I अंकुरण
१९४७ में जब भारत आज़ाद हुआ रज़ा पच्चीस वर्ष के थे। यह देश के लिए, नई पहचान की विह्वलता से तलाश के साथ त्रासदी और उथल पुथल का युग था। अगले वर्ष में, प्रगतिशील कलाकारों ने, जिनमें सूज़ा, हुसैन और रज़ा सम्मिलित थे, अपनी पहली प्रदर्शनी बम्बई में आयोजित की। रज़ा मनोभावों को याद करते हैं- “हम पर्वत हिला सकते थे! हम स्वनिर्माण की प्रक्रिया में थे"।
ये कलाकार अभिव्यक्ति के लिए मानवीय परिस्थितियों का प्रयोग कर एक निर्भीक भाषा विकसित कर रहे थे। अपने समकालीनों से भिन्न, १९४० के अपने प्रारंभिक जलरंगों में रज़ा ने केवल भूदृश्यों को ही चित्रित किया। वह वास्तविकता, मानव जीवन की सामयिकता, को लेकर चिंतित नहीं थे। उनका चिंतन कहीं और स्थित था, प्रकृति के परिमाण और उसके सार्वभौमिक निहितार्थों में।
सन 1950 से वह फ़्रांस में रह रहे हैं और कार्यरत हैं। लगभग हर साल अब वह भारत के दूर दराज क्षेत्रों में भ्रमण करते हैं, गहन होती अपनी भारतीय संवेदना की चेतना के साथ। यहीं अपने जन्म के देश में ही, उन्होंने सभी सजीव वस्तुओं के अंतरसंबंध को पुनः खोजा। उनके लिए प्रकृति, प्रेरणा का प्राथमिक स्रोत रही है, निश्चित ही एकमात्र स्रोत। कुछ पंद्रह वर्ष पूर्व जब हमने इस संदर्भ में बातें की तो उन्होंने टिप्पणी दी थी- "यह अजीब है कि मुझे प्रकृति के प्रति अपने जुनून और प्रेम को समझने और उसे कैनवास पर उतारने में चालीस वर्षों की ज़रूरत पड़ी। मैं खुश हूँ कि मैंने यह पूरा समय लिया क्योंकि यह मुझे किसी से उपहार रूप में नहीं मिला था- एक अध्यापक, एक किताब, या कुछ और; यह जीवन भर प्राप्त हुए अनुभव का निष्कर्ष था! चित्रकला कुछ ऐसी जीवंत होती है जैसे मनुष्य अपने विभिन्न रूपों में होता है। यह निर्मित होने की जीवंत प्रक्रिया है…”
इसी प्रकार, हम कई वर्षों तक इनकी चित्रकारियों का, एक बनने की प्रक्रिया के रूप में, अनुसरण कर सकते हैं, जैसे एक बीज के अंकुरण से लेकर पेड़ बनने की प्रक्रिया होती है, वैसे ही इनका कार्य भी परिपक्वता की अवस्था तक पहुँचा है। अपने जीवन अनुभव को अपने कार्य में लाना ही इनका समर्पण है। हिंदुस्तानी संगीत और आधुनिक काव्य, गुजरात के परिधानों में ज्यामितीय प्रतिरूपों, जैन और राजपूत लघु चित्रकारियों में जीवंत रंगों के प्रयोगों के प्रति इनका उत्साह इनकी सभी चित्रकारियों में मिलता है। यह संपूर्ण वातावरण ही है जो इन्हें प्रेरित करने के साथ चित्रों में योगदान भी देता है।
यह शब्दकोश अब स्पष्टता एवं अंतर्दृष्टि के दर्शन के स्तर तक छँट गया है। यह वह भाषा है जो प्रकृति से जीवन की ऊर्जाओं के तत्व को, वृत्त, वर्ग और त्रिभुज, क्षैतिज रेखाओं और विकर्णों को, जो ब्रह्मांड में फैली ऊर्जाओं के स्पंदन को स्थापित करने के लिए एक दूसरे को काटते हैं, प्रथक करती है। अगर ये प्रतीक चिन्ह 25 वर्षों से अधिक समय से चित्रकलाओं में दोहराए गए हैं, तो यह उन आकृतियों के पवित्र होने की पुष्टि करते हैं। रज़ा ज़ोर डालते हैं कि यह पुनरावृत्ति किसी मंत्र के उच्चारण या जपमाला के जपने के, एक शब्द को 'उच्च चेतना के स्तर पर पहुँचने तक' दोहराने, के समान है।
