“समुद्र, एक महान एकीकरणकर्ता, मनुष्य की एकमात्र आशा है। वर्तमान मे, इस पुरानी कहावत का महत्व पहले से भी ज़्यादा है : हम सब एक ही नाव में हैं।”
~Jacques Yves Cousteau
अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की लोकप्रियता कुछ चुनिंदा मायनों में बनी हुई है।
इस द्वीपसमूह को लोग आज भी "काला पानी का टापू" या अंग्रेज़ों द्वारा राजनीतिक कैदियों पर लगाए गए भयानक निर्वासन के रूप में याद करते हैं।
इन द्वीपों को दुनिया की कुछ अंतिम शेष "पृथक जनजातियों" के घर के रूप में भी जाना जाता है जो "आदिम" तरीकों से अपना जीवन यापन करती हैं।
ये द्वीप बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर के संगम पर भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित हैं।
भारत की मुख्य भूमि से दूर होने के कारण, आम जनता इन द्वीपों के बारे में बहुत कम जानती है।
यह एक अल्पज्ञात तथ्य है कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की जनसांख्यिकी बहुत विविध है। यह द्वीप 6 स्वदेशी जनजातियों के घर हैं। लेकिन, संयुक्त रूप से भी यह जनजातियाँ कुल जनसंख्या का एक अल्पसंख्यक हिस्सा ही हैं। यहाँ रहने वाले लागों की अधिकांश आबादी उन उपनिवेशियों और शरणार्थियों से मिलकर बनी है जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों से कैदियों और श्रमिकों के रूप में लाया गया था। इस महान जनसांख्यिकीय विविधता के कारण, इन द्वीपों को अक्सर "छोटा भारत” भी कहा जाता है।
इतिहास के उलटफेर उससे प्रभावित हुए लोगों के प्रति हमेशा उदार नहीं रहे हैं। इन द्वीपों के लोगों (जनजातियाँ और उपनिवेशी) का इतिहास युद्ध, परिश्रम और अलगाव की गाथा दर्शाता है। यह स्वदेशी जनजातियाँ अलगाव के एक अनिश्चित बुलबुले में रहती हैं, जिसे बाहरी ताकतों से निरंतर खतरा हो रहा है।
9वीं शताब्दी में अंडमान द्वीप समूह में अंग्रेज़ों के आने से इन द्वीपों की दशा हमेशा के लिए बदल गई। उपनिवेशवादियों द्वारा किए गए युद्धों और लाई गई बीमारियों के कारण इन स्वदेशी जनजातियों का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया।
बाईं ओर- पोर्ट ब्लेयर में औपनिवेशीकरण की सिफ़ारिश करने वाली अंडमान समिति की रिपोर्ट, 15 जनवरी 1858।
पर्यटकों को "आदिम मनुष्यों" और "नग्न लोगों" की एक झलक दिखाने के वादे से द्वीपों की ओर आकर्षित किया जाता है। आगंतुक अक्सर ऐसे कार्यों के माध्यम से हस्तक्षेप करते हैं जो वहाँ के निवासियों के जीवन की शांति को भंग कर देते हैं।
आज के समय में, सरकार ने "आदिवासी पर्यटन" को निष्ठापूर्वक प्रतिबंधित कर दिया है जो इन असुरक्षित समूहों की "विदेशियता" को एक विपणन योग्य वस्तु मानता है। सरकार ने संरक्षित क्षेत्रों में फ़ोटो लेने और वीडियो बनाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है।
अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह छह स्वदेशी जनजातियों का घर है: महान अंडमानी (ग्रेट अंडमानी), ओंगी, जारवा, सेंटिनेल, शोम्पेन और निकोबारी। इनमें से पहली पाँच जनजातियाँ ‘विशिष्टतः असुरक्षित जनजातीय समूह’ (पीवीटीजीज़) में शामिल हैं । यह जनजातियाँ संरक्षित समूहों का एक हिस्सा हैं और बाहरी दुनिया से अलग-अलग स्तरों पर पृथक रहती हैं।
द्वीपसमूह में इन जनजातियों का आगमन कब हुआ यह अज्ञात और रहस्यमयी है। इतिहासकारों का मानना है कि इन द्वीपों पर यह जनजातियाँ मध्य पाषाण काल से ही बसी हुईं थीं। ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंगे और सेंटिनेल जनजातियाँ, नीग्रॉयड समूह की मानी जाती हैं । दूसरी ओर शोम्पेन और ग्रेट निकोबारी लोग, मंगोलायड समूह के माने जाते हैं। यह बड़े आकर्षण का विषय है कि ये जनजातियाँ किस प्रकार हज़ारों वर्षों तक शेष विश्व से पूर्णतः अलग-थलग रहकर जीवित रहीं।
