लखनऊ: बादशाहों के लायक़ खाना
"नवाबों के शहर" लखनऊ में, खाना एक ग्रहणशील अनुभव है जिसका हकदार खाने का हर शौक़ीन व्यक्ति है। कबाब, बिरयानी, निहारी और इस शहर की मिठाइयाँ इस शहर के इतिहास में गहराई से अंतर्निहित हैं और अब इस जगह के पाक-शाला संबंधी अनुभव को परिभाषित करते हैं। यहाँ का खाना इस शहर की आत्मा के साथ खूबसूरती से जुड़ा हुआ है और वास्तव में एक के बिना दूसरा अधूरा है।
लखनऊ गंगा नदी की समभूमि के अवध क्षेत्र में स्थित है। इसे 16वीं शताब्दी ईस्वी में सुप्रसिद्ध मुगल शासक अकबर के अधीन एक सूबे के रूप में स्थापित किया गया था। 1722 ईस्वी में, इस शहर को अपना पहला नवाब, बुरहान-उल-मुल्क सआदत अली खान मिला, जो मूल रूप से निशापुर, (सफावी) फ़ारस का था। इसने, नवाबों की एक पूरी श्रृंखला द्वारा संरक्षित, शाही संस्कृति के साथ ही, उत्तम स्वाद और परिष्कार की भी नींव रखी। सआदत अली खान ने अवध क्षेत्र का विकास किया और फैजाबाद में अपनी पहली राजधानी स्थापित की। हालांकि ये नवाब असफ़-उद-दौला (1775-1797 ईस्वी) थे, जिन्होंने 1775 ईस्वी में लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया।
नवाबों के शासन में, साहित्य, वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला सहित विभिन्न प्रकार की कलाओं को संरक्षण दिया गया। इस अवधि में शाही रसोई में प्रमुख नवाचारों को देखा गया, जिसने स्थानीय, मुगलई और फ़ारसी स्वादों का एक अनूठा मिश्रण विकसित किया जो इस शहर को आज भी प्रिय है। कभी शाही माने जाने वाले व्यंजन अब स्थानीय स्तर पर सड़कों, गलियों, और मोहल्लों में भी परोसे जाते हैं तथा बच्चों, छात्रों, वयस्कों और पर्यटकों को ये व्यंजन समान रूप से पसंद आते हैं।
लखनऊ के लोगों ने चाय को अपने दिल में एक विशेष स्थान दिया हुआ है। जहाँ एक अवसर पर यह किसी भी सामाजिक गतिविधि का हिस्सा कहलाती है वहीं दूसरे अवसर पर, यह लगभग एक नियमित अनिवार्यता बन गई है। चाय के एकदम गरमा-गरम कप और बन-मक्खन या समोसे के नाश्ते के लिए सबसे अच्छी जगह हज़रतगंज में स्थित शर्मा जी की चाय है। मिट्टी के प्याले में परोसा जाने वाला यह पेय इतना व्यसनकारी है और इसकी ऐसी लत लग जाती है कि स्थानीय रूप से इसे "अफ़ीम चाय" का ओहदा मिला हुआ है! बीच में मक्खन की एक मोटी परत के साथ हल्के सिके हुए नरम सुनहरे बन इस चाय के स्वाद को और बढ़ा देते हैं। जो लोग गर्मी को मात देना चाहते हैं, वे पंडित राजा की दुकान में मिलने वाली ठंडाई का विकल्प चुन सकते हैं, जोकि लखनऊ में ठंडाई की सबसे पुरानी दुकान है। कमला नेहरू मार्ग, चौक, पर स्थित, यहाँ पर काजू, बादाम, केसर, पिस्ता और इलायची को एकदम ठंडे दूध के साथ विशेष रूप से मिलाया जाता है जो शरीर और दिमाग दोनों को तरोताजा कर देता है।

बुरहान-उल-मुल्क सआदत अली खान, अवध के पहले नवाब; छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

टुंडे कबाबी,चौक बाजार, लखनऊ; छवि स्रोत: फ़्लिकर
