(नीचे दी गई समालोचना बीरेन के मध्यकालीन कार्य से अब तक के कार्य की प्रकृति पर केंद्रित है। हालाँकि, डे आरंभ से अपने कलात्मक पेशे में चित्रकला के जाने माने गुरु के साथ साथ अन्य विधाओं के लिए भी जाने जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनका, चालीस वर्षों और उससे भी अधिक समय में निष्पादित, "डाईंग ओगर" नामक अविस्मरणीय उत्कृष्ट कार्य उत्पन्न हुआ, परंतु इस कलाकार का गहन आंतरिक झुकाव सूक्ष्म ब्रह्मांड के प्रताप को विराट ब्रह्मांड में एक अटूट जोड़ के साथ अभिव्यक्त करना रहा। इस प्रकार डे अपने चित्रांकन में बहुत ही चुनावपूर्ण थे। उनके लिए सर्वोत्कृष्ट, या जीवित होने की सर्वोच्च स्थिति, अकेले होने में महत्वपूर्ण थी, ना कि मानवीय चेतना के पिरामिड का तृतीय स्तर । इस प्रकार उनकी अभिव्यक्ति दुर्लभ है, चाहे वह दृश्य हो या वाच्य। इस प्रकार उनके कार्य आत्म-एकीकृत कहे जा सकते हैं। के.एम.)
“स्वयं को सूर्य किरण से चमकते हुए धूल कण के बिंदु में केंद्रित करें, या अगर आप चाहें, तो किसी पिन की बारीक प्रकाशित बिंदु पर, और आपको बीरेन डे के कैनवस पर तैलचित्र की कुछ अनुभूति होगी। लेकिन उनके कार्यों की अन्य और शायद अधिक उचित उपमाएँ हो सकती हैं: घूमते हुए पहिये की तीलियाँ- सारी चीज़ें एक गति के साथ इस प्रकार गोल गोल चलती हुईं कि चक्रकेंद्र बिल्कुल स्थिर प्रतीत होता है, बिना किसी गति के। कोई उत्तेजित गति नहीं, बस वही, जो देखने वाली आँखों की स्थिरता को नियमित करे। चित्रकार के सबसे भावपूर्ण कार्यों के केंद्र में चकाचौंध करने वाला प्रकाश, आकाशगंगा की अग्नि की उद्दीप्ति को पुनः अभिनीत करता प्रतीत होता है। लेकिन इनकी रचना में पहियों की या अग्नि वलय की पुनरावृत्ति क्यों?- क्योंकि यह आत्मा के साथ स्वयं के पुनर्मिलन को दर्शाती हैं। यहीं खंडित आधी या तहस नहस हुई दुनिया के ध्रुवीय विलोम एक बार फिर संपूर्णता की पराकाष्ठता को प्राप्त करते हैं। डे की अद्वितीय मंडल रचना में हल्की पंखुड़ियाँ सुसंगत और गतिमान प्रतिरूप, पूर्ण रूप से क्रम में खिले हुए कमल की तरह, होती हैं। निश्चित रूप से जीवन चक्र शानदार तरीके से इस चित्रकार के गहन चिंतन में घूमते हुए प्रतीत होता है।
प्रेतछाया, १९५८, कैनवास पर तैलचित्र, १२०x९० सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
पीला प्रकाश, १९५८, कैनवास पर तैलचित्र, ७१ x८१ सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
उत्पत्ति, १९६३, कैनवास पर तैलचित्र, १२२ x१८२ सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
जून ६७, १९६७, कैनवास पर तैलचित्र, १७२x१२२ सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
अंतर्वाह, १९६१, कैनवास पर तैलचित्र, ९९.५x७१.५ सेमी. कला संग्रह: निजी
