किला मुबारक के नाम से लोकप्रिय, बठिंडा का किला, भारत के सबसे प्राचीन किलों में से एक है l पंजाब में थार रेगिस्तान की सीमा पर स्थित, इस मज़बूत किले में इतिहास की कई परतें मौजूद हैं। इस स्मारक का संबंध, विशेष रूप से, प्रसिद्ध महिला शासक, रज़िया सुल्तान के जीवन से है। इसके अतिरिक्त, किले में एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा भी है, जिसका संबंध सिख धर्म के परम पूजनीय गुरु, गुरु गोबिंद सिंह से है।
बठिंडा किला l छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स
किले की उत्पत्ति की सटीक जानकारी आज भी एक रहस्य है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, यह किला पहली बार 90-110 ईस्वी में राजा दाब के शासनकाल में बनवाया गया था। किले में, दूसरी शताब्दी में शासन करने वाले महान कुषाण राजा, कनिष्क, के युग की ईंटें भी पाई गईं हैं। अन्य विद्वानों का मानना है कि यह किला तीसरी शताब्दी में पंजाब के राजा भट्ठी राव द्वारा बनवाया गया था, जिनके नाम पर इस शहर का नाम रखा गया है। उस समय, संभवतः इस किले को विक्रमगढ़ कहा जाता था।
10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक, बठिंडा, हिंदू शाही राजा, जयपाल, की राजधानी था। इस दौरान यह किला, मुल्तान को आंतरिक भारत से जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित एक महत्वपूर्ण गढ़ था। अपने रणनीतिक महत्व के कारण, इस शहर को तबर-ए-हिंद या भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता था। 1004 में, महमूद गज़नवी ने किले की घेराबंदी करके उसपर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद यहाँ शीघ्र ही राजनीतिक उथल-पुथल का एक दौर शुरू हो गया।
1191 में, मुहम्मद गोरी ने आक्रमण करके किले पर अपना कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद, किले को ज़ियाउद्दीन तुलकी और 1200 घुड़सवारों के एक दल को सौंपकर, वह गज़नी की ओर बढ़ गया। हालाँकि, पड़ोसी राज्य अजमेर के शासक, पृथ्वीराज चौहान, ने इन घटनाओं को अपने साम्राज्य के लिए संभावित खतरे के रूप में देखा, जिसके कारण उन्होंने क्षेत्र के कई छोटे राजाओं और एक विशाल सेना के साथ, उत्तर की ओर कूच कर दी। यह समाचार सुनकर गोरी तुरंत वापिस लौटा, और दोनों सेनाओं के बीच तराइन में युद्ध हुआ। इसमें राजपूत संघ विजयी हुआ, और गोरी किसी तरह ज़िंदा बचकर भाग निकला। हैरानी की बात यह है कि तुलकी ने आत्मसमर्पण करने से पहले तेरह महीने तक किले पर अपना कब्ज़ा बनाए रखा। हालाँकि, राजपूत शासक जल्द ही तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) में हार गए।
1206 के बाद, यह किला, क़ुतुबुद्दीन ऐबक के शासन के अधीन दिल्ली सल्तनत का एक गढ़ बन गया। दिल्ली के एक महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र के रूप में उभरने के साथ, उसी मार्ग पर अपनी स्थिति के कारण यह किला और भी महत्वपूर्ण हो गया। 1210 में, ऐबक की मृत्यु के बाद, नासिरुद्दीन कबाचा ने किले पर कब्ज़ा कर लिया। कबाचा गोरी वंश का शासक था, जिसकी सत्ता उछ, सिंध, और मुल्तान के क्षेत्रों में थी। बाद में, ऐबक के दामाद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने कबाचा को हराकर बठिंडा पर पुनः कब्ज़ा कर लिया।
