भारत में वस्त्रों की कहानी दुनिया में सबसे पुरानी है तथा यह प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है। मध्यपाषाण युग की गुफ़ा चित्रकारियों में कमर परिधानों को दर्शाने वाले उदाहरण मिले हैं, लेकिन वस्त्र उत्पादन और उपयोग के ठोस साक्ष्य इतिहासोन्मुख काल यानी तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में ही दिखते हैं। हड़प्पा और चन्हूदड़ो से जंगली देशी रेशम कीट प्रजाति का साक्ष्य मध्य तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व में रेशम के उपयोग का संकेत देता है।......पूरा निबंध यहाँ पढ़िए
मेहरगढ़ (वर्तमान पाकिस्तान) के स्थल से कपास के रंगे हुए टुकड़े प्राप्त हुए।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई जाने वाली जंगली देशी रेशम कीट प्रजाति, दुनिया की सबसे प्रारंभिक सभ्यताओं में से एक, सिंधु घाटी सभ्यता में रेशम के उपयोग का संकेत देती है।
मोहनजोदड़ो के स्थल पर हुई खुदाई में, चाँदी के बर्तन पर लिपटे हुए, बुने और मजीठ में रंगे कपास के टुकड़ों के साथ, रंजक कुंड की मौजूदगी का पता चलता है, जो कपड़ों पर रंग स्थायीकरण की प्रक्रिया की उन्नत समझ को दर्शाता है।
मोहनजोदड़ो स्थल पर हुई खुदाई में मिले कपास के टुकड़े ।
विभिन्न हड़प्पा सभ्यता स्थलों से पत्थर, चिकनी मिट्टी, धातु, टेराकोटा और लकड़ी के तकली चक्र मिले।
हड़प्पा स्थलों से पाई गई सुईयाँ इस अवधि के दौरान सिलाई की प्रथा का संकेत देती हैं।
मोहनजोदड़ो के स्थल से मिली, पुरोहित-नरेश की तिपतिया रूपांकन युक्त चोग़ा पहने हुए मूर्ति, संकेत देती है कि सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान वस्त्र अलंकरण की कला प्रचलित थी।
मोहनजोदड़ो के स्थल से मिली, पुरोहित-नरेश की तिपतिया रूपांकन युक्त चोग़ा पहने हुए मूर्ति, संकेत देती है कि सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान वस्त्र अलंकरण की कला प्रचलित थी।
लोथल स्थल पर पोतगाह, सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान व्यापार का प्रमाण देता है।
मेलूहा (सिंधु घाटी सभ्यता का सुमेरी नाम) से मेसोपोटामिया भेजे गए कपड़ों के उद्धरण मेसोपोटामिया के लेखों में मिलते हैं।
ऋग्वेद में पाए गए बुनाई के उद्धरण, बुनकर को वसोवाय के रूप में वर्णित करते हैं।
वैदिक ग्रंथों में पाए जाने वाले कढ़ाई के उद्धरण संभवतया नर्तकियों द्वारा पहने जाने वाले पेशस् अथवा कढ़ाई वाले परिधान का उल्लेख करते हैं।
वैदिक युग के ग्रंथ, आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में चित्रंत, अथवा छपाई वाले कपड़े, का संदर्भ है।
वैदिक संहिता प्रायः बकरी के बाल और भेड़ के ऊन से बने ऊनी धागों का उल्लेख करते हैं।
शतपथ ब्राह्मण बलि के परिधानों में रेशम और ऊन के उपयोग का उल्लेख करता है।
रामायण में, सीता के वधू साज-सामान में ऊनी कपड़े, फ़र, विविध रंगों के महीन रेशमी वस्त्र, तथा अन्य वस्तुओं का उल्लेख है।
पाणिनि अपने संस्कृत व्याकरण के ग्रंथ, अष्टाध्यायी, में सूती धागे का उल्लेख एक प्रमुख धागे के रूप में करते हैं।
यूनानी चिकित्सक सीटीज़ियन के लेख में फ़ारसी लोगों के बीच चमकीले रंग के भारतीय वस्त्रों की लोकप्रियता का उल्लेख, दर्शाता है कि भारतीय कपड़े फ़ारस निर्यात किए जाते थे।
महाभारत में हिमालयी क्षेत्रों से सामंती राजकुमारों द्वारा युधिष्ठिर के लिए लाए गए उपहारों में रेशमी कपड़ों का उल्लेख है।
महाभारत में छपाई वाले कपड़े अथवा चित्र वस्त्र का उल्लेख, इस अवधि तक विकसित हुई छपाई की कला को दर्शाता है।
मेगस्थनीज़, चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार का एक यूनानी राजदूत, अपनी पुस्तक इंडिका में उल्लेख करता है कि भारतीय चोगों में सोने का काम किया जाता है तथा वे रत्नों से अलंकृत किए जाते हैं और लोग उत्कृष्ट मलमल के बने फूल रूपांकान युक्त परिधान पहनते हैं। यह ज़री, कढ़ाई और छपाई के कामों का उद्धरण है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र उन सूत कातने वालों और बुनकरों का उल्लेख करता जो शिल्पी संघ में अथवा निजी तौर पर कार्य करते थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हैमावतमार्ग या हिंदुकुश के रास्ते भारत आने के मार्ग का उल्लेख है, जिसका उपयोग घोड़े, ऊन, खाल, फ़र और अन्य वस्तुओं का व्यापार करने के लिए किया जाता था।