दक्षिणी फ़्रांस के गोर्बियो में स्थित अपने गर्मियों के घर के आँगन में या पेरिस के अपने स्टूडियो में, रज़ा कैनवास के विशुद्ध सफ़ेद विस्तार को घंटो देख सकते हैं। चित्रकारी की प्रक्रिया ध्यान लगाने का अभ्यास बन जाती है; कैनवास पर मनन करते रहना जब तक गहन मौन से आकृतियाँ नहीं उभरती; स्वयं में उत्पन्न हुई परम रिक्तता से। शून्य से शुरू करते हुऐ, रिक्तता की अवस्था, उनकी दृष्टि ब्रह्मांड के साथ एकात्मकता पर पहुँचती है। वह स्पष्ट करते हैं, "मैं आश्वस्त हूँ कि बहुत ही साधारण साधनों के माध्यम से कोई भी अनंत को प्राप्त कर सकता है”!
II पूर्व और पश्चिम का आकस्मिक मिलन
रज़ा अपने कार्य को धार्मिक अनुभव के तौर पर नहीं देखते हैं। बजाय इसके वे अपनी चित्रकलाओं को 'महत्वपूर्ण आकृति' के संदर्भ में देखते हैं। उनकी चित्रकारियों और उद्देश्यों को समझने के लिए यह शब्द अत्यावश्यक है। एकोल नेशनल दे बो-आर्ट्स, पेरिस (1950-53) में उनका प्रशिक्षण रूपात्मक अनुक्रम पर केंद्रित था, जिसे उन्होंने “आकृतियों के चित्रमय तर्क” के रूप में वर्णित किया। यह कैसे हो सकता था कि वह फ़्रांस में रहें और संरचना पर उन्हें कार्टियर-ब्रेसन द्वारा कहे गए कथन, सीज़न की खोज और आधुनिक यूरोपियन भावनाओं के अनुसरण से प्रभावित भी न हो? फिर भी शुद्ध ज्यामिति में उनकी तन्मयता उन्हें उसी समय में, यंत्र और मंडल आरेखों में अभ्यास की जाने वाली, भारतीय परंपरागत अमूर्त दृश्य की ओर वापस लायी। प्रकृति की सदाबहार आकृतियों के प्रति उनकी वचनबद्धता थी। अंत में इस तन्मयता ने आसानी से समझे में आने वाली दृश्य भाषाओं का रूप ले लिया।
1985 में बम्बई में आयोजित एक पूर्व पश्चिम मिलन सभा मे रज़ा ने 1980 में उद्भवित अपने चित्रों का वर्णन करने के लिए सत्याभासी तर्क प्रस्तुत किया। "मेरा वर्तमान कार्य दो समानांतर जाँचों का परिणाम है। सर्वप्रथम इसका ध्येय शुद्ध प्लास्टिक क्रम, आकृति क्रम है। दूसरा, यह प्रकृति की विषयवस्तु से संबंधित है। दोनों ही अविभाज्य बनने के लिए एक बिंदु पर आकर मिल चुके हैं; बिंदु, बीज का प्रतीक है, जिसमें, एक तरीके से, संपूर्ण जीवन की संभावनाएँ निहित हैं। यह एक दृष्टिगत आकृति भी है जो रेखा, रंगत, रंग, बनावट और स्थान, सभी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को ग्रहण करती है। काला अंतरिक्ष, पूर्ण होने की आशंका से भरी, अंतर्निहित शक्तियों से आवेशित है”।
