भारतीय पाक कला का उद्भव: एक विलय की गाथा
भारतीय पाक संस्कृति हजारों वर्षों से फैले ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास का एक उत्पाद है। भारतीय व्यंजनों को ‘पलिम्प्सेस्ट’ के रूप में सर्वोत्तम रूप से वर्णित किया जा सकता है, जो किसी ऐसी चीज़ को दर्शाता है, जिसमें सतह के नीचे कई परतें या पहलू होते हैं, जिसमें प्रत्येक परत पूरे पर अपना अमिट प्रभाव डालती है। व्यापार, यात्रा, विजय और आक्रमण के परिणामस्वरूप होने वाले सभी सांस्कृतिक आदान-प्रदानों ने भारत की पाक विरासत में योगदान दिया है।

भारतीय व्यंजनों की पेशकश
प्रागैतिहासिक पूर्ववृत्त: कृषि का आरंभ
भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि की शुरुआत के कुछ आरंभिक प्रमाण इसके उत्तर-पश्चिमी भाग से आते हैं। उत्तरी राजस्थान में पाए गए पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं इस क्षेत्र में 8000 ईसा पूर्व से ही जंगलों को साफ किया गया और फसलों को उगाया गया। कृषि के विकास के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक स्थलों में से एक बलूचिस्तान में मेहरगढ़ है। गेहूँ और जौ इस क्षेत्र में 6500 ईसा पूर्व से उगाए गए थे। लगभग तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक, उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में गोदावरी, कृष्णा और कावेरी की नदी घाटियों में भी बस्तियाँ स्थापित हो गईं थीं। बड़े खुले कटोरे और बर्तनों के प्रमाण बताते हैं कि इस अवधि के दौरान दलिया और माँड़ जैसे भोजन का उपभोग किया जाता होगा। यह सामुदायिक भोजन की प्रथाओं की मौजूदगी का सुझाव भी दे सकता है।
सिंधु घाटी: नगर और अधिशेष
सिंधु घाटी सभ्यता (3000-2000 ईसा पूर्व) या हड़प्पा सभ्यता, पंजाब और सिंध की उपजाऊ नदी घाटियों के किनारे उभर कर आई। यह दुनिया की सबसे पहली ज्ञात नगर सभ्यताओं में से एक है। विद्वानों का सुझाव है कि इस सभ्यता के नागरिकों को नगरों के बाहरी क्षेत्रों में अधिशेष खाद्य उत्पादन द्वारा समर्थित किया गया था। इस अवधि में उगाई गई फसलों की संख्या और किस्मों में बहुत विविधता आई। पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि गेहूँ, जौ, दालें, मटर और तिल यहाँ की कुछ प्रमुख फसलें थीं। हालाँकि रोटी यहाँ प्रमुख भोज्य पदार्थ था लेकिन चावल भी खाया जाता था। मछलियों के प्रतीक व्यापक रूप से मुहरों पर पाए गए, जिससे पता चलता है कि यह आहार का एक हिस्सा थीं। पुरातत्वविदों ने सिंधु घाटी सभ्यता के एक प्रमुख नियोजित शहर, कालीबंगन (राजस्थान) में एक खेत की खोज की है। इस खेत में आड़े तिरछे प्रतिरूप में खरोंचें हैं जिनकी पहचान जुताई के कारण होने वाले हल से खेत में बनी लकीरों के रूप में की गई है। यह दिलचस्प है कि आज भी जुताई की यह आड़ी तिरछी विधि उत्खनन स्थल के आसपास के कुछ क्षेत्रों में किसानों द्वारा अनुसरण की जाती है। कालीबंगन में कई हज़ार जले हुए जौ के दानों भी पाए गए हैं जिससे इसके इस समय के दौरान इस क्षेत्र के एक मुख्य भोज्य पदार्थ होने का संकेत मिलता है। आधुनिक तंदूरों से मिलती-जुलती, मिट्टी से पुती हुई छोटी-छोटी भट्टियाँ, स्थल पर मिली हैं। चूँकि सिंधु घाटी के प्रमुख शहर, मेसोपोटामिया के साथ व्यापर में व्यस्त थे, इसलिए वहाँ की पाक कला के प्रभाव, विशेष रूप से रोटी और माँस पकाने के संबंध में, हड़प्पा के शहरों की ओर आए होंगे।