यहाँ के शानदार कबाब बेशक़ इस शहर के सबसे रोमांचक खाद्य पदार्थों में से एक हैं। टुंडे-के-कबाब उत्तर प्रदेश के बाहर के क्षेत्रों में भी अपनी "मुँह में घुल जाने वाली" और नरम चिकनी बनावट के लिए जाने जाते हैं। शाब्दिक रूप से टुंडे का अर्थ है "हाथ की विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति" या फिर "लूला व्यक्ति"। वाक्यांश व्यक्ति (दुकान) को इंगित करता है और यह कोई विशिष्ट प्रकार का कबाब नहीं है, जैसा कि आम गलत धारणा है। टुंडे कबाबी की दूकान को 1905 में चौक बाजार में हाजी मुराद अली द्वारा स्थापित किया गया था, जिन्होंने पतंग उड़ाते समय छत से गिरने के बाद अपना एक हाथ खो दिया था, जिससे उनका उक्त उपनाम पड़ा था। उनकी खासियत थी गलौटी-कबाब (गलावटी कबाब)। यह दुकान जोकि अब 110 साल पुरानी हो गई है अभी भी उत्सुकता से इंतजार कर रहे स्थानीय लोगों को गलौटी-कबाब बेचती है। बहुत दिलचस्प बात यह है कि इन कबाबों के इतिहास की जड़ें 17वीं शताब्दी से जुड़ी हुई हैं। उम्र बढ़ने के साथ ही लखनऊ के तत्कालीन शाही नवाब, असफ़-उद-दौला ने अपने दांतों को खोना शुरू कर दिया था। हालांकि उनकी ज़ुबान को कबाब के स्वाद का चस्खा लग चुका था। इसलिए, उन्होंने घोषणा किया कि जो कोई भी एक ऐसा विशेष कबाब तैयार करेगा जिसे चबाने की आवश्यकता नहीं होगी उसे शाही संरक्षण प्रदान किया जाएगा।
इस प्रकार, गलौटी-कबाब का जन्म हुआ। कबाब के इतिहास ने मोटे दरदरे और चबा कर खाए जाने वाले रूप ने बदलकर स्वाद से भरपूर और मुँह में घुल जाने वाले (गलावटी) रूप तक का मोड़ ले लिया। ऐसी अफ़वाह है कि इस कबाब में, कीमा बनाए जाने और पकाए जाने से पहले, मांस में 160 से अधिक मसालों को अच्छी तरह से मिलाया जाता है। रूमाली रोटी के साथ ये कबाब सबसे अधिक स्वादिष्ट लगते हैं। रूमाली रोटी को इसके काग़ज़ जैसे पतले होने के कारण, इसका शाब्दिक अर्थ "रूमालनुमा रोटी" होता है। इसे आटा और पानी मिलाकर बनाया जाता है, और कड़ाही के घुमावदार तल के ऊपर 3 से 4 सेकंड में पकाया जाता है। और बस कुछ ही समय में यह दुकान में से मिनटों में उड़न छू हो जाने वाले कबाब के साथ बिकने के लिए तैयार हो जाती हैं! गलौटी के अलावा, बोटी-कबाब भी स्थानीय तौर पर काफ़ी पसंद किया जाता है। मांस, पारंपरिक रूप से मटन, लेकिन कभी-कभी मुर्गे या भेड़ के गोश्त के टुकड़ों को भी दही, अदरक, लहसुन, मिर्च और अन्य गुप्त सामग्रियों का मसाला बनाकर उसमें लपेट कर रखा जाता है, और लकड़ी के कोयले की लपटों पर पकाने के लिए सीख पर लगा दिया जाता है। जैसे-जैसे ये पकते हैं, ये नरम हो जाते हैं और एक अद्वितीय धुएँ जैसा स्वाद प्राप्त करते हैं। कबाब की अन्य किस्मों में काकोरी-कबाब, शम्मी-कबाब, सीख-कबाब और कई स्थानीय विविधताएँ शामिल हैं।
मुख्य भोज पर आने से पहले, कोई भी लखनऊ की शानदार चाट को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है। जबकि चाट ज्यादातर भारत भर में ही उपलब्ध होती है, लखनऊ की चाट इस मायने में इसलिए अनूठी है क्योंकि इसे आलू से बनी एक खाने योग्य टोकरी में परोसा जाता है। हजरतगंज के रॉयल कैफ़े में मिलने वाली टोकरी-चाट (बास्केट चाट) के बारे में इस शहर के हर व्यक्ति को, इसके ज़बरदस्त चटकारे स्वाद और जटिल बनावट की वजह, से पता है। यह मसले हुए आलू की टिक्कियों, मटर, नमकीन से भरी जाती है और इसके तीखेपन को संतुलित करने के लिए इसके ऊपर चटपटी मसालेदार चटनी के साथ ही लटकी हुई गाढ़ी दही डाली जाती है। एक और प्रसिद्ध चाट स्थान, जो लखनऊ से संबंध रखने वाले लोगों के लिए फ़िर से पुरानी यादें ताज़ा कर देता है, और वो है