कौटिल्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र, बनारस के सन के कपड़े (लिनन) और दक्षिण भारत के कपास के कपड़े के उपयोग का उल्लेख करता है।
कौटिल्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र में, कपास का उल्लेख राजा के राजस्व के स्रोत के रूप में किया गया है।
बौद्ध साहित्य बनारस के कपड़े कासेय्यक अथवा बनारस के रेशम और गंधार (वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान का भाग) के ऊनी कंबलों का वर्णन करता है।
बौद्ध साहित्य में विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उल्लेख किया गया है, जैसे कि सन का कपड़ा (खोमन), सूती कपड़ा (कप्पासिकम), रेशमी कपड़ा (कोस्सेयम), इत्यादि। इसमें बुनकर (तंतुवाय), बुनाई की जगह (तंतवित्त्थानम), बुनाई के उपकरण (तंतभांड) और करघा (तंतका) के भी उल्लेख हैं।
बौद्ध जातक ग्रंथ कताई और बुनाई के उपकरणों को संदर्भ देते हैं।
जैन ग्रंथों में कपास के धागे (कपासिकासूतम) और कपास के कपड़े (कपासी कडूसम) का उल्लेख है।
यूनानी ग्रंथ, द पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी, प्राचीन व्यापार मार्गों का उल्लेख करता है और भारत से मलमल सहित अन्य कपड़ों के व्यापार के विषय में चर्चा करता है।
चीनी ग्रंथों में पाए गए उल्लेखों के अनुसार, कांचीपुरम में चीनी रेशम का आयात किया जाता था और वहाँ से इसको मलय (मलेशिया) निर्यात कर दिया जाता था।
उत्तरपथ (उत्तरी भूमि मार्ग) और दक्षिणपथ (दक्षिणी भूमि मार्ग) कुषाण काल के दौरान भारत के बड़े व्यापार मार्ग थे।
गुप्त काल के दौरान, कपास का उत्पादन अजंता चित्रकलाओं से स्पष्ट होता है।
गुप्त काल के दौरान, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक ग्रंथ में रेशम बुनकरों (पटैला), नैपकिन के विक्रेता (गांछी), कैलिको-मुद्रक (छीपा) और दर्जी (सिवागा) सहित 18 पारंपरिक शिल्पी संघों के बारे में उल्लेख किया गया है।
बाण की कृति हर्षचरित , बंधन और रंजन कपड़ा अथवा बंध्यामन का उल्लेख करता है।
चीनी भिक्षु, ह्युन सियांग अपने प्रत्यक्षदर्शी विवरण में किउ-शि-ये (रेशम के कीड़ों का उत्पाद) और कपास का उल्लेख करता है।
दक्षिण भारत में सालिया नगरम के नाम में जाने जाने वाले बुनकरों के एक विशेष व्यापारिक समूह का उद्भव।
भारत में वस्त्रों और कपड़ों के इतिहास की इतनी गहरी जड़ें हैं कि वे प्राचीन काल तक फैली हुईं हैं। जहाँ प्राचीन काल में वस्त्रों के उत्पादन, उपयोग और व्यापार को दर्शाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं, वहीं मध्ययुगीन काल में इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन अपना आकर लेने लगते हैं। वस्त्र शिल्प के प्रति राजाओं की संरक्षणता मध्ययुगीन काल में तीव्रता से अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ गई, जिसके कारण इन वस्त्रों और कपड़ों का उत्पादन और व्यापार बढ़ गया।....पूरा निबंध यहाँ पढ़िए
कपास की धुनाई के लिए भारत में धुनकी के उपयोग के अत्यंत प्राचीन संदर्भ पाए जाते हैं।
फ़ारसी कवियों की कृतियों में चरखे के संदर्भ दिखाई देते हैं।
ज़िया बरनी, एक मध्यकालीन इतिहासकार, अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा उनके देवगिरि अभियान से प्राप्त लूट के महत्वपूर्ण सामानों में पट्टोलाया (पटोला) को शामिल करते हैं। पटोला, कपड़े पर रंगीन आकृति बनाने के लिए, बुनाई से पहले सूत रंगाई की तकनीक है।
भारतीय कवि और संगीतकार, अमीर खुसरो, महिलाओं की सुई और तकली (दुक), का उनके तीर और भाले के रूप में वर्णन करते हैं, और शायद इससे यह संकेत मिलता है कि उस समय तक चरखे भारत नहीं पहुँचे थे।
भारतीय कवि इसामी की टिप्पणी है कि दिल्ली सल्तनत की पहली और एकमात्र महिला शासक, रज़िया सुल्ताना, को सिंहासन के बजाय चरखे के साथ खुद को व्यस्त रखना चाहिए था।
ज़िया बरनी ने अपनी कृति, तारीख़-ए-फ़िरोजशाही में ज़र्बफ्त या ‘सोने से बुना हुआ’, का उल्लेख किया है, जो दर्शाता है कि इस समय सुनहरी ज़री का काम एक प्रचलित शिल्प था।
14वीं शताब्दी के एक ग्रंथ में छीपा (साँचा छपाई करने वाला) और छप्पा (छपाई) शब्द मिलते हैं, जो बताते हैं कि इस समय साँचा छपाई (ब्लॉक प्रिंटिंग) एक प्रचलित शिल्प था।
पश्चिमी भारत के, अफ़्रीका, पश्चिम एशिया और यूरोप के साथ लाभप्रद वस्त्र व्यापार इंगित करते हुए, गुजरात के छपाई वाले वस्त्र के अवशेष, फ़ॉस्टैट, मिस्र में पाए जाते हैं ।
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