एक कृषि क्षेत्र में हल के निशान, कालीबंगन, राजस्थान

मिट्टी की भट्टी, कालीबंगन, राजस्थान

एक हल, बनावली, हरियाणा
वैदिक काल: गौ और यज्ञों की प्रधानता
हम तेरा गुणगान गाते हैं, हे अन्न! जैसे एक गाय से मक्खन प्राप्त होता है, वैसे ही हम आपसे अपना यज्ञ नैवेद्य प्राप्त करते हैं। हे देव और मनुष्यों के आनंददायक भोज।
-ऋचा 187, ऋग्वेद
वैदिक काल के दौरान, समाज में महत्वपूर्ण घटनाओं ने विशिष्ट पाक सेवन परंपराओं के विकास को प्रभावित किया। यह इसी अवधि के दौरान था कि जाति या जन्म के आधार पर स्तरीकरण समाज में पेश किया गया जो भोजन की शुद्धता और प्रदूषण की धारणा को भी अपने साथ लाया। वेदों का धर्म, यज्ञ या बलिदान के प्रदर्शन पर केंद्रित था। एक गृहस्थ द्वारा देवताओं को घरेलू चूल्हे पर पका हुआ भोजन अर्पित करना, सार्वजनिक बलिदान और सोम (एक नशीला तरल पदार्थ) पीने को यज्ञ में शामिल किया जाता था। गाय वैदिक युग के समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति में केंद्रीय भूमिका निभाती थी। इसके कारण स्वाभाविक रूप से इस अवधि के पाक खजाने में दुग्ध उत्पादों का व्यापक रूप से उपयोग हुआ। अनाज और सूखे जौ को दूध में पकाए जाने वाले व्यंजन को ओडाना कहा जाता था। जौ उस काल का प्रमुख अनाज था। तिल और सरसों जैसे तिलहनों का भी उपयोग किया जाता था। फलों और सब्ज़ियों में, वैदिक साहित्य में बिल्व (बेल), आमलक (आंवला) और आम का उल्लेख मिलता है।

सुजाता का बुद्ध के लंबे समय तक उपवास के बाद उनको भोजन अर्पित करते हुए एक चित्र, वट कसत्राथिरत बान पोम, थाईलैंड
बौद्धिक बंधन: भोजन एक लौकिक सिद्धांत के रूप में
भारत में छठी और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की अवधि को दूसरे शहरीकरण के रूप में जाना जाता है और इस बीच भारत की गंगा घाटी में कई शहरी केंद्रों का विकास हुआ। इस अवधि में बौद्धिक उत्तेजना देखी गई जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ प्रमुख धार्मिक और दार्शनिक मतों को जन्म दिया: जैसे जैन धर्म और बौद्ध धर्म। इस चरण को स्वयं और ब्रह्मांड की प्रकृति के बारे में दार्शनिक प्रतिबिंबों द्वारा चिंहित किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र की पाक प्रवृत्तियों के लिए भी आशय पैदा हुए। भोजन को जीवित प्राणियों का जीवन-स्रोत माना जाता था और इसलिए इसकी समानता स्वयं जीव के साथ की जाने लगी। ब्रह्मांड के जीवन के जटिल चक्र में, एक जीव दूसरे जीव का भोजन बन जाता है, जो पुनः तीसरे के लिए भोजन होता है और यह श्रृंखला चलती रहती है। बौद्ध धर्म में एक लोकप्रिय किंवदंती एक भक्त महिला सुजाता की कहानी का वर्णन करती है जो, अपनी गंभीर तपस्या के दौरान निर्बल अवस्था में पहुँचे बुद्ध को, उबले हुए चावल और दूध का कटोरा भेंट करती है। यह माना जाता है कि इस भोजन से पुनर्जीवित होने के बाद ही बुद्ध आत्मज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हुए। कहा जाता है कि इस घटना ने उन्हें मध्य मार्ग अपनाने और घोर तपस्या के सिद्धांत को छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों ने जीवित प्राणियों के लिए अहिंसा या जीवित प्राणियों को आघात न पहुँचाने के आदर्श पर ज़ोर दिया। विद्वानों का तर्क है कि इससे आम लोगों के बीच शाकाहार को प्रोत्साहन मिला। हिंदू धर्म भी ऐसे आदर्शों से प्रभावित था। शाश्वत महाकाव्यों, रामायण और महाभारत की रचना ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के उत्तरार्ध और पहली सहस्राब्दी की पहली छमाही के बीच हुई थी। पांडवों में से एक और महाभारत के एक प्रमुख चरित्र भीम, अपनी प्रचंड भूख और असाधारण शारीरिक शक्ति के कारण जाने जाते हैं।
शास्त्रीय युग: धर्मनिष्ठता, राज्य और व्यापार की वृद्धि
पहली और पाँचवीं शताब्दी ईस्वी के बीच की अवधि की एक महत्वपूर्ण विशेषता अन्य दक्षिण-एशियाई देशों के साथ भारत का व्यापार है। इस अवधि में मज़बूत साम्राज्यों का उदय भी हुआ, जैसे कि गुप्त शासकों के तहत, जिसने व्यापार को और अधिक प्रोत्साहित किया। व्यापार के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अवशेष अभी भी भारतीय व्यंजनों में पाए जा सकते हैं। मसालों ने देश के वाणिज्य में एक प्रमुख स्थान पाया। गुप्त साम्राज्य के रोमन साम्राज्य के साथ व्यापक व्यापारिक संबंध थे। रोमन साम्राज्य की समाप्ति के बाद, बीज़ेंटाइन साम्राज्य के साथ व्यापार संबंधों को जारी रखा गया। इस व्यापार की कुछ प्रमुख वस्तुओं में मसाले थे जैसे कि लंबी मिर्च, सफेद मिर्च और इलायची। बेहतर नस्ल के घोड़ों के बदले में ईरान को काली मिर्च का निर्यात भी किया जाता था।

