निर्बाध फैली हुई मज्जा जैसी रेखाओं या तिरछी रेखाओं से भरे दोहरी रेखाओं के आकार , प्रस्तुत आकृतियों की कामुक सुंदरता पर ज़ोर देती हुईं, जिज्ञासापूर्वक चमकती काली पुतलियों वाली बड़ी-बड़ी आँखें आनंद से दर्शकों की ओर ताकती हुईं, नीले, हरे, गुलाबी, नारंगी और लाल जैसे रंगों का सर्वाधिक उपयोग, पौराणिक कथाओं, लोकवार्ताओं, धार्मिक कृत्यों और आधुनिक घटनाओं से चुना गया चित्रों का समुदाय - मधुबनी या मिथिला चित्र, भारतीय लोक और जनजातीय चित्रों के बीच अलग ही दिखाई देते हैं। जैसा कि नाम से पता चलता है, हो सकता है इस शैली की उत्पत्ति मिथिला क्षेत्र और उत्तर बिहार के मधुबन नामक एक गाँव से हुई हो।
आज, पूरे विश्व में मधुबनी चित्रकला के प्रशंसक हैं। नई दिल्ली में कला और शिल्प संग्रहालय, दरभंगा में चंद्रधारी मिथिला संग्रहालय, बेल्जियम में सेक्रेड आर्ट संग्रहालय, जापान में मिथिला संग्रहालय, नॉर्वे के संग्रहालय में और ऐसे कई महत्वपूर्ण संग्रहालयों में मधुबनी चित्रों के बड़े संग्रह रखे हैं। इसके अलावा, कई आधुनिक कलाकार, दोनों स्व-प्रशिक्षित और किसी अकादमी से शिक्षित, दृश्य भाषा विज्ञान के साथ अपने प्रयोग के रूप में, तथा निर्मल आनंद के लिए, मधुबनी शैली की चित्रकला का अभ्यास करते हैं। विद्वान और उत्साही चित्र संग्रहकर्ता, देशज कला प्रोत्साहक तथा सामान्य जन जिन्हें शायद ही ललित कला की बारीकियों का पता है, मधुबनी चित्रकारी की सादगी और सजीवता का समान रूप से आनंद लेते हैं और मधुबनी चित्रों का संग्रह करते हैं।
हालाँकि, यह जानना दिलचस्प होगा कि आधी सदी पहले तक, यह अद्भुत लोक चित्र कला परंपरा दुनिया के लिए अज्ञात थी। आपदाएँ न केवल सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को बदलती हैं, बल्कि मानव की सोच को भी बदल देती हैं। 1934 में मिथिला में भी ठीक यही हुआ था। उत्तरी बिहार के अधिकांश गाँवों को तबाह करने वाले भयंकर भूकंप के बाद, ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारी डब्ल्यू. जी आर्चर के नेतृत्व में एक दल ने, भविष्य के पुनर्निर्माण के लिए व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए, गाँवों का दौरा किया था। वहाँ, ढह गई दीवारों पर, आर्चर को कुछ चित्र दिखे, जो उनके अनुसार, पश्चिम के आधुनिक माहिर चित्रकारों के चित्रों के बराबर थे। उन्होंने उनकी तस्वीरें खींची और कला और संस्कृति की प्रख्यात पत्रिका, मार्ग, में एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया। हालाँकि आर्चर के लेख ने कला की इस नई शैली के प्रति कई कला प्रेमियों को आकर्षित किया, लेकिन सरकार को, मधुबनी चित्रकला को भारत की एक लोकप्रिय कला परंपरा के रूप में सामने लाने में, और तीस साल लग गए। भूकंप के ठीक तीस साल बाद, 1964 में जब मिथिला क्षेत्र भयंकर सूखे की चपेट में आ गया था, तब अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड की तत्कालीन निदेशक डॉ. पुपुल जयकर ने मिथिला में महिलाओं को कैनवास, कपड़े, कागज और बोर्ड जैसे विभिन्न हलके आधुनिक माध्यमों के साथ प्रयोग करने में प्रशिक्षित करने के लिए, एक बंबई में रहने वाले कलाकार, भास्कर कुलकर्णी, को भेजा था।
