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संथाल चित्रकलाएँ

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत की प्राचीन कलात्मक धरोहर की विद्वानों द्वारा किए गए आंकलन के साथ दृश्य कला में पुनरुत्थानवाद भारत के पुनर्जागरण का एक पहलू था। पंद्रह सौ वर्षों की अवधि तक, निरंतर, सुसंगत और सदैव बढ़ने वाली परंपरा कलाओं में मौजूद थी। तकनीकी युग के साथ पारंपरिक समाज के विरोध से उत्पन्न समस्याओं के बावजूद चित्रकला में इस निरंतरता की झलक आज की लोक कलाओं में देखने को मिलती है।

बंगाल स्कूल के जामिनी रॉय, जिन्होंने अपने कई साथियों के जैसे लोकाचारी गुणों को समझा, तथाकथित आदिम और लोक कला में निहित मिथकों और प्रकृति रहस्यवाद की महत्वपूर्णता को पहचानने वाले अपने साथियों में से पहले थे। और उन्होंने इस कला में औपनिवेशिक काल में शुरू की गई पश्चिमी मुख्यधारा कला के लिए वैध विकल्पों की कल्पना की। इस युग के एक उत्तर-आधुनिक और एक समकालीन कलाकार होते हुए, वे कला की दुनिया में वैष्णव, बाउल और संथाल परंपराओं को दृश्यता और सटीकता के साथ आगे लाए।

संथाल भारतीय उपमहाद्वीप के वर्तमान बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों के क्षेत्र में फैली एक जनजाति है। किसी भी अन्य जनजाति की तरह संथालों की अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और भौतिक परिवेश में निहित एक विशेष कलात्मक अनुभूति है। संथाल अपने गाँव के उत्सव के दौरान अपनी झोपड़ियों की दीवारों को आनुष्ठानिक उत्सवी प्रदर्शनों के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति के लिए भी चित्रित करते हैं। वे एक पत्थर की, दिव्य की निराकार मूर्ति के रूप में, पूजा करते हैं, अपने जीवन के बोझ का गायन करते हैं और जानवरों तथा पक्षियों द्वारा साझा किये गये अपने दिन प्रतिदिन के अनुभवों का एक ज्वलंत चित्रण प्रदान करते हैं। प्राथमिक रंगों में की गई, पत्तेदार पैटर्न से भरी अग्रभूमि, पृष्ठभूमि और बार्डर सहित, संथाल चित्रकलाओं की विशेषता पक्षियों, जानवरों और कीड़ों के चित्रण में प्रत्यक्षता और बच्चे-जैसी सरलता है। आकृतियाँ अपरिवर्ती, प्रायः बहुरंगी, यथार्थवादी रूपों के बजाय कलात्मक हैं। मछली और पक्षियों के शरीर एक सिर में जुड़े होते हैं। माँ और बच्चे के साथ-साथ मानव, पशु और पक्षी जोड़े को प्यार और संयोजनों के तत्त्व-ज्ञान द्वारा एक साथ लाया जाता है।

गाँव का विहंगम दृश्य पृष्ठभूमि होता है, जिसमें जलाने की लकड़ी और पानी ले जाती महिलाएँ, बैलगाड़ी को बाजार ले जाते हुए आदमी, एक पेड़ के नीचे नाचना और गाना, फूल वाली बेलों के नीचे एक युगल, खेती के लिए जा रहा एक परिवार, लकड़ी काटते हुए, आग के लिए लकड़ी इकट्ठा करते, सिर पर पानी ढोते हुए पुरुष और महिलाएँ, अपने शिकार के साथ लौट रहे शिकारी, मछली पकड़ना, बिक्री के लिए मिट्टी के बर्तनों को एक गाड़ी में गाँव के बाजार ले जाना, पतंग उड़ाना और झूला झूलना, एक डोली में दुल्हन को ले जाने वाले दूल्हे के भाई, चित्रित होते हैं। ये चित्र मजबूत पारिवारिक बंधन के बारे में बताते हैं और जीवन से भरे होते हैं, जिससे एक ऊर्जा फैलती है जो संथाल कला को जिवंत बना देती है।

इन चित्रों की रंग व्यवस्था में कोई तर्क नहीं है। एक पक्षी या मछली कई रंगों में दिखाई देती है। तस्वीर को पहले काले रंग में बनाया जाता है और फिर रंगों से भरा जाता है। मूल रूप से, संथालों ने एक विशेष और असाधारण झलक के साथ पौधों और पत्थरों से बने प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया। पुरानी पीढ़ी के लोग अभी भी प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते हैं जबकि युवा कृत्रिम रंगों का विकल्प चुनते हैं। आज अभिलेखागार या बिक्री के लिए कैनवस पर काली और सफेद चित्रकलाएँ बनाई जाती हैं।

भारतीय कला के लिए उत्कृष्टता का केंद्र, शांतिनिकेतन, दुनिया भर में रवींद्रनाथ टैगोर के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है। संथालों की कला को उनके दिनों के दौरान प्रमुखता मिली। टैगोर को शांतिनिकेतन के निकट एक छोटे से गाँव में रहने वाले संथालों में रुचि हो गई और उन्होंने उनकी कला को बढ़ावा देना शुरू किया, और तभी वे नंदलाल बसु के संपर्क में आए और कला भवन में उन्हें कला शिक्षक के रूप में नियुक्त किया। इस संबंध से शांति निकेतन और श्रीनिकेतन में लोक कलाओं और पारंपरिक शिल्प में रुचि पैदा हुई। शीघ्र ही १९३० में शांतिनिकेतन के पास एक कलाकार कॉलोनी स्थापित की गई, जिसके संस्थापक सदस्यों में से एक संथाल चित्रकार और मूर्तिकार, रामकिंकर बैज, थे। आज, जो लोग शांतिनिकेतन आते हैं, वे रामकिंकर को अपने साथ अमिट रूप से अपनी यादों में अंकित करके लाते हैं।

बदलते दृष्टिकोण, परिस्थितियों, विधियों और तकनीकों के अनुसार कला के रूप उम्र दर उम्र बदलते हैं। लेकिन लोक कला को प्राकृतिक और जैविक नियमों के प्रति निष्ठा रखते हुए बनाया जाता है, जो नृवंशविज्ञान और भौगोलिक मापदंडों के भीतर काम करते हैं। आज संथाल कलाकार प्रदर्शनियों और बिक्री के लिए ऐक्रेलिक का उपयोग करके कैनवस पर चित्रण करते हैं, हालाँकि पुरानी पीढ़ी अभी भी पौधों, मिट्टी और अन्य कच्ची सामग्रियों से प्राप्त अपने विशेष रंगों का ही उपयोग करती है। संथाल चित्रकलाओं की, प्राकृतिक परिवेश से उत्पन्न, सादगी, पौरुष और जीवतता, भारतीय कलाओं के इतिहास में एक उत्कृष्ट अध्याय प्रदान करती है, और इसको लगन के साथ विकसित करने की आवश्यकता है।

पोर्टफ़ोलियो नाम: संथाल चित्रकलाएँ
स्रोत: ललित कला अकादमी