और फिर भी इस प्रकार के कल्पनाशील विस्तार को, 21वीं सदी की दृष्टि, पाने का प्रयत्न करती है। बहुत कुछ, जिस प्रकार आत्मनिहित दीर्घ वृत्ताकार आकृति की अटूट एकता ने आरंभिक भविष्यवक्ताओं की दृष्टि को प्रलोभित किया, उसी प्रकार वर्तमान में उनका कार्य आधुनिक विचारकों को आकर्षित करता है। बीरेन डे के कार्यों में, जिन्हें कि वैध रूप से, और इसी प्रकार हमारे दिन और समय के मुहावरों में, अंतर्दृष्टि की कला कहा जा सकता है, प्रत्यक्ष रूप से कथित गूढ़ चिन्हों का गणितीय सामंजस्य अभिव्यक्त होता है। वह अपने मंत्रों का जाप यंत्रवत नहीं करते अपितु उन्हें नवीन भावों से भरते हैं; नवीन, लेकिन फिर भी अपने मौलिक स्रोत, चिरस्थाई अपितु अदृश्य वास्तविकता, समाहित किये हुए।
मात्र, उन्हें साधारणता के घने झाड़ से श्रमसाध्य कदमों के द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करना पड़ा है। और इसीलिए, आज, उनके सबसे परिपक्व कार्य मे, अप्रासंगिक, आरंभिक भाव कहीं दृष्टिगत नहीं होते हैं। वह अब मात्र आंतरिक बोध की ज्योति को उद्दीप्त करने के उद्देश्य से चित्रकारी करते हैं। अपनी उम्र के 50 से 60 वर्ष के काल के अपने कार्यों में से साधारण रूप-रेखाओं का त्याग कर, दैदीप्यमान केंद्र और उसकी परिधि पर ध्यान लगाना उनका मुख्य उपक्रम बन गया था। महत्वपूर्ण रंग पट्टी का प्रत्येक पेच (कहने के लिए) अब कला पद्धति में कस दिया गया था, जब तक कि ऐसा प्रतीत होता है कि रचना का प्रधान भाग अपनी धुरी पर घूमना शुरू हो गया हो।
उनके सत्तर और उसके बाद के दशक के कार्यों में (चित्रकारी-81, उनमें से दो के एक समान शीर्षक हैं, और चित्रकारी-82) दर्शकों को, आत्मचिंतन करने या कुछ अल्प सुख में खो जाने के लिए अल्पविराम की अनुमति नहीं दी जाती है। डे की विधा स्वयं को ध्यान देने का कार्य करने के लिए आदेश देती है। यह चित्रकार जो चाहता है उसके साथ आत्म एकीकरण है, और वह इसे एकनिष्ठता से करते हैं। और बिना किसी संशय के वे हमें स्वयं से जोड़ देते हैं, हमारी आँखें, हमारे कान और हमारी इन्द्रियाँ प्रबलता के क्षण की तरफ अग्रसर हो जाती हैं। यहाँ उस रहस्य और उस उत्कृष्ठ शक्ति, जो समुद्र में लहरों को उसी तरह गति देती है जिस तरह मानव की धमनियों में रक्त प्रवाहित होता है, के साथ समस्वरता है। यह चित्रकार की प्रार्थना और जीवन पर्यंत अभ्यास बन चुका है:
मस्तिष्क की वेधशाला गुप्तचरी करती है
अपने दर्जनों छिद्रों से
एक विशालकाय परिधि पर:
कहीं भी खड़े हो जाओ, देखने के लिए,
और, सच है
वहाँ के प्रत्येक बिन्दु पर।
ध्यान को एक दरार से दूसरी दरार पर ले जाओ,
गोल गोल घुमाओ
और तुम पाते हो सर्वयोग
जो कि कहीं अधिक है
अपने स्वर्ण में भार से। (के.एम)
उपांत्य, १९६४, कैनवास पर तैलचित्र, १०२x६२ सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
जून-७३, १९७३, कैनवास पर तैलचित्र, २१३x१७५ सेमी. कला संग्रह: ललित कला अकादमी
