मानवता के अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची 2010 (5.COM) मे लिखा गया
छाऊ नृत्य पूर्वी भारत की एक परंपरा है जो स्थानीय लोककथाओं और अमूर्त विषयों सहित महाभारत और रामायण महाकाव्यों के हिस्सों का प्रदर्शन करती है। इसकी तीन अलग-अलग शैलियां सरायकेला , पुरुलिया और मयूरभंज के क्षेत्रों से निकलती हैं, इसमें पहले दो में मुखौटे का इस्तेमाल होता है। छाऊ नृत्य आंतरिक रूप से क्षेत्रीय त्योहारों , विशेष रूप से वसंत उत्सव के चैत्र पर्व से जुड़ा हुआ है। यह मूल नृत्य और युद्ध के अभ्यास के स्वदेशी रूपों के लिए पहचाना जाता है। इस नृत्य की शब्दावली में सहज युद्ध तकनीक, पक्षियों और जानवरों की शैलीगत चालें और गांव की गृहिणियों के काम पर आधारित भाव-भंगिमाएं शामिल है। छाऊ नृत्य पुरुष नर्तकों को पारंपरिक कलाकारों के परिवारों या स्थानीय समुदायों द्वारा सिखाया जाता है। यह नृत्य रात के समय में एक खुली जगह पर पारंपरिक और लोक धुनों के साथ प्रस्तुत किया जाता है, इसमें पाइपनुमा मोहुरि और शहनाई जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल होता है। विभिन्न प्रकार के ढोलों की जोरदार आवाजों के साथ संगीत कलाकारों की टुकड़ी इस कला का प्रदर्शन करती है। छाऊ इन समुदायों की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। यह विविध सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों, व्यवसायों और भाषाओं के साथ विभिन्न सामाजिक वर्गों और जातीय पृष्ठभूमि के लोगों को एक साथ बांधता है। हालांकि, बढ़ते औद्योगिकीकरण, आर्थिक दबाव और नए मीडिया के कारण समुदायों की सामूहिक भागीदारी में कमी आ रही है और वे उनकी जड़ों से दूर हो रहे हैं।
'छाऊ' शब्द की व्युत्पत्ति विद्वानों के बीच बहस का एक स्रोत रही है। कई लोग दावा करते हैं कि यह शब्द संस्कृत के 'छाया' यानी परछाई, चित्र या मुखौटा से आया है। तो कुछ लोगों का मत है कि यह 'छावनी' के सैन्य शिविर या कवच से लिया गया है, जो नृत्य रूप की युद्ध प्रकृति को दर्शाता है।
पहले समय में ढोल की थाप पर समुदायों में दिखावटी झगड़े-युद्ध हुआ करते थे, जो कि फरी खंड खेल या रूकमार नाच नामक एक मार्शल डांस का रूप ले लेते थे। कहते हैं कि ऐसे ही छाऊ नृत्य का जन्म हुआ है। बाद में, इसकी अपनी खुद की शैली और तकनीक विकसित की गई।
धीरे-धीरे, छाऊ नृत्य में क्षेत्र के आधार पर पोशाक और प्रदर्शन शैली में बदलाव आए। आज तीन प्रकार के छाऊ नृत्य हैं, एक पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले का, एक झारखंड के सेरीकेला ज़िले का और तीसरा ओडिशा के मयूरभंज ज़िले का। पहले के दो नृत्यों में मुखौटे के साथ प्रदर्शन करते हैं, जबकि मयूरभंज जिले के नृत्य में मुखौटे का इस्तेमाल नहीं होता है।
मुखौटे का उपयोग या गैर-उपयोग नृत्य शैली को काफी हद तक आकार देता है। हालांकि मयूरभंज छाऊ में मुखौटे का उपयोग नहीं होता, ऐसे में इसकी कोरियोग्राफी की प्रकृति कहीं अधिक जटिल होती है, जबकि पुरुलिया या सरायकेला छाऊ में, मुखौटे का उपयोग विशेष रूप से चेहरे के भावों को प्रतिबंधित कर देता है। यहां प्रदर्शन शरीर की अदायगी पर अधिक निर्भर करता है और इसमें युद्ध कौशल और कलाबाजियां इसके आकर्षण में बढ़ोत्तरी करते हैं। इन प्रर्दशनों को को टोपका और उफ्ली कहा जाता है। पुरुलिया और सेरीकेला के नृत्य में ढाल और तलवारें भी इसका हिस्सा होती हैं। लज्जा (शर्म), आनंद (खुशी) और प्रतिशोध (बदला) जैसी भावनाएं भी शरीर के हावभावों के माध्यम से व्यक्त की जाती हैं जबकि सरायकेला छाऊ में प्रतीकात्मक मुखौटे का उपयोग किया जाता है और कलाकार अपने आंदोलनों के शरीर के हावभावों से चरित्र को व्यक्त करता है, पुरुलिया छाऊ में चित्रित चरित्र के आकार में बने मुखौटे का उपयोग होता है।
छाऊ नृत्य की थीम इसकी क्षेत्रीय विविधताओं के अनुसार अलग-अलग होती है। युद्ध की प्रकृति वाले पुरुलिया और सरायकेला नृत्य आमतौर पर उत्सव या लोक थीम पर होते हैं। यह आमतौर पर सामुदायिक उत्सव का एक रूप होता है। दूसरी ओर, मयूरभंज छाऊ में हिंदू महाकाव्यों जैसे रामायण, महाभारत और पुराणों से धार्मिक विषयों वाला व्यापक दायरा होता है।
चैत्र (मार्च-अप्रैल) के महीने में आने वाले चैत्र पर्व के वार्षिक उत्सव के दौरान छाऊ का प्रदर्शन किया जाता है। यह सिर्फ पुरुष कलाकारों द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन होता है। प्रदर्शन के साथ आने वाले उपकरणों में विभिन्न प्रकार के ड्रम जैसे ढोल (बैरल के आकार का), नगाड़ा (गोलार्द्ध), छड़िहड़ (बेलनाकार) और धुम्सा (कटोरे के आकार का) शामिल किए जाते हैं। इनके साथ ही महुरि (शहनाई की तरह एक वाद्य) का भी उपयोग किया जाता है।
मौखिक परंपरा और स्थानीय प्रथा के माध्यम से छाऊ नृत्य की कला पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचती जाती है। एक बार जब लोग फसलों की कटाई कर चुके हैं तो वे अखाड़ा नामक एक खुली जगह में इकट्ठा होते हैं और एक गुरु के मार्गदर्शन में इसका अभ्यास करते हैं। अभ्यास प्रदर्शन के बाद, नर्तकों द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन का मंचन किया जाता है।
छाऊ नृत्य
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