हज़रतगंज में स्थित शुक्ला चाट हाउस। यहाँ पर पानी-के-बताशे बेचे जाते हैं जोकि आटे की बनी तली हुई छोटी गोलाकार खोखली पूड़ीयाँ होती हैं जो मटर और आलू तथा खट्टे-मीठे और तीखे पानी से भरी होती हैं। यहाँ पर प्याज और नींबू के रस से सजी मटर-चाट और आलू-चाट मिलती हैं जो किसी को भी यहाँ पर बार-बार आने के लिए प्रेरित करती है। मटर और आलू को मसला जाता है ताकि उनका स्वाद निखर जाए, फिर उन्हें सब्जियों और विभिन्न मसालों के साथ मिलाकर घी में कुरकुरा होने तक सेका जाता है, और फ़िर परोस दिया जाता है। इसमें ताज़गी का एहसास बढ़ाने के लिए इसके ऊपर कुछ चुनी हुई ताज़ा जड़ी बूटियाँ डाली जाती हैं।

हज़रतगंज, लखनऊ की टोकरी-चाट (बास्केट चाट); छवि स्रोत: फ़्लिकर

चौक, लखनऊ, में मिलने वाली अवधी-बिरयानी; छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
लखनवी भोजन के मुख्य भोज में शामिल है शाश्वत रूप से पसंद की जाने वाली बिरयानी। चौक बाजार की इदरीस की बिरयानी या वाहिद की बिरयानी में अवधी-बिरयानी अच्छे कारणों की वजह से स्थानीय बुनियादी भोज्य पदार्थ है। यह उत्कृष्ट पकवान मसालों में लिपटे हुए मटन या चिकन के रसदार टुकड़ों और लंबे दाने वाले चावल का उपयोग करके तैयार किया जाता है। दोनों को कुछ समय के लिए अलग-अलग पकाया जाता है और फिर एक साथ एक के ऊपर एक तह लगा कर दम के विधान से पकाया जाता है। मांस रसीला हो जाता है और हल्की छुअन से ही हड्डी से अलग होकर गिर जाता है। चावल के लंबे दाने मसालों की सुगंध को अच्छे से पकड़ लेते हैं और मांस के स्वाद को बेहतरीन तरीके से बढ़ा देते हैं। अवधी-बिरयानी को अधिक मात्रा में घी के साथ पकाया जाता है और इसमें खड़े या साबुत मसालों का उपयोग किया जाता है। इसका देसी उत्कृष्ट स्वाद और मुँह में पानी ले आने वाली इसकी ज़बरदस्त सुगंध ही इसकी विशेषताएँ हैं, जो इसका विरोध करना मुश्किल बनाते हैं। कोलकाता-बिरयानी या हैदराबादी-बिरयानी के विपरीत, इसमें न तो अंडे पड़ते हैं और ना ही आलू और ना ही बहुत सारे मसाले डाले जाते हैं, बल्कि यह मांस के प्राकृतिक स्वाद पर केंद्रित होती है।
लखनऊ का एक और अनोखा व्यंजन कुलचे-निहारी है जिसका सबसे अच्छा अनुभव चौक बाजार में स्थित रहीम्स के यहाँ मिलता है। ज़्यादातर लोग लखनवी भोजन यात्रा को इसके बिना अधूरा मानते हैं। मांस के नरम टुकड़ों को पारंपरिक भारतीय मसालों के साथ रगड़कर रात भर धीमी आँच पर पकाया जाता है। इस शोरबे में सबसे नाजुक मांस होता है जिसे हड्डी से अलग होकर गिरने के बिना परोसना लगभग असंभव ही होता है। कुछ अनुभवी खाने वाले लोग तो यहाँ तक कि मांस को पूरी तरह से शोरबे के साथ तब तक मिलाना पसंद करते हैं, जब तक कि यह एक-सार गाढ़ा ना हो जाए। फिर इसे कुल्चे, या ताज़ी सिकी तंदूरी रोटी के साथ परोसा जाता है।
एक और नवाबी स्वादिष्ट भोजन है खस्ता-कचौड़ी ,, जोकि लखनऊ के अमीनाबाद में रत्ती लाल की दुकान में मिलने वाला एक लोकप्रिय नाश्ता पकवान है। आटे की छोटी रोटी को घी में तलकर कचौड़ी तैयार की जाती है जिसको मसालेदार छोले सब्ज़ी के साथ, ऊपर से ताज़ा कटा प्याज़ और मिर्ची के दो टुकड़ों, या सूखे मसालेदार आलू डालकर, परोसा जाता है। इसकी भरपूर स्वादिष्टता और रुचिरता हर सुबह जल्दी उठने की एक अच्छी वजह प्रदान करती है!