गुप्त काल के दौरान मसाले विदेशी व्यापार का एक प्रमुख हिस्सा थे
इस काल की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता थी धर्मशास्त्र नामक वर्ग के संस्कृत ग्रंथों की रचना जिसमें ब्राह्मणवादी धर्म के लिए आचार संहिता और नैतिक सिद्धांतों (धर्म) का उल्लेख है। इन ग्रंथों में खाना पकाने और खाने से संबंधित नियम निर्धारित किए गए थे जिनमें ब्राह्मणवाद के भीतर अनुष्ठानिक पवित्रता और प्रदूषण की धारणाओं के बड़े निहितार्थ थे। यह निर्धारित करना मुश्किल है कि इन ग्रंथों की क्या कानूनी सीमाएँ थीं। भारतीय समाज की चिरस्थायी असदृश प्रकृति को देखते हुए, शायद ग्रंथों में उल्लिखित आहार नियमों और निषेधाज्ञाओं का अचूक अनुसरण नहीं किया गया होगा। हालाँकि, वे शायद दिन-प्रतिदिन के जीवन के ताने-बाने में बुने हुए थे और उनको समाज में नैतिक और आध्यात्मिक महत्व मिला हुआ था।

भारत-रोमन व्यापार के अवलोकन का मानचित्र
पौराणिक हिंदू धर्म और भोजन की नैवेद्य और प्रसाद के रूप में अवधारणा
पूर्वोक्त मंत्र का जाप करते हुए प्रतिदिन भगवान विष्णु का आह्वान करना चाहिए, एकाग्र मन से, पूजा की वस्तुएँ जैसे हाथ और पैर धोने के लिए जल, अपने मुँह का कुल्ला करने के लिए और स्नान करने के लिए जल, रेशमी वस्त्र, जनेऊ, आभूषण, चंदन का लेप, फूल, धूप, दिया भोजन, और अन्य वस्तुएँ भेंट करनी चाहिए।
-भागवद पुराण, VI.19.8