एक स्तर पर बीरेन डे की कृतियाँ साधारण हैं, लगभग अलंकृत प्रतिरूपों जैसी - प्रतिरूप जो अक्सर भ्रमित करने वाली रूपरेखा के रूप में सामने आते हैं, वह घूमते हुए मंडल के जैसे होते हैं। लेकिन यह इनके कार्य का एक सतही तौर पर अध्ययन है। जैसे जब किसी खगोलविद की छायाचित्र पट्टी को देखते हुए (सीपीनुमा प्रकाश उद्दीप्त आकाशगंगा की छाप सहित) हम दर्ज करते हैं - साधारण चेतावनी से अधिक, विस्मय और उत्थान - ठीक उसी प्रकार उनके कार्य में करते हैं, जो कि वास्तव में, अंकुरित होते बीज में स्पंदित होती या जैसे किसी इंगित तारे में स्थित, मूल शक्ति का चित्रात्मक प्रत्यक्षदर्शन है।
इस स्व केंद्रण के लिए कोई रियायत नहीं दी गयी है। इसका पारदर्शक लंबवत उत्थान होना है या फिर कुछ भी नहीं। डे के चक्र वृत का अचंभा हमारे दिमाग और गूँज मे अपनी प्रतिध्वनि स्थापित करता है, प्रतिध्वनि, जो जीवंत प्रतिक्रिया की श्रृंखला को जन्म देती है, जो मानो गूढ़तम यादों और अर्थ से बनाई गई हो। इसी तरह से, डे के साथ है – हम सातत्य के हृदय की सूचना प्राप्त करते हैं - भयंकर लेकिन प्रतिक्रियात्मक अग्नि जो अंतरिक्ष को भरती है, जो मानवीय जागरूकता को प्रकाशित करती है। इस कला में न तो तृतीय छवियाँ है और न ही अवचेतन मन को बुदबुदाता हुआ कोई दिवास्वप्न है। यहाँ केवल होने और हो जाने की अत्यावश्यक सूचना है, इससे कम नहीं।
यह, तब, कला है, लेकिन ऐसी कला जो आलौकिक भट्टी के जैसी बनाना चाहती है जिसमें आत्मा नवनिर्मित होती है। इस चित्रकला की तुलना शायद अंदर की ओर खींचते पर शुद्ध करते भँवर से की जा सकती है। अन्यथा, इसकी तुलना मेज़मर से की जा सकती है जो कि आँखों के सामने झूलती उज्ज्वल धातु है - वह जो किसी को अंतर्यात्रा पर भेजती है। किंतु बीरेन डे के कार्यों में, अगर तन्मयावस्था है तो यह गहन अर्थों में है – अर्थगर्भित है। यहाँ अपना अस्तित्व सत्य को समर्पित करना होता है, सम्मोहक प्रकाश को अप्रतिबंधित समर्पण।
पुनः, डे की कला, व्यक्तित्व के एकीकरण की प्रेरणा देती है, और वो भी शब्दों के कहीं भी प्रयोग के बिना। उनकी प्रदर्शनियों की सूची में, उनके कई कार्य बिना शीर्षक के हैं। लेकिन अगर कला किसी साधन का सहारा नहीं लेती है, फिर भी उसमें से एक ध्वनि पैदा होती जैसी कि एक प्रार्थना चक्र से - एक गहन स्वर ध्वनि; और यह सामान्य और स्वस्थ्य पर केंद्रित है ना कि असामान्य और अस्वस्थ्य पर- बलवान को औसतन के नियम से मज़बूती से उत्थान की आवश्यकता होती है। इस विशेष आवश्यकता का उद्देश्य, किसी की जीवंत शक्ति को उत्तेजित करना, जागरूकता को बढ़ाना, आधारभूत चीजों या सत्यता ले लिए, इनके गुज़रते स्वरूप के पार, अवबोधन के द्वार को खोलना, है।
डे का कार्य ‘पलायन’ को प्रदर्शित नहीं करता, यद्यपि यह किसी भी सामाजिक समस्या को भी प्रदर्शित नहीं करता है। यह, क्योंकि उनकी सच्ची दिलचस्पी, बाहरी मैं के साथ नहीं है, बल्कि होने या न होने के अमिट प्रश्न के साथ है; शोर से तेज़ी से निर्मित होते संसार में नवीनीकरण की सख़्त ज़रूरत के साथ। अतः इसका अर्थ आध्यात्मिक अलगाव का आचरण है - उत्थान को लालायित होती किसी आत्मा की प्रवित्ति।
अगस्त ८८, १९८८, कैनवास पर तैलचित्र, ११६.८x८१.२ सेमी. कला संग्रह: दिल्ली कला संग्रहालय