नवाबों को मिठाइयों का बहुत शौक होता था और लखनऊ भी इसी भावना का प्रतीक है। उनकी चाय में चीनी की अत्यधिक मात्रा होने के अलावा, लखनऊ-वासियों के पास गर्व करने के लिए विभिन्न प्रकार के अन्य मीठे व्यंजन भी हैं। खाने में एक लोकप्रिय व्यंजन, जो मुख्य भोजन का हिस्सा लगता है, पर होता एक मीठा व्यंजन है, वो और कोई नहीं बल्कि प्रसिद्ध शीरमल है, जोकि आटे, दूध और खमीर से बना एक मीठा नान होता है। इस मीठे नान को चाय के साथ, और कुछ कबाबों के साथ, उनके मसाले के स्तर को संतुलित करने के लिए, परोसा जाता है।
सारे शहर के सार को एक टुकड़े में समेटने वाला शाही-टुकड़ा, एक प्रकार की मिठाई या ब्रेड पुडिंग होता है जिसे सिंकी हुई डबल रोटी, मावा (कंडेन्स्ड मिल्क), चीनी का शीरा, और सूखे मेवों को साथ बनाया जाता है। यह दूध से भरपूर और मलाईदार मिठाई, समृद्धी का सर्वोत्तम स्तर है। यह अमीनाबाद के साथ-साथ लखनऊ के चौक बाजार में उपलब्ध है। मक्खन-मलाई या निमिष लखनऊ की एक और ख़ास मिठाई है, जोकि लखनऊ की सर्दियों में विशेष रूप से मिलती है। रुचिकर ढंग से खूब नरम-मुलायम, मलाईदार, और मीठी एवं स्वादिष्ट मिठाई मुँह में पहुंचते घुलकर गायब हो जाती है। वास्तव में यह इतनी नाज़ुक और नरम मुलायन होती है कि गर्मियों में सूरज इसे पूरी तरह से पिघला देता है! इसलिए, यह केवल सर्दियों के दौरान ही बनाई जाती है। यह गाय के दूध को केसर और गुलाब जल के साथ सुगंधित कर के बनाई जाती है और इसके ऊपर से असली चांदी का वर्क़ और खोवा या मावा डाला जाता है। सर्दी के मौसम में चौक क्षेत्र के कई स्टॉल सूर्यास्त के बाद रात के लगभग 9:00 बजे तक इसे परोसते हैं। इस व्यंजन की जड़ फ़ारस जुड़ी हुई है, जहाँ से अवध के पहले नवाब आए थे। इसे केसर के साथ फेंटे दूध से बनाया गया था जो रात भर के लिए बाहर छोड़ दिया गया था ताकि उसमें ओस का स्वाद इकट्ठा हो सके। इस व्यंजन के स्वाद को चखना ऐसा लगता है मानो मुँह में बादलों का टुकड़ा डाल लिया हो।

शाही-टुकड़ा,छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
गर्मी की गर्म शाम लोकप्रिय फ़ालूदा-कुल्फ़ी की दरक़ार करती है, वह भी ख़ास तौर पर अमीनाबाद में स्थित प्रकाश कुल्फ़ी हाउस में मिलने वाली फ़ालूदा-कुल्फ़ी की। कुल्फ़ी एक पारंपरिक आइसक्रीम है जिसे पूर्ण वसा युक्त दूध को धीमी आँच पर पका कर बनाया जाता है और जिसमें गुलाब जल, केसर और पिस्ता जैसे मसाले और जड़ी-बूटियाँ मिलाई जाती हैं। इसे बारीक सेंवई डालकर परोसा जाता है, जो मुँह के तालु को साफ़ रखता है।
1800 के ज़माने से मिलने वाला मलाई-पान या बालाई-की-गिलौरी नामक शहर के प्रसिद्ध पान के बिना लखनवी भोजन अधूरा रहता है! देश के बाकी हिस्सों में आमतौर पर मिलने पान से अलग इस विशेष पान की सामग्री को लपेटने के लिए पान के पत्ते का नहीं बल्कि मलाई का उपयोग किया जाता है। मलाई, एक प्रकार की थक्केदार मलाई, को तब तक पीटा जाता है जब तक कि यह कागज़ जैसी पतली ना हो जाए और फिर विभिन्न सूखे मेवों, मिश्री (चीनी के कण) और गुलाब जल से भर दिया जाता है। इन सब अंत में असली खाद्य चांदी में लपेट दिया जाता है। इस स्वादिष्ट व्यंजन की उत्पत्ति की कहानी इसके स्वाद के समान ही समृद्ध है। यह लखनऊ के नवाब के लिए तब बनाया गया था, जब उन्हें चिकित्सिकीय कारणों से उनके तम्बाकू सेवन को कम करने के लिए कहा गया था। अब, पुष्पित होने वाली स्ट्रीट फ़ूड संस्कृति के कारण, स्थानीय लोग पूरे साल इस स्वादिष्ट व्यंजन आनंद उठा सकते हैं।