपनी उत्तरवर्ती यात्रा शुरू करता है या उत्तरायण और हिंदू राशिचक्र की मकर राशि में प्रवेश करता है। इस दिन भारत के विभिन्न हिस्सों में सूर्य देव की पूजा अलग-अलग त्योहारों के रूप में की जाती है, जैसे पोंगल (तमिलनाडु), माघी (पंजाब) और उत्तरायण (गुजरात)।

Bhogali

कोलकाता में मकर संक्रांति पर सूर्य पूजा की तैयारी करते भक्त। (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

Bhogali

धान की खेती असम की एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है। (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

पुरातनता

फसल कटाई के त्योहार मानवीय सभ्यताओं जितने ही पुराने हैं और प्रकृति की उर्वरता को विभिन्न संस्कारों और अनुष्ठानों के माध्यम से नियंत्रित करने की मानव इच्छा में निहित हैं। इसलिए बीहू की उत्पत्ति प्रमाणित करना मुश्किल है। बीहू का त्योहार मुख्य रूप से धान की खेती के चक्र से जुड़ा हुआ है। इसलिए यह असम में चावल की खेती के विकास के साथ विकसित हुआ है। वर्तमान समय में कई बीहू अनुष्ठान जैसे पूर्वज-पूजा, और नृत्य और उर्वरता का आवाहन करने वाले गीत उस क्षेत्र की कुछ विशेष जनजातियों, जैसे खासी, की मान्यताओं और प्रथाओं के सांस्कृतिक अवशेष माने जाते हैं।

इस क्षेत्र में धान की खेती में सबसे महत्वपूर्ण योगदान 13वीं शताब्दी ईस्वी में असम में आए अहोमों द्वारा किया गया था। अहोमों ने ब्रह्मपुत्र घाटी में धान की खेती में साली-खेती या चावल की गीली खेती (पहले की आहु तकनीक जिसमें खेत में ठहरे पानी की आवश्यकता नहीं थी, के स्थान पर) की शुरुआत करके क्रांति ला दी थी। बीहू के तीनों रूप आज साली खेती के चक्र के चारों ओर घूमते हैं। अहोमों ने बीहू के उत्सव को संस्थागत रूप दिया और लोकप्रिय भी बनाया। माघ बीहू के दौरान, रंग-घर के शाही मैदान (शिवसागर पर हमारी कहानी देखें) पर विभिन्न खेल और प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं।

अनुष्ठान और परंपरा

सद्भाव और एकजुटता की भावना, भोगाली बीहू के हर पहलू में व्याप्त है। उरुका की रात (माघ बीहू के एक दिन पहले), गाँव के लोग (रईज़), बाँस, लकड़ी, घास और नोरा (धान के बचे हुए ठूँठों) से बनी, भेलाघोर नामक एक अस्थायी संरचना में एक साथ दावत करते हैं। माघ बीहू के लिए बनाई गई एक अन्य संरचना मेजी नामक बाँस, लकड़ी और घास से तैयार मीनार होती है। यह या तो एक नामघर (सामुदायिक प्रार्थना-घर) या किसी चुने हुए घर के सुतल (आंगन) में बनाई जाती है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये संरचनाएँ, गाँव के लोगों के संयुक्त प्रयासों के माध्यम से बनाई जाती हैं।

त्योहार की सामुदायिक भावना को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक घर, उत्सव के लिए कच्चे माल (अपनी क्षमता के अनुसार) का योगदान करता है। उरुका के दिन मछली पकड़ने की एक और पुरानी परंपरा निभाई जाती है जिसमें गाँव के लोग नदी या सामुदायिक तालाब में एक साथ मछली पकड़ते हैं। ताजी पकड़ी मछली का इस्तेमाल उरुका दावत में तैयार किए जाने वाले विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है। माघ बीहू में चोरी करने की एक अनोखी और मस्ती-भरी परंपरा है, जो ज्यादातर गाँव के युवा लड़कों द्वारा निभाई जाती है। चोरी की वस्तुओं में दावत के लिए घास, बाँस, सब्जियाँ और आँवला शामिल होते हैं। परंतु, शरारत के ऐसे कार्यों को आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि हर कोई एक उदार और उत्सवी भावना में डूबा होता है। दावत के बाद, अलाव के आसपास बैठकर यादों को ताज़ा करने और कहानियों को साझा करने में रात बिताई जाती है।

bo

अलाव (चित्र स्रोत: Pxhere)

