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रामनगर का सुंदर किला

उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले में, गंगा नदी के पूर्वी तट पर बलुआ पत्थर की एक दिलचस्प संरचना मौजूद है। यह रामनगर का किला है। रामनगर का किला, बनारस के महाराजाओं का आधिकारिक आवास हुआ करता था। यह किला अपने परिसर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली भव्य रामलीला के लिए प्रसिद्ध है। इस किले का संबंध महाभारत के सुविख्यात लेखक, वेद व्यास से भी है, और इसकी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

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रामनगर का किला, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

 

इतिहास

रामनगर, विश्व के सबसे प्राचीन जीवंत शहरों में से एक, वाराणसी अथवा काशी से 14 किलोमीटर दूर स्थित है। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, एक बार महर्षि वेद व्यास को काशी में भिक्षा नहीं मिली, जिसके कारण भावनाओं से अभिभूत होकर उन्होंने इस शहर को अभिशापित कर डाला। हालाँकि बाद में, उन्होंने अपना निर्णय वापिस ले लिया, परंतु भगवान शिव ने महर्षि का नगरी में प्रवेश निषेध करके उन्हें गंगा नदी के दूसरी ओर रहने के लिए बाध्य कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार, व्यास काशी नामक एक नगर का विकास हुआ, जिसे अब रामनगर के नाम से जाना जाता है।

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रामनगर का किला, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

इस किले की विशाल दीवारें 17वीं शताब्दी में बनवाई गई थीं। हालाँकि, इस किले का अधिकांश हिस्सा वर्ष 1750 में, राजा बलवंत सिंह ने बनवाया था। राजा बलवंत सिंह बनारस प्रांत का संचालन अवध के नवाबों के एक प्रतिनिधि के तौर पर किया करते थे। बलवंत सिंह के शासनकाल में, रामनगर, बनारस की राजधानी बन गया। वर्ष 1775 में हुई फ़ैज़ाबाद की संधि के बाद, नवाब आसफ़-उद-दौला ने इस प्रांत को ईस्ट इंडिया कंपनी के हवाले कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप, बनारस के राजा अंग्रेज़ों को वार्षिक कर देने के लिए बाध्य हो गए।

वर्ष 1778 में, औपनिवेशिक प्रशासक वॉरेन हेस्टिंग्स ने बलवंत सिंह के पुत्र और उत्तराधिकारी राजा चैत सिंह से अतिरिक्त धनराशि की माँग की। मराठों के विरुद्ध अपने सैन्य अभियानों के दौरान, कंपनी को अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ा था। चैत सिंह ने धनराशि देने से इंकार कर दिया और वर्ष 1781 में कंपनी के विरुद्ध एक विद्रोह छेड़ दिया। इस विद्रोह की शुरुआत के बाद, अवध और बिहार के अन्य हिस्सों में भी अंग्रेज़ विरोधी मनोभाव को मज़बूती मिली। हालाँकि, यह आंदोलन असफल साबित हुआ और बनारस पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। यह विद्रोह हेस्टिंग्स के खिलाफ़ महाभियोग की कार्यवाही का भी एक प्रमुख कारण बना। बाद में, इस किले का महल, बनारस के महाराजाओं के नाम से प्रसिद्ध, यहाँ के शाही परिवार को वापिस सौंप दिया गया।

वर्ष 1910-11 में, अंग्रेज़ों ने बनारस रियासत की स्थापना की, जिसके परिणामस्वरूप, बनारस शहर सीधे अंग्रेज़ी शासन के अधीन हो गया, परंतु महाराजा को उनकी राजधानी रामनगर पर "पूर्ण सत्ता" प्रदान की गई थी। वर्ष 1947 में, भारत की स्वतंत्रता के बाद, महाराजा विभूति नारायण सिंह भारतीय संघ में शामिल हो गए और यह रियासत भारत का हिस्सा बन गई। बनारस का पूर्ववर्ती शाही परिवार आज भी रामनगर के किले में निवास करता है।

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लाल दरवाज़ा, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

वास्तुकला

यह किला मुगल वास्तुकला शैली में बनाया गया है। खुले प्रांगण, सुंदर नक्काशीदार छज्जे, सुरम्य मंडप, नुकीले मेहराबदार द्वार, और पत्थर की बड़ी सीढ़ियाँ रामनगर के किले की कुछ मुख्य वास्तुशिल्पीय विशेषताएँ हैं। किले में चार बड़े प्रवेश द्वार हैं। शानदार लाल दरवाज़ा किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। अंदर, एक के बाद एक बने प्रांगणों के माध्यम से किले के भीतर बने मुख्य महल तक पहुँचा जा सकता है। महल में शाही परिवार के निजी कमरों के साथ-साथ दरबार कक्ष और स्वागत-कक्ष भी बने हैं। संगमरमर के सिंहासन वाले नक्काशीदार छज्जे से शहर के एक अद्वितीय दृश्य का आनंद लिया जा सकता है।

