"मेहरानगढ़", अर्थात "सूर्य का गढ़", भारत के सबसे भव्य और शानदार किलों में से एक है। यह किला राव जोधा ने 15वीं शताब्दी में नव-स्थापित जोधपुर शहर में बनवाया था। भारत की अधिकांश महत्वपूर्ण ऐतिहासिक संरचनाओं के विपरीत, मेहरानगढ़ किले का स्वामित्व या प्रबंधन आज भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास नहीं बल्कि जोधपुर के शाही परिवार के पास है। इस किले को भारत के शीर्ष पर्यटन स्थलों में से एक माना जा ता है और यह अपनी उल्लेखनीय वास्तुकला, अपने सौंदर्य से चकित कर देने वाले महलों, भव्य प्रांगणों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित एक संग्रहालय के लिए प्रसिद्ध है।
आलीशान मेहरानगढ़ किला। छवि स्रोत- फ़्लिकर।
ऐसा कहा जाता है कि राठौड़ वंश की उत्पत्ति कन्नौज में हुई थी। 12वीं शताब्दी ई. में उत्तर भारत में कई महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन देखे गए। मुहम्मद गोरी के आक्रमण के बाद इस क्षेत्र की शांति भंग हो गई और सत्ता का मौजूदा संतुलन भी बिगड़ गया। इन घटनाओं के कारण राठौड़ शासक पश्चिम की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो गए। कन्नौज के जयचंद्र के पोते, राव सियाजी (शासनकाल 1226-1273 ई.), वर्तमान राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में स्थित पाली शहर में रहने लगे। इसके बाद, राव चुंडा (1383-1424 ई.) ने मारवाड़ के मंडोर में अपनी राजधानी स्थापित की।
मंडोर के 15वें शासक राव जोधा वहाँ से 9 किलोमीटर दूर दक्षिण में जाकर बस गए। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने ऐसा रणनीतिक एवं सैन्य कारणों से प्रेरित होकर किया था। तोपों और बारूद के प्रयोग की शुरुआत के बाद, भारतीय उपमहाद्वीप में युद्ध की विधि में भारी बदलाव आए। इसलिए, एक ऐसे नए किलेबंद ढाँचे के निर्माण की ज़रूरत महसूस की गई, जो उस समय की सैन्य चुनौतियों का डटकर सामना कर सके। इसके निर्माण के लिए एक पहाड़ी से बाहर की ओर निकले लगभग 125 मीटर ऊँचे चट्टानी अंश को चुना गया। राठौड़ों ने अपने पैतृक देव, 'मिहिर' अर्थात् सूर्य को श्रद्धांजलि देते हुए, इस किले का नाम "मेहरानगढ़" रखा। कुछ इतिहासकारों का ऐसा मानना है कि इस किले का नाम "मेहरानगढ़" बाद में प्रचलित हुआ और वास्तव में यह इसके मूल नाम "मिहिरगढ़" का ही एक परिवर्तित रूप है। पहाड़ी के पास जो शहर विकसित हुआ, उसके संस्थापक के नाम पर उसे जोधपुर कहा जाने लगा।
किले की उत्पत्ति के साथ एक दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि राजा जहाँ किले का निर्माण करवाना चाहते थे, वहाँ एक साधू रहा करते थे। इस पहाड़ को भकुरचीरिया या "पक्षियों का पहाड़" कहा जाता था और साधू चीरिया नाथजी या पक्षियों के देवता के नाम से प्रसिद्ध थे। जब राजा ने साधू को वहाँ से बलपूर्वक हटाने का निश्चय किया, तब उन्होंने उस पहाड़ को हमेशा के लिए जलहीन रहने का श्राप दे दिया। उन्होंने कहा कि वहाँ जो भी किला बनेगा वह हमेशा पानी की कमी से जूझेगा। चिंतित राजा ने इस स्थिति को सुधारने के लिए अपनी प्रजा से एक स्वैच्छिक मानव बलि चढ़ाने का अनुरोध किया। जब कोई आगे नहीं आया, तो वहाँ के स्थानीय राजा राम मेघवाल ने इसके लिए खुद की बलि देने का फ़ैसला किया, जिसके पश्चात उन्हें उस किले की नींव में ज़िंदा दफ़ना दिया गया। हालाँकि, स्थानीय लोगों का अब भी यह मानना है, कि हर 3-4 साल में साधू के श्राप के कारण पूरे क्षेत्र में पानी की कमी हो जाती है!