अगली सुबह, अर्थात माघ बीहू के दिन, सर्दियों की कड़कड़ाती ठंड का उत्साहपूर्वक सामना करते हुए लोग मेजी के जलने को देखते हैं। चावल, दालें, घी और पीठा को सूर्य की आराधना हेतु अग्नि में अर्पित किया जाता है। मेजी का जलना अंधकार पर प्रकाश की और मृत्यु पर जीवन की विजय का प्रतीक है। असम के कुछ जातीय समुदाय जैसे सोनोवाल, कछारी, दिमासा और राभा, मेजी के जलने को पूर्वजों की पूजा से जोड़ते हैं। इस संदर्भ में, मेजी, महाभारत महाकाव्य के योद्धा भीष्म (कौरवों के राजसी खानदान के प्रधान पूर्वज) के अंतिम संस्कार की चिता का प्रतिनिधित्व करता है। किंवदंती है कि इच्छाधारी मृत्यु का वरदान पाकर भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण में पारगमन के बाद ही अपने नश्वर शरीर को त्यागने का निर्णय लिया था।

जैसे-जैसे लपटें मेजी को घेरती हैं, वैसे-वैसे लोग यह कहना शुरू कर देते हैं:
“पूह गोल माघ होल, अमर मेजी जोली गोल”
(मेजी के जलने पर पूह चला जाता है और माघ आ जाता है)

पानी-हिलोइस (पानी से भरा हरे बाँस का एक टुकड़ा जो आग में डालने पर तोप की तरह फटता है) की गड़गड़ाहट की आवाज़ सर्दियों के अंत और माघ की विजयी शुरुआत की घोषणा करता है।

BIREN DE

मेजी (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

ऐसी मान्यता है कि माघ-बंध का अनुष्ठान, या लगनी-गोस (फल देने वाले पेड़) के चारों ओर पुआल का बांधना उनकी प्रजनन क्षमता को बढ़ाता है। धान्यागार (भोराल-घोर) और गौशाला (गुहली) पर भी पुआल के टुकड़ों को बांधा जाता है और यह माना जाता है कि इस प्रथा से घर की संपूर्ण समृद्धि और भी बढ़ जाती है। दिन के दौरान विभिन्न प्रकार के जा-जोलपान और पीठा-पोना (नमकीन और स्वादिष्ट पकवानों) का सेवन किया जाता है। युवाजन बड़ों से आशीर्वाद मांगते हैं। विभिन्न रोमांचक खेल जैसे, टेकेली-भोंगा (ढोल पर आँखों पर पट्टी बांध कर मारना), रोसी-तोना (रस्साकशी) और गोधुर-बस्तू-डोलिउवा (शॉट पुट) उत्सव के उत्साह को और बढ़ा देते हैं।

परंपरागत रूप से, मोह-जूज (भैंस की लड़ाई), कुकुरा-जूज (मुर्गों की लड़ाई) और बुलबुली-जूज (भारतीय बुलबुल की लड़ाई) भी आयोजित होते थे; लेकिन अब आधुनिक समय में इनमें से ज्यादातर को बंद कर दिया गया है। नामघर में नाम-कीर्तन (प्रार्थना) करने में भी दिन व्यतीत होता है। असम के विभिन्न हिस्सों में, माघ बीहू के अवसर पर कई मेले भी आयोजित किए जाते हैं जैसे, दयांग बेलगुरी (मोरीगांव जिला) का जोनबील मेला, और बंगलीपारा (बारपेटा जिला) का माघी मेला। इन मेलों ने विभिन्न गाँवों और समुदायों के बीच पारंपरिक रूप से संसाधनों का आदान-प्रदान भी होता है।

bho

मोह-जूज या भैंसों की लड़ाई (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