1236 में, इल्तुतमिश की बेटी और दिल्ली की पहली और एकमात्र महिला शासक, रज़िया सुल्तान, सिंहासन पर बैठी। हालाँकि, दरबार के एक दल ने जल्द ही उनके खिलाफ़ साज़िश रची। बठिंडा के सूबेदार, इख्तियार-उद दीन अल्तुनिया इस दल का हिस्सा थे। रज़िया को गिरफ़्तार कर लिया गया, और इसी किले में कैद कर दिया गया, जिसे उस समय किला मुबारक के नाम से जाना जाता था। महीनों तक कैद में रहने के बाद, वह अंततः सत्ता पर पुनः कब्ज़ा करने की आशा में अल्तुनिया से शादी करने के लिए सहमत हो गई। हालाँकि, यह समझौता निरर्थक साबित हुआ, क्योंकि कुछ ही समय बाद स्थानीय लुटेरों ने इस दंपति की हत्या कर दी। रज़िया की हत्या के बाद, किले का धीरे-धीरे उपयोग बंद हो गया। किले में जल की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली घग्गर नदी का भी संयोगवश लगभग उसी समय पर मार्ग बदल गया।
16वीं शताब्दी में बठिंडा, बाबर के आधीन हो गया। मुगल काल के लेखों में बठिंडा को एक मज़बूत किले के साथ, एक शहरी प्रशासनिक केंद्र के रूप में वर्णित किया गया है। 1558 में घटी एक महत्वपूर्ण घटना में, मुगल सम्राट अकबर ने अपने प्रतिशासक, बैरम खान, को सेवा से बर्खास्त कर दिया। खान ने इसके जवाब में मुगल साम्राज्य के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। जालंधर की ओर प्रस्थान करने से पहले उन्होंने अपने परिवार को बठिंडा किले में ठहराया। परंतु, वह युद्ध में हार गया और उन्हें अकबर के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा।
1754 में, किले के इतिहास में एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। इसी समय पटियाला के महाराजा अला सिंह ने किला मुबारक पर कब्ज़ा कर लिया। अला सिंह ने गुरु गोबिंद सिंह के सम्मान में किले का नाम बदलकर गोबिंदगढ़ कर दिया। स्थानीय कहावत के अनुसार, सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरु, गुरु नानक देव ने 1515 में इस किले का दौरा किया था। 1665 में, नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर ने भी इस किले का दौरा किया था। लगभग आधी सदी के बाद, सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह, मुक्तसर की लड़ाई (1705) में मुगलों को हराने के बाद किले में आए। 1947 में, भारत को आज़ादी मिलने तक यह किला पटियाला राज्य के नियंत्रण में रहा।
बठिंडा किला एक सैन्य किला था, जिसके कारण यह मुख्य रूप से दरबारी भव्यता के बजाय मज़बूत रक्षात्मक विशेषताओं को दर्शाता है। बठिंडा में स्थित 118 फ़ीट की ऊँचाई वाला यह किला, लंबे समय से इस क्षेत्र का एक प्रमुख स्थल रहा है। यह योजना में लगभग वर्गाकार है, और कुल छत्तीस बुर्जों से सुरक्षित है। इनमें से, कोनों की रक्षा के लिए चार विशाल बुर्ज बनाए गए हैं, जबकि आठ पूरक बुर्ज प्रत्येक सिरे को सहारा देते हैं। किले का एकमात्र प्रवेश द्वार उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है। यह भव्य प्रवेश द्वार किले को हाथियों के आक्रमण से बचाने के लिए कीलों से जड़े एक लोहे के दरवाज़े से सुरक्षित है। दरवाज़े के ऊपर बनी सुराखों से दुश्मनों पर आग्नेयास्त्र, तीर, और भाले छोड़े जा सकते थे।
बठिंडा किले का दरवाज़ा। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स