लेकिन हम पूछ सकते हैं, एक वृत्त, एक चतुर्भुज और एक त्रिभुज हमारे द्वारा पहचानी जा सकने वाली सच्चाई को कैसे दर्शा सकते हैं? कैसे कैनवास पर ज्यामितीय आकृतियों का कुछ अर्थ हो सकता है? पश्चिम में अमूर्त कलाकारों की हमेशा यह दुविधा रही है कि उन्हें संदेह है कि वे 'अर्थहीन' कला उत्पन्न कर रहे हैं। इसलिए अमूर्तकारिता में महान अग्रणियों, जैसे वसीली कैंडिसकी, पॉल क्ली और मोंडरियन ने अपने कार्य के समर्थन में, कंडेसकी के द स्पिरिचुअल आर्ट(1914) से लेकर द थिंकिंग आइ में क्ली की नोटबुक (संपादन,1961) तक, घोषणापत्र लिखे। उनकी लेखनियों में हम रज़ा की दृष्टि के साथ संबंध पाते हैं।
पूर्व में प्रतीकों के उपयोग को प्राचीन विरासत और प्रचलन द्वारा वैध कर दिया गया है। ज्यामिति, संख्या और समरसता बौद्धों, हिंदुओं, जैनियों, मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों की पवित्र कलाओं में प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुनिष्ठ भाषा का भाग है। इस्लाम में ब्रह्मांड को क्रम और समरसता के रूप में समझा जाता है जो वास्तुकला में ज्यामिति की समरूपता के द्वारा सबसे बेहतर ढंग से दर्शाया जाता है। तिब्बतियों द्वारा मंडल का उपयोग आलौकिक के चित्रण में किया जाता है। जैनियों के बीच जम्बुद्वीप की धारणा ब्रह्मांड के आलौकिक भूगोल की परिकल्पना करता है। यंत्र, ब्रह्मांड के शक्ति चित्रों का, ध्यान में योगियों द्वारा, उनके समकक्ष प्रकट हुई, ब्रह्मांड की प्रमुख वस्तुओं को समनुरूप बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह सर्वदा, ब्रमांड के अपनी कक्षा में, एक के ऊपर एक या अध्यारोपित वृत्त बनाते हैं।
ये दृश्य अवधारणाएँ भारतीय संवेदनशीलता में अंतर्निहित हैं। जब रज़ा, जहाँ उनका जन्म हुआ, उस देश का वर्णन करते हैं, तब वे बार-बार उस काले बिंदु के स्मरण की तरफ लौट जाते हैं जो उनके लिए उनके गाँव ककैया के प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक द्वारा दीवार पर अंकित किया गया था। फ़्रांस में उनके प्रारंभिक वर्षों में, द ब्लैक सन (1953) उनके स्मरण से आकस्मिक निकल पड़ता है, और श्वेत और स्याह, और दिन और रात में विभाजित विश्व में झुलसे घरों के ऊपर प्रदीप्त होता है। हॉट दे कागनेस (1951) जैसे अवास्तविक भूदृश्यों में, शहरी दृश्यों की बर्बर प्रबलता हमें मध्य प्रदेश में उनकी जवानी के एक अन्य वातावरण, एक अलग दुनिया में ले जाती है। हवा की कोई हलचल नहीं होती, न कोई ध्वनि इस भयानक मौन को तोड़ती है।
उनकी चित्रकला में उनके अतीत के टुकड़े हैं, जो कैनवास पर प्रमुख रूप से भारतीय रंगों के साथ घनीभूत होते हैं। दशकों बाद 1982 में की गई प्राकृतिक दृश्यों की चित्रकारी, तरल आकृतियों के माध्यम से राजपूत सूक्ष्म चित्रकारी के क्षैतिज रजिस्टर और परिभाषित सीमाओं का, तीक्ष्ण लाल, पीले गेरुए और काले रंग के प्रयोग के प्रारंभ के साथ, स्मरण कराती हैं। रंगों के आयोजन से वे अप्रकट संवेदनाओं को पुनः जीवित करती हैं। उनकी इस समय की चित्रकलाओं के शीर्षक, जैसे राजस्थान (1975-1983), सौराष्ट्र (1983), उनके प्रेरणा के ये स्रोत प्रकट करते हैं। उनके लिए जो अपने घरों से दूर रहते हैं, यादें आकर्षक भूमिका अदा करती हैं, जो इन अतीत के चित्रों में पनपती हैं और अनुभवों को सशक्त करती हैं।