डे के कार्य के वर्णक्रम में तर होना, स्वयं को परासरण के प्रभाव में लाना है, संभवतः ऐसा परासरण जो शायद किसी सच्चे ऋषि के द्वारा पहल करने से ही हो पाएगा। लेकिन यहाँ, प्रभावशाली शांति के साथ-साथ, ठोस दृश्य सुस्पष्टता है। कहने के लिए इस चित्रकला में विषयासक्त आकर्षण नहीं है, और न ही यह कोई रूढ़िवादी रिवाज़ पर आधारित धार्मिक आकर्षण है। केवल प्रकृति अकेले ही नहीं, बल्कि प्रकृति और सक्रिय रूप से संलग्न स्वयं - दोनों की पारस्परिक क्रिया – उनकी विधा को उच्चस्तरीय उत्थान तक ले जाती है। उनकी विधा को स्पष्तः विचार–आदर्श के सहजीवन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। और यद्यपि यह विषयवस्तु रहित नहीं है, परंतु मुख्यतः अनुभववाद पर विकसित हुए इस युग में विषयवस्तु बहुत कुछ अज्ञात हो चुका है।
यह कि डे द्वारा प्रेरित उन्माद में एक निरंतरता देखी जा सकती है, यह उनके प्रारंभिक चित्रकलाओं का अध्ययन करने पर पता लगता है। पचास के दशक में एक प्रबलता पहले से ही दिखाई देती थी, लेकिन ऐसी दृष्टि को उसकी संपूर्ण भव्यता में साक्षात रूप देने के लिए साल दर साल की ज़रूरत है। चित्रकार का कूची कार्य दर्शाता है कि वे कितने परिश्रमी रहे हैं (अपनी रचना में, एक्रेलिक के प्रयोग को न अपनाने का सरल मार्ग त्याग देने पर)। इस लिए, उनकी रचनाओं में न तो कोई चालाक स्पर्श, न ही कठोर किनारे ही हैं। जल्दबाज़ी को बिना जाने और न ही कोई जल्दी अमीर बनने की अभिलाषा के साथ – प्रभाव स्वरूप- डे के कार्यों में कुछ भी सरल नहीं है। उनके साथ रंग वर्णक्रम पूर्ण रूप से विकसित होता है, जैसे कि अपनी पूरी भव्यता सहित किसी मोर के पंख। केवल यही सच्ची आस्था दर्शा सकता है। इसी कारण से उनकी रचनाएँ इन्द्रियों के माध्यम से गुज़र कर ज्ञान के स्थान तक पहुँचती हैं।
आरोही प्रकाश, १९९७, कैनवास पर तैलचित्र, १२७ x१२७ सेमी. कला संग्रह: दिल्ली कला संग्रहालय
डे - हालाँकि वे विचारों को लिखने में अनिच्छुक हैं, तब भी अपने वास्तविक प्रदर्शनों की तरह अपने दृढ़ निश्चय भाव को सुस्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं। वह सुचरित्र और सदाचार के मार्ग पर अडिग रहने को लेकर स्पष्ट थे, चाहे जो हो। वे जानते हैं की कला को समझौता ही ख़त्म करता है, और आत्म-संवाद का अनुशासन ही लालच को दूर करने वाला औज़ार है। अगर इसलिये वह बाज़ार में उतना सफल नहीं हुए जितना उन्हें होना चाहिए था, वह निश्चित ही ईर्ष्या योग्य आत्मसंयम धारण करने वाले थे जैसा कि अडिग विश्वास इंगित करता है। वास्तव में, उनका कार्य रहस्यमयी ब्रह्मांड के प्रति उनका उत्तर था:
दुनिया का ताना बाना
विशुद्ध स्पंदन,
सुप्त केंद्र में स्फुरित क्या होता है?
जैसे कि, वहाँ, एक वृहद द्विताणुत्वर ने
अणुओं की गति तीव्र कर दी हो,
और सदैव विस्तृत होती ध्वनि तरंगों को प्रसारित किया है -
विस्फोट, असहाय अनाहुत प्रविष्ट कण के आयाम को विस्तार देता
विशाल व्योम और उग्र स्फुलिंग की
परिपूर्ण पृष्ठभुमि पर।
हे, इस प्रकार वेग से चक्रवाती वृत्तों में
नक़्श किए ब्रह्माण्ड के परे
उछाला जाना!