शुरू शुरू में, मधुबनी चित्रकारी मिथिला क्षेत्र की महिलाओं द्वारा की जाती थी। जबकि यह एक लिंग विशेष सांस्कृतिक गतिविधि थी, इसका धार्मिक तथा घरेलू विश्वासों से संबंधित कर्मकाण्डी परंपराओं के साथ भी संबंध था। जब तक धार्मिक आस्थाएँ शामिल थीं, तब तक एक स्तरीकृत भारतीय समाज में, इस कला रूप के अभ्यास से जुड़े हए जाति के विनिर्देशों को दूर करना असंभव था। प्रमुख रूप से, मधुबनी चित्रकारी ब्राह्मण और कायस्थ महिलाओं द्वारा की जाती थी। लेकिन, साथ ही, निचली जातियों और दलित वर्गों की महिलाएँ भी अपने सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे के अंदर रहकर, इस कला रूप का अभ्यास कर रही थीं। चाहे जो भी उनका सामाजिक वर्ग रहा हो, वे सभी महिलाएँ परंपरा के अनुसार चले आ रहे अपने कौशल का उपयोग कर, चित्र बनाने के लिए गीली मिट्टी या गाय के गोबर से लेपित दीवारों का इस्तेमाल करती थीं । आज जब प्रादेशिक और धार्मिक अवरोध कमज़ोर पड़ गए हैं, तो इस क्षेत्र की महिलाऐं कुछ कल्पनाओं की जायज़ता के बारे में ज्यादा न सोचते हुए, विभिन्न सतहों पर चित्रकारी करती हैं। मज़े की बात है कि आज, लिंग बाधाएँ तक ढह गई हैं और हमें मधुबनी शैली की चित्रकारी करने वाले बहुत से पुरुष कलाकार दिखते हैं।
मिथकों के अनुसार मिथिला के राजा जनक ने, सर्वोत्कृष्ट नारी, सद्गुणों की मिसाल और महाकाव्य रामायण की नायिका, अपनी बेटी सीता के ब्याह की तैयारी करते समय, अपने राज्य की महिलाओं से अपने घरों को, सुंदर चित्रों से रंगने को कहा था। राजा इतने उदार थे कि उन्होंने, उन्हें चित्रकारी करने के लिए किसी भी विषय को चुनने की अनुमति दे दी। हालाँकि, राज्य की महिलाएँ प्रजनन शक्ति और उत्पति, प्रकृति का मंगलगान और देवताओं के मनुहार जैसे विचार से ही जुड़ी रहीं, क्योंकि यह शाही आदेश एक शुभ विवाह समारोह के समय दिया गया था। यह भी कहा जाता है कि महिलाएँ अपनी नित्य धर्मनिष्ठा और दिव्य आत्मा के साथ एक होने की अपनी छिपी हुई तीव्र इच्छा के कारण, अधिकतर मंगल चित्रों को ही चित्रित करती हैं। हो सकता है कि मधुबनी चित्राकला समाज में सबसे निचले पायदान पर रहीं महिलाओं के लिए, समाज के शिकंजे से खुद को मुक्त कराने के साधन के रूप में सहायक रही हो।
मैथिली में कोहबर घर का अर्थ है विवाह कक्ष और प्रजनन चित्रों से इन विवाह कक्षों की सजावट करना, मधुबनी चित्रकला का एक प्रमुख पहलू है। शादी के बाद नवविवाहित जोड़ों को तीन दिनों के लिए, इस कक्ष में रहने के लिए ले जाया जाता है और चौथे दिन उनसे उनके विवाह को परिपूर्ण करने की उम्मीद की जाती है। मधुबनी चित्रकार अपनी छवियों को चित्रित करने के लिए डंडियों, ब्रश और प्राकृतिक रूप से प्राप्त रंगों का उपयोग करते हैं। गीली मिट्टी की दीवारों से कागजों में स्थानांतरण करने के बाद भी, मूल मधुबनी कलाकार पारंपरिक चित्रकला सामग्री और उपकरणों से जुड़े रहते हैं।
भारत सरकार ने 1970 में, अग्रणी मधुबनी कलाकार जगदंबा देवी को सम्मानित कर, मधुबनी चित्रकारों के योगदान को मान्यता दी। 2008 में एक अन्य कलाकार महासुंदरी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। कला को बढ़ावा देने वाली, दोनों, सार्वजनिक और निजी संस्थाएँ आज, मधुबनी चित्रकला को दुनिया के लिए, भारत के निश्चित सांस्कृतिक योगदानों में से एक मानती हैं और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मधुबनी चित्रकला को सम्मान और उत्साह के साथ बढ़ावा देती हैं। ललित कला अकादमी का यह संग्रह मधुबनी चित्रकला की विरासत को मजबूत बनाए रखने के लिए ऐसा ही एक प्रयास है।
पोर्टफ़ोलियो नाम: मधुबनी चित्रकला
स्रोत: ललित कला अकादमी