प्रारंभिक साक्षात्कारों में, रज़ा ने बचपन की यादों की सुदृढ़ पकड़ का वर्णन किया; उनका भय, जंगलों और प्रकृति के तत्त्वों के प्रति उनका आकर्षण, मंडला शहर की परिक्रमा करती पवित्र नर्मदा नदी के प्रति उनकी श्रद्धा। जैसा कि वह स्वयं दृढ़तापूर्वक कहते हैं, उपरोक्त विवरण में मंडला शहर मंडल के रूप में बुना हुआ है - परिगत भूमि के पवित्र होने की अवधारणा। वह अपने जन्मस्थान के लिए रूपक गढ़ते हैं जो कि पुराना और नया है, चतुर्भुज के भीतर वृत्त का - मंडल के समान, जो आलौकिक भूगोल का वैश्विक प्रतीक है।
III रूपक के रूप में चित्रकारी
1981 में रज़ा को त्रिवर्षीय प्रदर्शनी में भाग लेने के लिए दिल्ली आमंत्रित किया गया। उन्होंने दो चित्रकारियाँ भेजी जिसमें उनकी ‘माँ’ शीर्षक वाली प्रसिद्ध विशाल कैनवास चित्रकारी सम्मिलित थी। यह कल्पना अशोक बाजपई जी की कविता से उत्पन्न हुई थी, जिसने उनको, "मेरी मातृभूमि, भारत, को” संबोधित करते हुए, “मेरे अनुभव, मेरी खोजें और मेरी प्राप्तियों को प्रकट करता हुआ एक पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। मैंने उम्मीद की थी कि यह चित्रकारी इस बात की साक्ष्य बने कि मैं कभी अपने स्रोतों से अलग नहीं हुआ था।”
एक विशाल काला वृत्त, लाल और स्याह की सीमाओं से घिरा हुआ - एक चुम्बकीय शक्ति, ध्यान को प्रभावित करता हुआ, कैनवास पर प्रभावी है। इस प्रमुख आकृति के साथ व्यवस्थित पूरक भागों जैसे वर्णित दृश्य हैं जिन्हें आप राजस्थान के नाथद्वारा में श्रीनाथजी के आस पास चित्रकारियों में देख सकते हैं। क्या अपनी संबंध की भावना को वृत्त द्वारा परिगत करने से बेहतर इनकी भारतीय पहचान की अभिव्यक्ति का कोई अन्य बेहतर तरीका हो सकता था? स्मृति, याद करने की क्षमता, बिंदु रूपी मौलिक आकृति का चयन कर उसे प्रतिमा की तरह प्रतिष्ठापित करती है।
त्रिवर्षीय प्रदर्शनी, 1980, में उनकी दूसरी चित्रकारी का शीर्षक ‘बिंदु’ था, जो वर्ग के अंदर सघन काले बिंदु पर केंद्रित थी। यह एक ऐसी दृष्टि की उत्पत्ति थी जिसने कई संभावनाओं और प्रयोगों के क्षेत्र को खोला। वे सुझाव देते हैं: “सरल परंतु मौलिक आकृति द्वारा अमित ऊर्जा व क्षमता उत्सर्जित की गई थी। इसने एक संपूर्ण नई शब्दावली को खोला जो एक प्रकार से मुझे पेरिस में रीतिवाद पर मिले प्रशिक्षण के समरूप थी।“
काला उनके लिए बिंदु का 'मातृ रंग' है, जो सर्वप्रथम शुद्ध प्रतीक, श्वेत पृष्ठभूमि पर प्रबल और ठोस, के रूप में प्रकट होता है, पुनः बार बार 1980 और उसके बाद उसकी पुनरावृत्ति होती है - यहाँ तक कि 2002 के बिंदु तक। रंग उनके कैनवासों में, प्रकृति में आकृतियों के द्वारा अनुनादन करते हुए, अवितरित होने लगते हैं, गाने लगते हैं। वृत्त, त्रिकोण, क्षैतिज, लंबवत और विकर्ण रेखाओं की ज्यामिति के माध्यम से वे धरती के पाँच तत्त्वों, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से हमारा परिचय करवाते हैं। वे सुझाव देते हैं, “मैंने पाया कि बिंदु द्वारा विचारों के विभिन्न वातावरणों की श्रृंखला की रचना की जा सकती है।“