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रामनगर का किला, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

वर्ष 1964 में, किले के अंदर, महाराजा बनारस विद्या मंदिर न्यास संग्रहालय की स्थापना की गई थी। इस संग्रहालय में शाही वस्तुओं का एक विस्तृत संग्रह मौजूद है, जिसमें पालकियाँ, हाथी के हौदें, हाथी दाँत से बनी वस्तुएँ, पुरानी मोटर गाड़ियाँ, तलवारें, बंदूकें, और एक अद्वितीय खगोलीय घड़ी शामिल है। यह घड़ी कभी रामनगर के किले के भीतरी प्रांगण में रखी थी। यह घड़ी केवल दिन का समय ही नहीं दिखाती, बल्कि सूर्य की अवस्थितियाँ, चंद्रमा के चक्र, राशियों के चिह्न, और महीने की तिथि तथा वर्ष भी बताती है। इस नवाचारी उपकरण का निर्माण वर्ष 1872 में बनारस के शाही घड़ी निर्माता, बी. मूलचंद ने किया था। ऐसा माना जाता है कि कवि-संत तुलसीदास द्वारा हस्तलिखित, एक दुर्लभ पांडुलिपि भी संग्रहालय के संग्रह का हिस्सा है। यहाँ सुंदर लघु चित्रकारियों वाली कई सचित्र पुस्तकें और जटिल डिज़ाइन वाले मुखपृष्ठ भी पाए जा सकते हैं।

किले के परिसर में महर्षि वेद व्यास को समर्पित एक मंदिर है। स्थानीय मिथकों का ऐसा मानना है कि वाराणसी से निर्वासन के बाद सुविख्यात महर्षि ने इसी स्थान पर महाभारत महाकाव्य की रचना की थी। इस किले के अंदर एक दुर्गा मंदिर, तांत्रिक देवी छिन्नमस्तिका का मंदिर, और दक्षिणमुखी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध एक हनुमान मंदिर भी स्थित है। हनुमान मंदिर से कई लोकप्रिय किंवदंतियाँ जुड़ी हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि किले के निर्माण के दौरान, गंगा के बहाव के कारण संरचना के दक्षिण-पश्चिमी किनारे का बार बार धँसाव हो जाता था। समीक्षा करने पर, राजा बलवंत सिंह को पानी में हनुमान जी की एक आंशिक रूप से जलमग्न मूर्ति मिली। मूर्ति खोदकर निकाली गई और उसी स्थान पर एक हनुमान मंदिर बनवाया गया। इसके बाद ही किले का सुरक्षित निर्माण संभव हो सका।

रामलीला

रामनगर का किला अपनी लगभग 200 साल पुरानी रामलीला के लिए प्रसिद्ध है। रामलीला में, महाकाव्य रामायण का लोक प्रदर्शन होता है, जिसके दौरान गीत, वाचन, गायन, और संवाद का उपयोग किया जाता है। यह प्रदर्शन 16वीं शताब्दी के पवित्र ग्रंथ, रामचरितमानस, पर आधारित है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने रचा था। दशहरे का उत्सव मनाने के लिए, रामनगर में 31 दिनों तक रामलीला का विस्तृत प्रदर्शन किया जाता है। इस जीवंत उत्सव का मुख्य प्रदर्शन रामनगर के किले के बाहरी भाग की पृष्ठभूमि में किया जाता है।

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रामनगर की रामलीला के दृश्य को दर्शाता वर्ष 1834 का एक लिथोग्राफ़, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

यह परंपरा वर्ष 1830 में शुरू हुई थी, जब महाराजा उदित नारायण सिंह (शासनकाल 1795-1835) ने रामनगर के किले में रामलीला का पहला मंचन करवाया था। महाराजा ने किले के निजी पुस्तकालय में मौजूद तुलसीदास के महाकाव्य की प्रतिलिपि की एक सचित्र पांडुलिपि की रचना का आदेश भी दिया था। महाराजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह (शासनकाल 1857-1889) के संरक्षण में, इस रामलीला का किले से लेकर रामनगर शहर के अन्य क्षेत्रों तक विस्तार हुआ। रामनगर की रामलीला को सभी रामलीलाओं में सबसे व्यापक तथा अभिनय और उपस्थित दर्शकों की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

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रामनगर किले का प्रांगण, छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

अपने समृद्ध इतिहास और गहरे सांस्कृतिक महत्व के कारण रामनगर का किला भारत के सबसे उल्लेखनीय किलों में से एक है। यह ऐतिहासिक संरचना न केवल महाराजाओं के अतीत की भव्यता को दर्शाती है, बल्कि इस क्षेत्र की जीवंत परंपराओं में भी एक अहम भूमिका निभाती है।