इसके पीछे बने मार्ग में कुछ ऐसी जगहें हैं, जो समय पड़ने पर किले में तैनात वीर रक्षकों को छिपने का स्थान प्रदान करती थीं। अंदर की ओर बनी किले की दीवार में 12 कोनों वाले चार मंडप हैं, जो संभवतः पर्यवेक्षण बुर्ज हुआ करते थे। इसके अतिरिक्त, यह पूरी संरचना पहले कभी घग्गर के पानी से भरी एक गहरी खाई से घिरी हुई थी। कहा जाता है कि किले पर कब्ज़ा करने के बाद महमूद गज़नवी ने इस खाई को भरने का आदेश दिया था। किले परिसर के भीतर एक स्थान पर पानी जमा करने के लिए एक बड़ा तालाब भी स्थित था।
रानी महल, जहाँ रज़िया सुल्तान को कैद किया गया था, प्रवेश द्वार के ऊपर स्थित है। कभी इस महल की शोभा बढ़ाने वाले खूबसूरत भित्तिचित्रों के अवशेष आज भी यहाँ की छत पर देखे जा सकते हैं। बाहर निकले हुए छज्जे और संलग्न सह-कक्ष मुगल शैली की इस इमारत की कुछ अन्य वास्तुशिल्पीय विशेषताएँ हैं।
रानी महल का एक दृश्य l छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स
ऐसी मान्यता है कि 1835 में, पटियाला के महाराजा करम सिंह ने यहाँ उसी स्थान पर एक गुरुद्वारा बनवाया, जहाँ गुरु गोबिंद सिंह ने एक रात्रि व्यतीत की थी। गुरुद्वारा साहिब पातशाही के नाम से जानी जाने वाली इस लाल बलुआ पत्थर की संरचना के शीर्ष पर एक सफ़ेद गुंबद स्थित है। किले के शीर्ष पर स्थित होने के परिणामस्वरूप इसकी अस्थिरता के कारण, किले के निचले स्तर पर दर्शन करने आए भक्तों की सुरक्षा के लिए बाद में एक दूसरा गुरुद्वारा बनाया गया था ।
गुरुद्वारा साहिब पातशाही। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
ईंटों से बने किले के अधिकांश बाहरी भाग का निर्माण पटियाला के राजाओं ने करवाया था। दीवारों के निर्माण के लिए इन शासकों ने विशेष नानक शाही ईंटों का उपयोग किया। लखुरी के नाम से भी प्रसिद्ध ये ईंटें अन्य समकालीन ईंटों की तुलना में अधिक पतली और टिकाऊ थीं। किले के परिसर के भीतर कई तोपें भी देखी जा सकती हैं। ऐसा माना जाता है कि, जब बाबर पहली बार भारत आया, तब उसने किले में तांबे, सोने, चाँदी, और लोहे की मिश्र धातु से बनी चार तोपें रखवाई थीं। हालाँकि, वर्तमान में प्रदर्शित तोपें 18वीं शताब्दी की महाराजा रणजीत सिंह के युग की हैं।
बठिंडा किले में तोप। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स
इस किले को एक राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया गया है और इसके जीर्णोद्धार के प्रयास चल रहे हैं। हाल के दिनों में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा रानी महल की मरम्मत की गई है। किले के बाकी हिस्सों के संरक्षण के लिए भी एक व्यापक योजना प्रस्तावित की गई है। हालाँकि, वर्तमान में यह किला बहुत हद तक जर्जर अवस्था में है।
बठिंडा का किला प्राचीन से आधुनिक काल तक लगभग हमेशा ही किसी शाही ताकत के कब्ज़े में रहा है। यह कनिष्क के शासनकाल का साक्षी रहा है, इसने दिल्ली सल्तनत की अनवरत उत्तराधिकार की लड़ियाँ देखी हैं, मुगल शासन के खिलाफ़ विद्रोह में एक भूमिका निभाई है, और औपनिवेशिक काल में रियासती संरक्षण का आनंद लिया है। यह मज़बूत किला, विशेष तौर पर सिख धर्म के अनुयायियों के लिए, अपने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए भी जाना जाता है।