फल हिंदू धर्म में देवताओं के लिये सामान्य प्रसाद हैं
लगभग पाँचवीं शताब्दी ईस्वी से शुरू होकर पुराण नामक एक महत्वपूर्ण वर्ग के धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। यह अवधि हिंदू धर्म में व्यक्तिगत देवताओं की अवधारणा के विकास से चिंहित है। इन देवताओं की पूजा करकर इन्हें प्रसन्न किया जा सकता था जिसमें भोग या नैवेद्य के रूप में विशिष्ट खाद्य पदार्थों को भेंट चढ़ाना शामिल था। लोकप्रिय हिंदू धर्म में प्रत्येक देवी-देवता की अपनी पाक प्राथमिकताएँ हैं। उदाहरणतः विष्णु को आम तौर पर घी और दूध आधारित खाद्य पदार्थ अर्पित किए जाते हैं। गणेश को उनके मिठाई के प्रति प्रेम के लिए जाना जाता है, खासकर मोदक नामक एक विशेष मिठाई। भोजन को देवता को अर्पित करने के बाद, प्रसाद नामक बचे हुए भोजन को भक्तों के बीच वितरित किया जाता है और माना जाता है कि यह देवता के आशीर्वाद से संपन्न होता है। इस अवधि के दौरान तांत्रिकवाद की उत्पत्ति हुई। मुख्यधारा के ब्राह्मणवादी धर्म के विपरीत, तांत्रिकवाद में ममसा (माँस) और मद्य (शराब) को भगवान को चढ़ाने योग्य माना गया, और भक्तों के बीच उनके उपयोग को प्रोत्साहित किया गया। तांत्रिकवाद, एक आदर्श के रूप में, निषिद्ध पदार्थों की शक्ति से परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है।

भगवान जगन्नाथ का महाप्रसाद
इस्लामी संस्कृति का प्रभाव: राज परिवारों लिए उपयुक्त भोजन
जो भी, जब भूख लगने पर और अपने सामने भोजन होने पर, एक गरीब आदमी के अनुनय विनय को सुनता है और उसको सब कुछ दे देता है, वह अमीर और उदार बन जाएगा।
-आइन-ए-अकबरी
मध्य पूर्व के प्रभाव ने समय के साथ भारतीय व्यंजनों को स्वाद और विविधता से समृद्ध किया है। कुछ शुरुआती प्रभाव सीरियाई ईसाइयों द्वारा अरबी दुनिया से लाए गए थे जिन्होंने केरल के व्यंजनों को गहराई से प्रभावित किया। यह दिलचस्प है कि समोसा, जो उत्तर भारत में एक लोकप्रिय जलपान वस्तु है, संभवतः अरबी दुनिया में उद्भवित हुई थी। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी की अरबी पाक किताबों में संबुसा नामक माँस से भरी पैटी का उल्लेख है। "मध्य-पूर्व से व्यापारियों, आध्यात्मिक नेताओं और विजेताओं के आगमन ने, भारत की धरती पर ईसा की सातवीं शताब्दी से, इस देश की सांस्कृतिक संरचना में नए तत्वों को जोड़ा। इससे उपमहाद्वीप की पाक-शैली संस्कृति में स्थायी प्रभाव पड़े।" इस तरह के पाक प्रभावों ने मुग़लों के तहत सबसे परिष्कृत और गूढ़ रूप प्राप्त किया।

बिरयानी, मुग़लई भोजन का एक पसंदीदा व्यंजन

मुग़लई शैली में भुना हुआ मुर्ग
भारतीय व्यंजनों में मध्य पूर्व के कुछ महत्वपूर्ण योगदान, मेवा, केसर और सुगंधित जड़ी-बूटियाँ से युक्त समृद्ध और गाढ़े सालन और विभिन्न प्रकार की रोटियाँ हैं। अबुल फ़ज़ल की आइन-ए-अकबरी में यख़नी (माँस का रसा), मुसम्मन और भरवाँ भुना हुआ मुर्ग जैसे व्यंजनों का उल्लेख है और खाना पकाने की तकनीक जैसे कि दम पुख़्त (धीमी आँच पर खाना पकाने की तकनीक) और बिरयानी (तलना या भूनना) का भी उल्लेख है। शीरमाल, रूमाली और तंदूरी रोटी जैसी रोटियाँ भी भारतीय व्यंजनों को मुग़लों की भेंट हैं। यह भी माना जाता है कि कुल्फ़ी, एक लोकप्रिय समकालीन भारतीय मिठाई, मुग़ल भारत में ही उत्पन्न हुई थी। निमतनामा-ए-नसीरुद्दीन-शाही मालवा के शासक घियाथ शाह (सन 1469-1500) द्वारा लिखवाई गई एक मध्यकालीन रसोई की किताब थी। फ़ारसी में रचित यह ग्रंथ, मध्ययुगीन व्यंजनों का संकलन है, जो समृद्ध चित्रों से सजा हुआ है।