मेहरानगढ़ और उसके आसपास के चट्टानी इलाके। छवि स्रोत- पिक्स्हाइव
यह किला जोधपुर की क्षितिज-रेखा से 400 फ़ीट से भी अधिक ऊँचा है और लगभग 1200 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। 500 मीटर चौड़ी और कुछ जगहों पर 120 फ़ीट तक ऊँची यह विशाल संरचना, आसपास के चट्टानी इलाकों से मानो अलग भी दिखती है और उन्हीं में घुल भी जाती है। जोधपुर ग्रुप-मलानी इग्निअस सुइट कॉन्टैक्ट के नाम से प्रसिद्ध यह चट्टानी अंश जिस पर यह किला खड़ा है, पूर्व-कैंब्रियन युग की आग्नेय गतिविधि के अंतिम चरण का साक्षी है। इसके कारण इस किले को एक राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक घोषित किया गया है। विविध वनस्पति और जीव-जंतुओं से समृद्ध इस किले के नीचे की शुष्क भूमि को (2006 में) राव जोधा डेज़र्ट रॉक पार्क नामक एक पारिस्थितिक रूप से पुनः स्थापित क्षेत्र में बदल दिया गया था जहाँ कई ज़रूरी ज्वालामुखीय और बलुआ पत्थरों की चट्टानें मौजूद हैं। किले को चारों ओर से घेरती शहर की दीवार लगभग 10 किलोमीटर लंबी है। किले के उच्चतम बिंदु से आप जोधपुर शहर और वहाँ के नीले रंग के (अनबुझे चूने और नील के मिश्रण से रंगे) घरों का एक मनोरम दृश्य देख सकते हैं।
मेहरानगढ़ किले से दिखता जोधपुर शहर। छवि स्रोत- फ़्लिकर
यद्यपि किले की नींव तो 15वीं शताब्दी में ही रख दी गई थी, किंतु विभिन्न शासकों के अधीन इसका निर्माण और परिवर्धन आगे आने वाले लगभग 500 सालों तक जारी रहा। परिणामस्वरूप, समय की बदलती ज़रूरतों के साथ, किले में विविध वास्तुकला शैलियों का प्रभाव दिखने लगा। राव जोधा ने जब किले की नींव रखी, उसके पश्चात यहाँ हुए सबसे पहले महत्वपूर्ण निर्माण राव मालदेव (शासन, 1532-1562 ई.) ने करवाए, जिन्होंने किले परिसर के मध्य भाग में एक मज़बूत सुरक्षात्मक दीवार का निर्माण करके किलेबंदी को भी मज़बूत किया। मुगलों के साथ मारवाड़ के राजनीतिक संबंधों के कारण, दोनों के बीच काफ़ी सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ, जो किले की वास्तुकला में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
जय पोल। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
किले में कुल सात द्वार (पोल) हैं: जय पोल, फ़तेह पोल, लोह पोल, अमृत पोल, दूधकाँगड़ा पोल, गोपाल पोल और भेरू पोल। रणनीतिक नज़रिये से किले के सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर तोपें रखकर, इसे सुरक्षित बनाया गया है। भवानी और किलकिला यहाँ की कुछ महत्वपूर्ण तोपों में से हैं। इन विशाल एवं वज़नी तोपों का उद्देश्य शत्रु पर पूरी तरह से भारी पड़ना था। इसके अंतरतम द्वार पर स्थित लोह पोल एक दिलचस्प संरचना है, जिसमें उन 15 रानियों के हाथों के निशान मौजूद हैं, जिन्होंने यहाँ खुद को सती किया था। लाल पत्थरों पर बने ये निशान चारों ओर एक भयग्रस्त माहौल पैदा करते हैं।
लोह पोल पर सती हुई रानियों के हाथों के निशान। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
वर्तमान में, मेहरानगढ़ किले में एक संग्रहालय है, जहाँ राजपूताना के राज्य-वंश से जुड़े पुरावशेषों का एक अमूल्य संग्रह मौजूद है। संग्रहालय में 7 कालावधियों को दर्शाते कमरे- फूल महल, शीश महल, तख्त विलास, झाँकी महल, सरदार विलास, मोती महल तथा दीपक महल; और 6 वीथिकाएँ- हौदा वीथिका, दौलत खाना, पालकी वीथिका, चित्रकला वीथिका, वस्त्र वीथिका और आयुध वीथिका, मौजूद हैं।