बिंदु फिर पृथ्वी (1989) के रूप में प्रकट होता है, गेरुए और श्याम वर्ण त्रिभुजों से उभरता हुआ एक श्याम वर्ण वृत्त, देवी में ध्यान धारण करने हेतु श्रीयंत्र में स्थित पारंपरिक रेखाचित्रों के साथ उल्लेखनीय समानता लिए। बिंदु अब स्थिर नहीं है अपितु अनवरत गति में है, जिस प्रकार जल बिंदु (1990) में ऊर्जा की शक्ति पतली क्षितिज की समानांतर रेखाओं और नीले त्रिभुजों के विरुद्ध हवा में उठती है। इस चित्र की बहुत से रूपांतरणों के साथ पुनरावृत्ति हुई, पुनः स्वयं को समुद्रों और महासागरों से घिरे हुए, अंतरिक्ष और आकाश में गतिशील पृथ्वी (2002) के रूप में प्रकट करने के लिए।
बिंदु उर्वरता के मूल बीज को भी प्रदर्शित करता है और इसीलिए इसे कभी-कभी बीज (1964-1996) शीर्षक दिया जाता है। यहाँ यह केंद्रीय शक्ति के रूप में प्रकट हुआ है, विभिन्न ऊर्जाओं को उत्सर्जित करने के लिए चमकीली श्वेत रेखाओं और विकर्णों से उभरता हुआ एक सूक्ष्म श्याम वृत्त। रज़ा एक आयत के अंदर बिंदु के साथ पुनः प्रयोग करते हैं, जो जेनेसे (1992) में, सूर्य/बीज के रूप में पेड़ों और सजीव पौधों को जन्म देने के लिए गर्भाधान करता है।
इन चित्रों के शीर्षक बदल सकते हैं, अंकुरण (1987) से उत्तपत्ति (1989) से जीवन वृक्ष (1989) से अंकुरण (1984) से पुनः अंकुरण (1994) होने तक, लेकिन संकल्पना वास्तव में वही रहती है। अंकुरण के बीज के रूप में बिंदु कैनवास के केंद्र में प्रतिष्ठापित है, हज़ार गुना गुणा होकर भिन्न-भिन्न आकृतियों, जो कि सूर्य और पृथ्वी की उर्वरा शक्ति, जो एक हो कर नए जीवन को जन्म देती है, का उत्सव मनाता है। पौधों के परिचित रूपों की पुनरावृत्ति जीवंत रंगों में जीवन का अविर्भाव है, पृथ्वी के संसाधनों की विपुलता के साथ सामंजस्य में।
यह चित्र वास्तविकता की नई अनुभूति को प्रतिपादित करते हैं। वे विज्ञान, दर्शन और सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों के रूप में प्रकट होते हैं और अनुभूत करते हैं कि ब्रह्मांड एक आपस में संबंधित घटनाओं का गतिशील जाल है। जैवमंडल के जटिल तथ्य को “तभी समझा जा सकता है जब संपूर्ण गृह को एक जीव माना जाए"। बीसवीं शताब्दी की दुविधा यह थी कि पृथ्वी को पवित्र कर पूर्ण रूप में र्निर्माण किया जाए। रज़ा की चित्रकलाएँ पर्यावरणीय समरसता के प्रति तीव्र जागरूकता पैदा करने में सहयोग देती हैं।
IV: आकृति, रंग और ध्वनि