Bhogali

कुकुर-जूज या मुर्गों की लड़ाई (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

भोगाली पकवान

इस त्योहार का मुख्य आकर्षण इस अवसर पर तैयार किए जाने वाले अनगिनत व्यंजन हैं, जिनमें पीठा सबसे विशिष्ट है। माघ बीहू तक आने वाले दिनों में, असम के ग्रामीण वातावरण में ढेंकी की आवाज़ व्याप्त हो जाती है, और कई बीहू गीत इसी घटना से प्रेरित हुए हैं। ढेंकी एक लकड़ी का कुटाई उपकरण है जो धान को कूटने और चावल को पीसने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, और अधिकांशतः सभी ग्रामीण असमिया घरों का अभिन्न हिस्सा होता है। पीठा को पारंपरिक रूप से क्षेत्र की महिलाओं द्वारा तैयार किया जाता है।

Bhogali

असमिया महिलाएँ भाप से पके पीठे तैयार करती हुईं। (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

Bhogali

ढेंकी का उपयोग करके पीठागुरी (चावल का आटा) तैयार करती महिलाएँ। (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

bh

पीठागुरी की पिसाई (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

इसको बनाने की प्रक्रिया वास्तविक त्योहार से कुछ दिन पहले शुरू होती है और यह महिलाओं के मेलजोल बढ़ाने और संबंध बनाने के लिए अपने आप में एक खूबसूरत अवसर होता है। पीठा को तैयार करना अपने आप में एक कला है। उदाहरण के लिए, सिरा (चपटा-चावल) के दानों को टेटेली-पोटिया होना चाहिए, यानी, एक इमली के पेड़ की पत्तियों के समान सपाट और बारीक। सभी घटकों (चपटे चावल, चावल का आटा) की कुटाई अत्यंत सावधानी के साथ की जानी चाहिए और इसमें विशिष्ट तीव्रता और तकनीक की आवश्यकता होती है। यद्यपि चावल की कुटाई एक अत्यधिक थका देने वाला कार्य है, लेकिन इसमें शामिल हँसी-ठिठोली, गपशप और उत्सव की भावना हर किसी को उत्साहित कर देती है।

bh

भोगाली थाल: पीठा-पोना और जा-जलपान (चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

bhogi

सुंगा-पीठा बनाना

पीठा बनाने के लिए आधार सामग्री मूलतः चावल ही होता है, जिनकी कई विदेशी किस्में असम में ही उगती हैं। भोगाली नाश्ता बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चावल की कुछ किस्में हैं: बोरा-धान, मालभोग-धान, बेजो-धान और सोकुआ-धान। पीठा को पीठागुरी (चावल का आटा), तिल, गुड़, नारिकोल (कद्दूकस किया हुआ नारियल), मुरी और अखोई (फुलाए हुए चावल की किस्में) से तैयार किया जाता है। माघ बीहू के अवसर पर तैयार किए गए सबसे अनोखे व्यंजनों में से एक होता है, सुंगा-पीठा ।

बाँस के बेलनाकार टुकड़ों को बोरा-साऊल (रात भर भिगोए गए चिपचिपे चावल) और पानी के बराबर भागों के साथ भरा जाता है, और सिरों को पुआल से बंद कर दिया जाता है। फिर उन्हें लोहे के स्टैंड पर रख दिया जाता है और नीचे से भूसे का उपयोग करके आग जलाई जाती है। आग को तब तक जलाए रखा जाता है जब तक कि बाँस की सबसे बाहरी परत जल न जाए और पीठा पूरी तरह से पक न जाए। फिर बाँस के टुकड़े को खोलकर पीठा को निकाला जाता है और उसके बाद दही, मलाई और गुड़ के साथ परोसा जाता है। चावल के आटे को गुड़ के साथ मिलाकर सुंगा-पीठा की एक और किस्म तैयार की जाती है।

bho

तिल-पीठा तैयार करना (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

Bhogali

नारिकोल-पीठा बनाना (चित्र स्रोत: फ़्लिकर)