मोती महल। छवि स्रोत- फ़्लिकर
शीश महल। छवि स्रोत- फ़्लिकर
सवाई राजा सूर सिंह (1595-1619 ई.) द्वारा निर्मित मोती महल, किले परिसर के सबसे पुराने महलों में से एक है। इस महल को मोती महल इसलिए कहा जाता है क्योंकि समुद्री सीपियों और चूने के गारे के मिश्रण से निर्मित इसकी दीवारें, मोतियों जैसी चमकती हैं। महल का अंदरूनी हिस्सा इसकी रंगीन काँच की खिड़कियों से छन कर आती रोशनी से जगमगा उठता है। मोती महल के पास स्थित, सरदार विलास में सोने से ढका सुंदर लकड़ी का काम देखा जा सकता है। शीश महल एक अलंकृत संरचना है जिसमें ब्रह्मा, शिव-पार्वती, कृष्ण, गणेश आदि जैसे देवी-देवताओं की जीवंत चित्रकारियों के साथ-साथ उत्कृष्ट शीशे के काम किया गया है। यह महल मूल रूप से महाराजा अजीत सिंह (शासनकाल 1679-1724 ई.) का शयन कक्ष हुआ करता था। अजीत सिंह के द्वारा ही बनवाई गई एक अन्य संरचना थी दीपक महल जो किले का मुख्य प्रशासनिक केंद्र था। फूल महल मेहरानगढ़ के सबसे भव्य महलों में से एक है, जिसे महाराजा अभय सिंह (शासनकाल 1724-1749 ई.) द्वारा बनवाया गया था। फूलों और लताओं को दर्शाते महीन ज़रदोज़ी के काम और सुंदर चित्रकारियों से सजी एक अलंकृत छत इस महल को बाकी सभी संरचनाओं से अलग करते हैं। इन चित्रकारियों में भारतीय शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रागों के मानवीकरण को दर्शाती राग माला शृंखला, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
ज़रदोज़ी का महीन काम, फूल महल। छवि स्रोत- फ़्लिकर।
19वीं शताब्दी ई. में बना तख्त विलास, महाराजा तख्त सिंह (शासनकाल 1843-1873 ई.) का निजी कक्ष था। अर्श से फ़र्श तक जटिल चित्रकारियों से सजे इस महल के अंदरूनी हिस्से, देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ये चित्रकारियाँ हिंदू देवी-देवताओं से लेकर राजस्थानी लोक कथाओं के विभिन्न विषयों को दर्शाती हैं। इन चित्रकारियों के कुछ पहलू, जैसे चेहरे के हाव-भाव, पश्चिमी शैलीगत तत्वों के प्रभाव का आभास देते हैं। झाँकी महल का निर्माण भी तख्त सिंह के शासनकाल के दौरान हुआ था, और इसको इस तरह डिज़ाइन किया गया था कि शाही महिलाएँ उसमें बनी जालियों और छोटी खिड़कियों के माध्यम से, किसी के सामने आए बिना ही शाही दरबार की कार्यवाही को देख सकें।
चमकदार रोशनी और दीवारों पर बनी लघु चित्रकरियों की दीप्ति को दर्शाता भव्य तख्त विलास। छवि स्रोत- फ़्लिकर।
इनमें से कुछ महलों को दीर्घाओं में भी परिवर्तित कर दिया गया है, जहाँ जोधपुर के शाही इतिहास की दुर्लभ और अमूल्य वस्तुओं का एक संग्रह मौजूद है। इसमें हौदा वीथिका हाथी की गद्दियों का एक समृद्ध संग्रह प्रदर्शित करती है, जिनमें सम्राट शाहजहाँ का चाँदी का हौदा सबसे उल्लेखनीय है। इसे महाराजा जसवंत सिंह (शासनकाल 1638-1678 ई.) को उपहार में दिया गया था। पालकी वीथिका लकड़ी और धातुओं (सोना और चाँदी) से बनी एवं कीमती पत्थरों से जड़ी पालकियों को दर्शाती है। यहाँ का दौलत खाना राजपूत और मुगल समय की प्राचीन वस्तुओं का एक अनमोल संग्रह दर्शाता है। अकबर की तलवार यहाँ की प्रमुख प्रदर्शनीय वस्तु है। सिलेह खाना या आयुध वीथिका हथियारों का एक विशाल संग्रह है, जिसमें नक्काशी की हुई स्टील की धार वाली तलवारें और अलंकृत मूठ, विभूषित ढालें, पतले खंजर आदि मौजूद हैं।