ग्रेट अंडमानी, मूल रूप से नेग्रिटो समुदाय की जनजाति से संबंधित है। यह एक शिकारी-संग्रहकर्ता जनजाति थी जो अंडमान द्वीपसमूह के पूरे खंड में रहती थी। 19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक आक्रमण का इस जनजाति पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा और इसे युद्ध और महामारी ने विलुप्त होने की कगार पर धकेल दिया। जनजाति के शेष सदस्यों को 1969 में स्ट्रेट द्वीप (उत्तर और मध्य अंडमान) में स्थानांतरित कर दिया गया था।
ग्रेट अंडमानी जनजाति ने अब अपनी शिकारी-संग्रही जीवन शैली को पूरी तरह से त्याग दिया है और अंडमान प्रशासन से पक्के घरों और दैनिक उपयोग की वस्तुओं जैसी आधुनिक सुविधाओं को स्वीकार कर लिया है।
आधुनिक जीवन शैली में आत्मसात होने के बावजूद, अंडमानी अपने धार्मिक और आध्यात्मिक विश्वासों को आज भी दृढ़ता से मानते हैं। ग्रेट अंडमानी जनजाति विभिन्न परोपकारी और द्वेषपूर्ण आत्माओं की शक्ति में विश्वास रखते हैं। वे अपने पूर्वजों की भी पूजा करते हैं और इन आत्माओं के साथ बातचीत करने के लिए उन पर निर्भर होते हैं।
ओंगी जनजाति का नाम ओंगी शब्द एन-आईरेगल से लिया गया है जिसका अर्थ है "आदर्श व्यक्ति"। वे शिकारी-संग्रहकर्ता हैं और कुछ समय पहले तक भी इस जनजाति के लोग, संसाधनों के लिए पूरी तरह से अपने तात्कालिक वातावरण पर निर्भर थे। ओंगी लोग, लिटिल अंडमान द्वीप के निवासी हैं।
इनका समाज सामुदायिक झोंपड़ियों और बहिर्विवाही समूहों या समुदाय पर आधारित है। ओंगी अपने कबीले के बाहर शादी नहीं करते और एक ही व्यक्ति से विवाह करने की प्रथा का पालन करते हैं।
ओंगी जनजाति के लोग अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से जंगली सूअरों और कछुओं का शिकार करते हैं, शहद इकट्ठा करते हैं और मछलियाँ पकड़ते हैं। इनका सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान तानागिरु या वयस्कता अनुष्ठान है जिसमें पुरुषत्व की दहलीज़ पर खड़े ओंगी जनजाति के लड़कों को सूअर का शिकार करने की प्रतिभा को साबित करना होता है।
पारंपरिक रूप से जारवा जनजाति के लोग शिकारी-संग्रहकर्ता होते हैं। यह दक्षिण और मध्य अंडमान द्वीपसमूह के पश्चिमी भाग में निवास करते हैं। हाल ही में, इस जनजाति के लोग अन्य जनजातियों के साथ घुलने-मिलने लगे हैं ।
उनके पास संसाधनों का व्यापक भंडार है जिसमें पौधों और जानवरों की लगभग 150 प्रजातियाँ शामिल हैं। अधिकांश संसाधन मौसम-विशिष्ट हैं। पुरुष और महिला दोनों ही, जानवरों के लिए चारे की खोज में निकलते हैं ।
एक शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय के रूप में, जारवा खानाबदोश होते हैं और संसाधनों की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
जारवा महिलाएँ फ़ुरसत के समय में, पत्तियों, फूलों, सीपियों, कौड़ियों और सूती धागों से माला, कमरबंद, बाजूबंद और सर पर पहनने वाले आभूषण बनाना पसंद करती हैं।
सेंटिनेल जनजाति असल में दुनिया की आखिरी बची हुई पृथक जनजाति है। इन निडर और अभिमानी लोगों ने हमेशा बाहरी लोगों द्वारा उनसे संपर्क स्थापित करने के प्रयासों को उग्रतापूर्वक खारिज किया है। वे अंडमान द्वीपसमूह के उत्तरी सेंटिनेल द्वीप के निवासी हैं।