glia

घिल-पीठा

पीठा को, तिल या नारियल को गुड़ में मिलाकर चावल के आटे की परतों में भरकर (डोसे की तरह) तैयार किया जाता है। इन्हें तिल-पीठा (तिल की भरावन से युक्त) और नारिकोल-पीठा (कद्दूकस किए हुए नारियल की भरावन से युक्त) के नाम से जाना जाता है। घिल-पीठा, सरसों के तेल में चिपचिपे चावल के आटे और गुड़ का पेस्ट डालकर तैयार किया जाता है और यह प्रसिद्ध मालपुआ के जैसा होता है। तेकेली-मुखोट-दीया-पीठा एक और स्वादिष्ट मिठाई है, जिसमें चावल के आटे को कद्दूकस किए हुए नारियल और गुड़ के साथ मिलाकर, कपड़े के छोटे बंडलों में बांधकर भाप में पकाया जाता है। खोला-सापोरी-पीठा को खोला नामक मिट्टी के बर्तन में चावल के आटे और नमक के एक पतले घोल से बने चपटे गोलों को तेल में तलकर तैयार किया जाता है। नारियल, तिल, गुड़, मुरमुरे और चावल के आटे का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के लारू या लड्डू भी तैयार किए जाते हैं।

भोगाली बीहू के दिन विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट जलपान (हल्के भोजन) का भी आनंद लिया जाता है। संदोह-गुरी (एक प्रकार का दलिया) गुड़ और दूध के साथ मोटे भुने हुए चावल को मिलाकर तैयार किया जाता है। दोई (दही) और गुड़ के साथ मिश्रित कोमल-साऊल (चावल की एक अनोखी किस्म जो भिगोने पर नरम और भरभरी हो जाती है) और बोरा साऊल (चिपचिपा चावल) अन्य प्रकार के मजेदार जलपान हैं। इन व्यंजनों का न केवल माघ बीहू के दौरान आनंद लिया जाता है, बल्कि ये इस क्षेत्र के पारंपरिक नाश्ते भी हैं। माघ बीहू पर बनाया जाने वाल एक विशेष व्यंजन है माह-करई, जो कि भुने हुए चावल, तिल, काले चने और सूखी अदरक को मिलाकर बनाया हुआ एक कुरकुरा मिश्रण होता है।

समय के साथ, माघ बीहू का त्योहार और इससे जुड़ी पद्धतियों, रीति-रिवाज़ों, और प्रथाओं में काफी बदलाव आ गए हैं। हालाँकि असम की अर्थव्यवस्था अभी भी मुख्य रूप से कृषि प्रधान है, आज कई परिवारों ने खेती का कार्य छोड़ दिया है और शहरों में बस गए हैं। मूल रूप से एक फसल उत्सव होने के नाते, ग्रामीण-कृषि परिदृश्य से अलग कर दिए जाने से बीहू की जीवंतता परिवर्तित हो गई है। शहरों में रहने वाले परिवारों के लिए, बीहू का उत्सव शायद ही कोई सामुदायिक कार्यक्रम हो। बिजली से चलने वाले रसोई उपकरणों ने बीहू व्यंजनों को तैयार करने के पारंपरिक तरीकों को बदल दिया है, जिसमें सामूहिक कार्य (टीमवर्क) और सहयोग की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, बाज़ार में बने पीठों ने घर के बने पीठों की जगह ले ली है। परंपराएँ, प्रथाएँ, और रीति-रिवाज़ स्वभाव से गतिशील होते हैं। समय के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए वे अनिवार्य रूप से विकसित होते रहते हैं। तमाम बदलावों के बावजूद, भोगाली बीहू के केंद्र में सामूहिकता और समाजप्रियता की भावना है। यह असमियों के लिए प्रकृति को उसके असीम उपहारों के लिए धन्यवाद देने, संवहनीय जीवन प्रथाओं की सराहना करने, सह-निर्भर समाज के रूप में संसाधनों का आनंद लेने और उन्हें साझा करने, और समुदाय से संबंधित भावना को मजबूत करने का अवसर होता है।

su

एक शांत सूर्यास्त, असम