यहाँ की वस्त्र वीथिका कपड़ों की वास्तुकला की एक अनूठी प्रदर्शनी है, जिसमें शाही साज़-ओ-सामान जैसे तंबू, छत्रियाँ, कालीन, फ़र्श पर बिछाने के कपड़े इत्यादि शामिल हैं। इसके अलावा चित्रकला वीथिका में मारवाड़ शैली की लघु चित्रकला के कुछ बेहतरीन नमूने प्रदर्शित हैं।
चाँदी का हौदा, वीथिका, मेहरानगढ़। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
इस किले की एक उल्लेखनीय विशेषता है- इसके चौक। शृंगार चौक पर शासक का राज्याभिषेक समारोह आयोजित किया जाता था। यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु संगमरमर का सिंहासन है जिस पर बैठकर शासक स्वयं जनता के सामने उपस्थित हुआ करते थे। दौलत खाना चौक में बलुआ पत्थरों से बने, जाली के विस्तृत काम वाले झरोखें हैं। ज़नाना ड्योढ़ी चौक में महीन एवं भव्य जाली का काम किया गया है।
बलुआ पत्थर पर जाली का महीन काम, दौलत खाना चौक। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
शृंगार चौक में रखा संगमरमर का सिंहासन। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
मेहरानगढ़ किले में राठौड़ों की रक्षक, देवी चामुंडा को समर्पित एक मंदिर भी है।
उत्तर भारत में मुगलों के शक्तिशाली साम्राज्य के उदय की कंपन मारवाड़ में भी महसूस की गई। मुगलों की महत्वाकांंक्षाओं के आगे मारवाड़ के शासक जल्द ही परास्त हो गए। हालाँकि, मुगलों ने राठौड़ों को सामंतों के रूप में दिल्ली के अधीन होकर अपने क्षेत्र पर शासन जारी रखने की आज्ञा दी। सदियों तक राठौड़ों और मुगलों के संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आते रहे। महाराणा उदय सिंह (शासनकाल 1583-1595), जिन्हें प्यार से मोटा राजा के नाम से भी पुकारा जाता था, अकबर के पहले जागीरदार बने। उस समय राठौड़ों का अन्य राजपूत वंशों से निरंतर मतभेद चल रहा था। अकबर ने उदय सिंह को एक मनसबदार के रूप में शामिल करके इन युद्धरत वंशों के बीच उनकी स्थिति मज़बूत की, और उन्हें मेहरानगढ़ में पुनः स्थापित करके "मारवाड़ के राजा" की उपाधि प्रदान की। यहाँ तक कि मुगलों के साथ अपनी मैत्री को और मज़बूत करने के लिए उदय सिंह ने अपनी बेटी की शादी राजकुमार सलीम (भविष्य के सम्राट जहाँगीर) से कर दी। बाद में उनके उत्तराधिकारी सूर सिंह ने मेवाड़ राज्य पर विजय प्राप्त करने में जहाँगीर की मदद की। बाद के शासक, जैसे गज सिंह प्रथम (शासनकाल 1619-1638 ई.) और जसवंत सिंह भी मुगलों की सेवा में बने रहे और साम्राज्य के कई प्रमुख अभियानों में मुगलों की सहायता की। हालाँकि, जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद, सम्राट औरंगज़ेब ने मारवाड़ को सीधे मुगल प्रशासन के अधीन कर लिया। इस बात का विरोध करने के लिए मारवाड़ के एक मंत्री दुर्गादास ने औरंगज़ेब के खिलाफ़ राजपूतों का एक गठबंधन बनाने का प्रयास किया। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, अजीत सिंह मेहरानगढ़ और आसपास के कई अन्य किलों का उत्तराधिकार हासिल करने में कामयाब रहे। हालाँकि, वह भी लंबे समय तक मुगलों के खिलाफ़ नहीं टिक सके, जिसके पश्चात एक बार फिर उन्हें मुगल आधिपत्य को स्वीकार करना पड़ा। उन्हें अपनी बेटी इंद्र कुंवर का विवाह फ़र्रुख़सियर से करना पड़ा और अपने बेटे अभय सिंह को भी मुगलों को सौंपना पड़ा। इसके बाद महाराजा अभय सिंह अपने शासनकाल के दौरान मुगलों के प्रति वफ़ादार बने रहे।