निष्ठुर भँवर में फ़सता हुआ,
आँखें अनायास बंद होती - नत-मस्तक। (के.एम)
बीरेन डे
8 अक्टूबर 1926 को बंगाल में पैदा हुए। शिक्षा: सरकारी कला और शिल्प कॉलेज, कोलकाता 1944-49; कोलकाता कॉलेज छोड़कर अपने पेशे के साथ नई दिल्ली में बसे। एकल प्रदर्शन; कुनिका कला केंद्र, कुमार चित्रशाला एवं चित्रशाला चाणक्य नई दिल्ली, जी.सी एवं द विंडो मुंबई, एआईएफ़एसीएस; अनुदर्शन: धूमिमल 1950-77; अंतर्राष्ट्रीय: एटेलियर गैलरी हैम्बर्ग; आमंत्रित एकल: पिट्सबर्ग, यूएसए, स्टॉकहोम एवं गोटेबोर्ग, सिडनी द्विवार्षिक, समूह प्रतिभागिदारियाँ: त्रैवार्षिक-भारत, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली। भारतीय चित्रकला में संकेतवाद और ज्यामिति एनजीएमए, नई दिल्ली, एआईएफ़एसीएस; अंतरराष्ट्रीय: लॉस एंजिलस, यूएसए, सलोन डे माई, पेरिस, मैनिची, साओ पाओलो, वेनिस, सिडनी में द्विवार्षिक; चित्रकला संग्रहालय, फ़ूकोउका, जापान, शाही कला अकादमी, लंदन, आठ समकालीन भारतीय चित्रकार, स्वीडन, ग्रीस, बेल्जियम, पोलैंड, बुल्गारिया, यूगोस्लाविया में अन्य शहर। नीलामियाँ: हार्ट मुंबई और नई दिल्ली, ओसिआंस मुंबई। पुरस्कार: राष्ट्रीय अकादमी पुरस्कार, ललित कला अकादमी 1958 और 1964, नई दिल्ली। सदस्य: आगंतुक प्राचार्य, योजना तथा वास्तुकला विद्यालय, नई दिल्ली 1950-60। नियुक्तियाँ: कॉलेज ऑफ़ आर्ट, नई दिल्ली, में वरिष्ठ छात्रों को पढ़ाया; अंतर्राष्ट्रीय: न्यू यॉर्क में राज्य विभाग एवं फ़ुलब्राइट अनुदान पर कार्य किया 1959-60, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में रहे और कार्य किया; सेमिनार:"अंतरिक्ष की संकल्पना" अपने कार्यों के 81 स्लाइड्स के साथ 1950-80 से, 'समय" पर आईजीएनसीए द्वारा आयोजित, "परंपरा: एक निरंतर नवीनीकरण", आईसीसीआर द्वारा आयोजित। संकलन: एनजीएमए, एलकेए, राष्ट्रपति भवन और नई दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, टाटा मुंबई: अंतर्राष्ट्रीय: म्यूज़ियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, न्यू यॉर्क। बीरेन डे के कार्य स्थायी रूप से ग्लैंबेरा म्यूज़ियम ऑफ़ कंटेम्पररी इंडियन आर्ट, हिमेजी, जापान, नैशनल गैलरी ऑफ़ चेकोस्लोवाकिया,प्राग एवं पीबोडी एसेक्स संग्रहालय, मास., यूएसए, बर्लिन राज्य संग्रहालय, जर्मनी, में प्रदर्शित हैं। भारत सरकार ने बीरेन डे को 1991 में पदमश्री से सम्मानित किया। ललित कला अकादमी द्वारा बीरेन डे को कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2006 में अनुदान प्रदान किया गया।“
अगस्त ६८, १९६८, कैनवास पर तैलचित्र, १२२ x१२२ सेमी. कला संग्रह: प्रोफ़ेसर हार्टेल, बर्लिन