रज़ा इन वास्तविकताओं के अन्तःप्रज्ञान पर विश्वास करते हैं, जिस को वह ‘आंतरिक तर्क का आदेश’ कहते हैं उस का अनुसरण करते हैं - और वे मानते हैं कि उनकी अंतर्दृष्टि सांस्कृतिक अधःस्तर से उत्त्पन्न हुई है। फिर भी उनके वृत्त और रेखाओं के प्रयोग में, मूर्तिकला, चित्रकला और वास्तुकला में परंपरागत कारीगरों द्वारा प्रयोग में लाए गए सूत्रों से अनोखे संबंध हैं। वास्तुसूत्र उपनिषद के एक आलेख में, ऐसा कहा गया है कि "जिसे वृत्त और रेखा का ज्ञान होता है वह स्थापक होता है"। वृत्त और रेखा को दिए गए अर्थों में अद्भुत संबंध पाए जाते हैं जो कि रज़ा की चित्रकारियों के अनुरूप हैं।
जिस प्रकार इन तत्वदर्शी आकृतियों में अर्थ ढूंढे जाते हैं, उसी प्रकार रंगों में भी प्रतीकात्मकता होती है। रज़ा ने पृथ्वी के पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, और इन पाँच तत्त्वों को श्याम और श्वेत के साथ, प्राथमिक रंगों - लाल, नीले और पीले - के प्रयोग के माध्यम से अनुभूत किया जा सकता है। बिंदु, नाग और कुंडलिनी ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों की शक्ति द्वारा स्पंदित होते हैं। वे उनके निहितार्थों के प्रति आश्वस्त हैं। “मैंने पाँच रंगों को अपने कार्य का महत्वपूर्ण अंग बनाया, स्वयं रंग को महत्व देते हुए- दृश्य रंग जो दृष्टिपटल पर दिखाई देते हैं - हमारे बोध पर पड़ सकने वाले समस्त प्रभावों के साथ। संभवतः रंगों में आप आवाज़ भी सुन सकते हैं!”
उनके विचार कैंडिनस्की के रंग और ध्वनि के मध्य संधि सिद्धांतों के समानांतर पाए गए। दोनों चित्रकार आकृति और रंग की दृश्य भाषा को विकसित करने के संदर्भ में चिंतनशील हैं जो कि देखने, गाने और सुनने के अन्य बोध को एक ही समय मे प्रभावित कर सके। आकृति और रंग, शब्द और आवाज़ की आवृत्ति इस विचार की खोज है - ताकि चित्र ध्वनि के आयामों तक पहुँचने के लिए लयबद्धता प्राप्त कर सके।
इस खोज की उत्तेजना से, रज़ा 1989 में विशाल कैनवास विकसित करते हैं जिसका शीर्षक था नाद बिंदु। संकेंद्री वृत्त, बिंदु से उपजते हुए लगते हैं जैसे आरंभिक आवाज़ पूरे ब्रह्मांड में गुंजायमान हो रही है। 1997 में वह वर्णक्रम में से काले सफेद और स्लेटी रंग छाँट कर नाद बिंदु पर लौटते हैं। ध्यान, संकेंद्रित वृत्तों की लय पर केंद्रित है जो समय और स्थान को समाविष्ट करता है और अनंत में विस्तार पाता है। एक किनारे पर वह चित्रकारी का शीर्षक अंकित करते हैं।
भाषा एक वैश्विक दृष्टिकोण, एक निश्चित संवेदना तय करती है। संगीत, कविता, नृत्य ने इनके कार्य को प्रेरित किया है, इसीलिए इनकी चित्रकारियाँ सभी इन्द्रियों से महसूस की जाती हैं। आधुनिक छंद, कबीर द्वारा लिखित कोई गीत या कविता, उत्कीर्ण करने से उनकी चित्रकलाएँ उनके जन्मस्थान के लय और स्वाद को अर्जित करती हैं । किसी चित्र का स्वाद रस है, यह भारत की मौलिक परिल्पना है जिसका रसोई के संदर्भ में मतलब 'जूस' और भाव 'स्वाद' होता है। जब वे चित्रकारी करते हैं, तब रज़ा श्रोता भी हैं और गायक भी, दर्शक भी और कलाकार भी, रसिक जो संगीत को सुनता है और स्वयं परिणत होता है।
पोर्टफ़ोलियो नाम: एस.एच. रज़ा
स्रोत: ललित कला अकादमी