मोटा राजा उदय सिंह। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमंस
18वीं शताब्दी के दौरान राजपूताना साम्राज्य पर एक और खतरा मंडराने लगा। होल्कर और सिंधिया की मराठा सेनाओं के लगातार हमलों ने मारवाड़ का राजकोष खाली कर दिया था। इस वजह से मारवाड़ के महाराजा मान सिंह (शासनकाल 1803-1843 ई.) ने अंग्रेज़ों से मदद माँगी और 1818 ई. में उनके साथ एक सहायक संधि स्वीकार की। इसके बाद, उन्होंने अंग्रेज़ों के अधीनस्थ शासक के रूप में अपना शासन जारी रखा। हालाँकि, मान सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक उग्रवादी तपस्वी संप्रदाय, नाथ योगियों के प्रभाव में आकर उन्होंने इस संधि के कई प्रावधानों को तोड़ दिया। अंग्रेज़, योगियों को परास्त करने में कामयाब हुए, जिसके बाद 1839 ई. में उन्होंने मेहरानगढ़ पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके उपरांत महाराजा तख्त सिंह के अधीन, मारवाड़ ने 1857 के विद्रोह का दमन करने के लिए, अंग्रेज़ों को सेनाबल भी प्रदान किया। जसवंत सिंह द्वितीय (शासनकाल 1873-1895 ई.) ने अपने शाही निवास को मेहरानगढ़ किले से बाहर, जोधपुर शहर के बाहरी इलाकों में स्थित राय का बाग और रातानाड़ा के महलों में स्थानांतरित कर दिया था। इस समय तक, अपने सैन्य महत्व को खो देने के साथ-साथ, मेहरानगढ़ ने शाही परिवार के निवास-स्थान के रूप में भी अपनी जगह खो दी थी। लेकिन फिर भी इस किले को कभी भी पूरी तरह से नहीं छोड़ा गया और यह मारवाड़ की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा।
स्वतंत्रता के बाद, जोधपुर की रियासत भारतीय संघ में शामिल हो गई। उसके बाद देश के अधिकांश प्रमुख ऐतिहासिक स्मारकों का धीरे-धीरे राष्ट्रीयकरण किया जाने लगा। इसके बावजूद, मेहरानगढ़ किला, जोधपुर के शाही परिवार के नियंत्रण में ही रहा। 1971 में जब राजघरानों के शाही भत्ते को समाप्त कर दिया गया, तब मेहरानगढ़ के संरक्षकों को अपनी पुश्तैनी विरासत बचाए रखने के नए तरीकों पर विचार करना पड़ा। 1972 में मेहरानगढ़ संग्रहालय ट्रस्ट की स्थापना, जोधपुर के महाराजा गज सिंह द्वितीय द्वारा की गई थी, जिन्होंने किले के भीतर एक संग्रहालय बनाने के लिए अपने व्यक्तिगत संग्रह से लगभग 15,000 वस्तुओं का दान किया था। उनके नेतृत्व में मेहरानगढ़ किला छात्रवृत्ति, संग्रहालय-विज्ञान और सतत संरक्षण के एक केंद्र के रूप में उभरा। 1998 में मेहरानगढ़ किले में भारत का पहला पेशेवर संग्रहालय भंडार खोला गया। वर्तमान में, यह किला दो प्रसिद्ध त्योहारों- अंतर्राष्ट्रीय लोक उत्सव और वर्ल्ड सेक्रेड स्पिरिट फ़ेस्टिवल का केंद्र है।
मेहरानगढ़ किला आज भी इस क्षेत्र के लोगों की पहचान और गौरव का आधार है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह वास्तुशिल्पीय अजूबा देश के सबसे अच्छी तरह से संरक्षित स्मारकों में से एक है।
मेहरानगढ़ किले से दिखता सूर्यास्त। छवि स्रोत- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण