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आनंदी गोपाल जोशी

बॉम्बे प्रेसीडेंसी की रहने वाली आनंदी गोपाल जोशी, संयुक्त राज्य अमेरिका से पश्चिमी चिकित्सा में अध्ययन और दो साल की स्नातक उपाधि प्राप्त करने वाली, भारतीय मूल की पहली महिला डॉक्टरों में से एक थीं। दिलचस्प बात यह है कि उन्हें, डॉक्टर बनने वाली पहली भारतीय महिला के रूप में जाना जाता है। आनंदी का जन्म 31 मार्च 1865 को कल्याण, बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हुआ था। उनके पिता ने उनका नाम यमुना रखा था। उनका पालन-पोषण एक ज़मींदार मराठी परिवार में हुआ था, जिसे बाद में बहुत कठिनाइयों से जूझना पड़ा। उनके माता-पिता ने उस समय की सामाजिक प्रथाओं के अनुसार, नौ साल की उम्र में ही उनका विवाह, उनसे लगभग बीस साल बड़े एक विधुर व्यक्ति, गोपालराव जोशी से करा दिया। शादी के बाद उनका नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

चौदह वर्ष की आयु में, आनंदी ने एक पुत्र को जन्म दिया। हालाँकि, उचित चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में, बच्चा दस दिनों से ज़्यादा जीवित नहीं रह पाया जिसके कारण उन्हें गहरा सदमा पहुँचा। इतना दुःख झेलने के बावजूद उन्होंने डॉक्टर बनने का अपना संकल्प नहीं छोड़ा, क्योंकि उन्हें लगा कि केवल एक महिला डॉक्टर ही, भारतीय महिलाओं की समस्याओं को समझ सकेगी। उस समय की परिस्थितियों के विपरीत, गोपालराव स्वयं एक प्रगतिशील विचारक और महिला शिक्षा के पक्के समर्थक थे। कल्याण में एक डाक क्लर्क के रूप में उनकी नौकरी स्थानांतरणीय थी, और 1883 में, उन्हें सीरमपुर (पश्चिम बंगाल) में स्थानांतरित कर दिया गया। अपने स्थानांतरण के बावजूद, उन्होंने आनंदी को चिकित्सा की पढ़ाई हेतु, अमेरिका जाकर अपने सपने को साकार करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार आनंदी के डॉक्टर बनने में उनके पति का महत्वपूर्ण सहयोग रहा।

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1880 में, गोपालराव ने एक प्रसिद्ध अमेरिकी धर्म-प्रचारक रॉयल वाइल्डर को एक पत्र लिखा था। पत्र में, उन्होंने आनंदी की रुचियों का उल्लेख किया तथा अमेरिका में अपने लिए नौकरी के बारे में भी पूछा। वाइल्डर इस शर्त पर दम्पति की मदद करने के लिए राज़ी हुए, कि वे दोनों ईसाई धर्म को अपना लेंगे। गोपालराव और आनंदी को यह मंज़ूर नहीं था। उनके मना करने के बावजूद भी, वाइल्डर ने उनकी मदद की। वाइल्डर के मार्गदर्शन में, आनंदीबाई ने प्रिंसटन के ‘मिशनरी रिव्यू’ में एक शोधपत्र प्रकाशित किया। उनके इस शोधपत्र से प्रभावित होकर, न्यू जर्सी के निवासी थियोडिसिया कारपेंटर ने, आनंदी और गोपालराव को पत्र लिखकर उन्हें अमेरिका में रहने की व्यवस्था करने का प्रस्ताव पेश किया।

हालाँकि, गोपालराव तो आनंदी के साथ नहीं जा सके, फिर भी उन्होंने आनंदी को जाने के लिए मना लिया, इसके बावजूद कि उनकी तबीयत बहुत खराब थी। वह चाहते थे कि उच्च शिक्षा हासिल कर, आनंदी समाज में एक मिसाल कायम करें। अपने समुदाय की आशंकाओं और संदेह को दूर करने के लिए, आनंदी ने भारत में महिला डॉक्टरों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और भारत में महिलाओं के लिए एक मेडिकल कॉलेज खोलने के अपने लक्ष्य के बारे में बात की। उन्होंने 1883 में, अमेरिका जाने से पहले डॉक्टर बनने के अपने फ़ैसले के बारे में सबको आश्वस्त किया।

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आनंदीबाई जोशी ने 1886 में, वुमन मेडिकल कॉलेज ऑफ़ पेंसिल्वेनिया (डब्ल्यूएमसीपी) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। यहाँ उन्हें केई ओकामी (बीच में) और साबत इस्लामबूली (दाएँ) के साथ देखा जा सकता है। तीनों ने अपनी चिकित्सा की पढ़ाई पूरी की, और उनमें से प्रत्येक, पश्चिमी चिकित्सा में उपाधि प्राप्त करने वाली, अपने-अपने देशों की पहली महिलाएँ थीं।

आनंदीबाई ने 1883 में न्यूयॉर्क की यात्रा की, जहाँ पेंसिल्वेनिया के मेडिकल कॉलेज में उनका विनम्रता से स्वागत किया गया। उन्होंने 19 साल की उम्र में कॉलेज जाना शुरू किया और 11 मार्च 1886 को डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन (एमडी) के रूप में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उनका शोध प्रबंध (थीसिस) 'आर्य हिंदुओं में प्रसूति' पर था, जिसमें उन्होंने आयुर्वेदिक और अमेरिकी चिकित्सा पाठ्यपुस्तकों के प्रभावों का अध्ययन किया। उनके स्नातक करने के बाद, स्वयं महारानी विक्टोरिया ने उन्हें बधाई संदेश भेजा था। जहाँ एक ओर, आनंदी ने वह हासिल कर लिया था जो वह करने का इरादा रखती थीं, वहीं दूसरी ओर, कड़ाके की ठंड, विदेशी मौसम और खान-पान ने उनके स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाई।

1886 में वे भारत लौटीं और उन्हें कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में, महिला वार्ड का प्रभारी चिकित्सक नियुक्त किया गया। हालाँकि, उनका स्वास्थ्य तेज़ी से बिगड़ता रहा। 26 फ़रवरी 1887 को, बाईस वर्ष की आयु में, तपेदिक के कारण उनकी अकाल मृत्यु से, पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। आनंदी की अस्थियाँ थियोडोसिया कारपेंटर को भेजी गईं, जिन्होंने उन्हें न्यूयॉर्क में एक पारिवारिक कब्रिस्तान में रखा। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि आनंदी ने, अधिकांश लोगों द्वारा अपने पूरे जीवनकाल में किए गए कार्यों से कहीं अधिक हासिल किया। उनके सम्मान में, शुक्र ग्रह पर एक गड्ढे (क्रेटर) का नामकरण, उनके नाम पर किया गया है।