मालवा के शासक घियाथ शाह को परोसे जा रहे समोसे, निमतनामा

खीर पकाने की कला, निमतनामा
भारत में यूरोपीय लोग और नई दुनिया (पश्चिमी गोलार्ध्द के देशों) से पाक-शैली का आगमन
…जुलिएन सूप, गोलीनुमा बोतलबंद मटर से भरा हुआ, छद्म कॉटेज ब्रेड, शाखन काँटों से भरी मछली, चपटी मछली जैसी दिखने वाली, कटलेट के साथ और बोतलबंद मटर, केक से बनी मिठाई, टोस्ट पर सार्डिन मछली: आंग्ल-भारत की व्यंजन-सूची।
-अ पैसेज टू इंडिया
16 वीं शताब्दी से भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाले यूरोपीय लोग भारतीय उपमहाद्वीप में भोजन की कई अद्भुत वस्तुओं को अपने साथ लाए। पुर्तगालियों ने भारतीय पाक भंडार में आलू, मिर्च, पपीता, अनानास, मूँगफली, अमरूद और तंबाकू जोड़ दिए। भारत में आलू नाम कंद के जातीय संस्कृत शब्द से आया। पुर्तगाली प्रभाव ने उनकी राजधानी, गोवा, के व्यंजनों को समृद्ध बनाया। इसी तरह, पॉन्डिचेरी का भोजन फ़्रांसीसी औपनिवेशिक प्रभाव की विरासत को दर्शाता है। 200 वर्षों तक भारत पर शासन करने वाले अंग्रेज़ो ने बड़े बागानों के रूप में भारतीय भूमि पर चाय की खेती की शुरुआत की। फूलगोभी, पत्ता गोभी, पालक और गाजर जैसी कई सब्ज़ियाँ, जो शुरुआत में अंग्रेज़ो द्वारा उनके अपने उपयोग के लिए भारत में उगाई गई थीं, उन्हें सामंजस्य के साथ भारतीय व्यंजनों में शामिल कर लिया गया।

मिर्चियों को नई दुनिया (पश्चिमी गोलार्ध्द के देशों) से भारतीय उपमहाद्वीप में लाया गया था

पुर्तगालियों द्वारा आलू को भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित किया गया था
आधुनिक प्रचलन: कैफ़े, ढाबों और ऑनलाइन एप्स की आकर्षक दुनिया
भारतीय व्यंजन समय के साथ विकसित होते रहते हैं। भारत में रेस्तराँ संस्कृति आधुनिक समय की देन है। परंपरागत रूप से, एक साथ बैठकर खाने के जातिगत मानदंड, विभिन्न सामाजिक समूहों के भारतीयों को एक साथ भोजन करने से रोकते थे। हालाँकि, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को परोसने वाले सराय और धर्मशालाएँ प्राचीन काल से मौजूद थीं। वर्तमान समय में ढाबा नामक रेस्तराँ की एक श्रेणी काफी लोकप्रिय हो गई है। इनके ग्राहकों में मूल रूप से भारवाहन चालकों के शामिल होते हुए, ये भोजन स्थल आज के शहरी युवाओं के बीच लोकप्रिय हो गए हैं। भारत और चीन की पाक संस्कृतियों के मिलन से भारत में लोकप्रिय चीनी भोजन की एक नई शैली विकसित हुई है, जिसे भारतीय-चीनी कहा जाता है। एक और महत्वपूर्ण विकास यह है कि भारत में सड़क का भोजन (स्ट्रीट फ़ूड) सड़कों से आगे बढ़ गया है और बड़ी खाद्य श्रृंखलाओं द्वारा इसे अपना लिया गया है। भोजन से जुड़े मोबाइल-आधारित अनुप्रयोगों (मोबाइल एप्स) की हाल ही में शुरूआत के साथ, घर बैठे विभिन्न प्रकार के व्यंजनों तक पहुँचना संभव हो गया है।

भारत के आधुनिक-समय के रेस्तराँ का एक दृश्य