यह ज्ञात नहीं है कि सेंटिनेल जनजाति के लोग खुद को किस नाम से पुकारते हैं या "बाहरी लोगों" के बारे में उनकी क्या धारणा है। 1967 से, सरकार ने बार-बार उनसे संपर्क साधने का प्रयास किया, और ये संपर्क अभियान 1994 तक चले। कुछ लोगों ने, ऐसे लोग, जो अपनी दुनिया में बहुत खुश और स्वस्थ हैं, उनसे संपर्क करने की इस कोशिश के उद्देश्य पर सवाल उठाए। तब से सरकार ने, प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति को छोड़कर, जिनके दौरान इन जनजातियों की खैरियत का आकलन करने के लिए उनसे संपर्क करना आवश्यक होता है, सेंटिनेल जनजाति से संपर्क न करने के निर्णय का अनुसरण किया है।
यह उल्लेखनीय है कि सेंटिनेल जनजाति के लोग 2004 की सुनामी से भी बच गए। उस आपदा ने भारी तबाही मचाई और सेंटिनल द्वीपसमूह के समुद्र के अंदर की प्रवाल भित्तियों को पानी से बाहर निकाल दिया, जिसके बाद वह हमेशा के लिए शुष्क भूमि बन गई। ऐसा माना जाता है कि समुद्र के बारे में इनके प्राचीन ज्ञान ने इन जनजातियों को इस आपदा से बचने में सहायता की।
शोम्पेन जनजाति के लोग, ग्रेट निकोबार द्वीपसमूह के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में एकांतवास में रहते हैं। "शोम्पेन" शब्द, सम-हप शब्द से लिया गया है जिसका ग्रेट निकोबार भाषा में अर्थ है - जंगल के निवासी।
शोम्पेन लोग अपने तटीय पड़ोसियों, ग्रेट निकोबारियों के साथ कभी-कभी वस्तु विनिमय करते हैं। समय के साथ, शोम्पेन और ग्रेट निकोबारी जनजातियों के बीच का संबंध, संघर्ष, समझौते और सह-अस्तित्व में विकसित हुआ है ।
शोम्पेन लोग संकोची होते हैं और सबसे दूर रहना पसंद करते हैं लेकिन जारवा और सेंटिनेल जैसी अन्य जनजातियों की तुलना में कम प्रतिरोधी होते हैं। सुनामी ने बड़ी संख्या में ग्रेट निकोबारियों को स्थानांतरित होने के लिए मजबूर करके इस जनजाति के संसाधनों के स्रोतों को बाधित कर दिया। यह अंतर अन्य जनजातियों द्वारा भरा गया है। सरकारी कल्याण संस्थाओं के साथ शोम्पेन का संपर्क एवं बातचीत अभी भी प्राथमिक स्तर पर है।
निकोबार द्वीप समूह में रहने वाले सभी मूल निवासी समूहों को निकोबारियों के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, वे खुद को टोकासातो के नाम से बुलाते हैं, जिसका अर्थ है "वह जो बहुत छोटा लंगोट पहनता है"।
निकोबारियों की आजीविका मछली पकड़ने, शिकार करने, सुअर पालने और नारियल के बागानों पर खेती करने पर निर्भर है।
निकोबारी जनजाति के लोगों के जीवन में लकड़ी का पुतला एक महत्वपूर्ण अनुष्ठानिक भूमिका निभाता है। यह उनके पूर्वजों की आत्माओं की शक्ति और आशीर्वाद पाने के एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। मेनलुआना या पुजारी, प्रेतों की दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करने में सहायता करते हैं। वे निकोबारियों के पारंपरिक ज्ञान के वाहक भी होते हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशियों ने अंडमान द्वीपसमूह के भाग्य को बदल दिया। मूल निवासी जनजातियों पर एक विपत्तिपूर्ण प्रभाव होने के अलावा अंग्रेज़, भारत की मुख्य भूमि के विभिन्न हिस्सों से, लोगों के कुछ नए वर्गों को कैदियों और मज़दूरों के रूप में भी यहाँ पर लेकर आए थे। इनमें से कुछ समूहों के लोग जैसे मोपला, भाँतु, कैरन और राँचीवाले, यहीं बस गए और यहाँ के स्थायी निवासी बन गए।
1929 में मालाबार में हुए मोपला विद्रोह को अंग्रेज़ों ने सख्ती से कुचल दिया था। लगभग 1400 कैदियों को अंडमान के जेल में भेज दिया गया था। विद्रोह का पूरी तरह से उन्मूलन करने के लिए, अंग्रेज़ों ने "मोपला योजना" का सहारा लिया, जिसके तहत कई कैदियों को उनकी सज़ा पूरी होने के बाद, कृषि टिकट दिए गए और इन्हीं द्वीपों में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
निर्वासन की अवधि समाप्त होने के बाद, ये कैदी अपने परिवारों को भारत की मुख्य भूमि से यहाँ ले आए और दक्षिण अंडमान में बस गए। अंडमान में मोपला गाँवों का नाम केरल के मन्नारघाट, मलप्पुरम, कालीकट, तिरूर, मंजेरी और वंदूर जैसे स्थानों के नाम पर रखा गया है। अंडमान के मोपला लोग आज भी संगठित समुदायों में रहते हैं और अभी भी अपने पारंपरिक रीति-रिवाज़ों और जीवन शैली का पालन करते हैं।
भाँतु लोग, 1911 में, अंग्रेज़ों द्वारा "अपराधी जनजाति" घोषित किए गए समूहों में से एक थे। उनके नेता को मारने के बाद, अनुयायियों को अंडमान में "बंदियों" के रूप में लाया गया था। कुछ समय बाद, अंग्रेज़ों ने इन लोगों को भूमि और धन प्रदान करके द्वीपों पर "मुक्त उपनिवेशीयों" के रूप में फिर से बसाने की कोशिश की।
भाँतु लोग खुद को राजपूत मूल के और चित्तौड़गढ़ के राणा प्रताप सिंह (1540-1597) के सैनिकों के वंशज के रूप में पहचानते हैं। प्रारंभ में, इन द्वीपों पर बसने के बाद, उन्होंने कृषि जीवन शैली को अपनाया। हालाँकि, नई पीढ़ी सरकारी और प्रशासनिक नौकरियों की ओर ज़्यादा आकर्षित हैं । भाँतुओं ने अपने पड़ोसी समुदायों के कई रीति-रिवाज़ों और तौर-तरीकों को भी अपनाया और अपनी खुद की एक अनूठी संस्कृति विकसित की। वर्तमान में, अधिकांश भाँतु लोग दक्षिण अंडमान ज़िले के कैडलगंज और अनिकेत में बसे हुए हैं।
20वीं सदी की शुरूआत में अंग्रेज़ों द्वारा कैरन लोगों को मज़दूरों के रूप में अंडमान लाया गया था ताकि वे घने जंगलों को साफ़ करके इसे रहने योग्य बनाने का काम कर सकें। यद्यपि कैरन लोग बर्मा से लाए गए थे, फिर भी ऐसा माना जाता है कि वे मूल रूप से मध्य एशिया के थे।
उनमें से कई लोग अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए वहीं बस गए और उन्होंने पड़ोसी समूहों जैसे भाँतु, राँचीवाले और ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों के साथ विवाह किए। आज उनमें से ज़्यादातर लोग मध्य अंडमान के मायाबंदर इलाके में रहते हैं। इस अंतर्संबंध के परिणामस्वरूप, कैरन लोगों के सामाजिक रीति-रिवाज़ों, परंपराओं और जीवन शैली में काफ़ी बदलाव आया है।
घने जंगलों को साफ करने के लिए, राँची लोगों या राँचीवालों को अंग्रेज़ों द्वारा 1906 में भारत के राँची और छोटानागपुर क्षेत्रों से अंडमान लाया गया था। भारत में छोटानागपुर पठार की विभिन्न जनजातियाँ जैसे उराँव, मुंडा, खेड़िया, बड़ाइक, लोहार और कुम्हार, आमतौर पर राँची जनजाति के नाम से ही जानी जाती हैं।
राँचीवालों ने इन द्वीपों पर बसने के बाद शुरू में वन विभाग, तथा लकड़ी और समुद्री उद्योगों में मज़दूरों के रूप में काम किया। इनकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा उत्तर और मध्य अंडमान के बाराटाँग द्वीप में रहता है। वर्तमान में, आय और रोज़गार के मामले में इस समूह के भीतर बहुत अधिक विविधता मौजूद है। यद्यपि इस समूह ने अंडमान की मिश्रित संस्कृति में खुद को अच्छी तरह से ढाल लिया है, लेकिन आज भी वे अपनी जन्मभूमि को याद करते हैं और उसके प्रति लगाव महसूस करते हैं।
अगर आप एक बार किसी टापू पर सो चुके हों
तो आप फिर कभी भी पहले जैसे नहीं रहेंगे;
आप वैसे ही दिख सकते हैं जैसे आप एक दिन पहले दिख रहे थे
और उसी पुराने नाम से जाने भी जाएँगे,
आप गलियों और दुकानों के बीच भाग-दौड़ कर सकते हैं;
या आप घर पर बैठकर सिलाई कर सकते हैं,
लेकिन आपको हर तरफ़ वही नीला पानी और चक्कर लगाते समुद्री पक्षी ही दिखाई देंगे
भले ही आपके पैर कहीं भी चले जाएँ।
आप पड़ोसियों से यहाँ-वहाँ की बातें कर सकते हैं
और आग ताप सकते हैं,
लेकिन आपको जहाज़ की सीटी और लाइटहाउस की घंटी सुनाई देगी
और लहरें आपकी नींद में शोर मचाती रहेंगी
ओह, आपको पता नहीं क्यों, और आप यह नहीं कह सकते कि कैसे
आया आपमें ऐसा बदलाव,
लेकिन - एक बार जब आप किसी टापू पर सो चुके हों
तो आप फिर कभी भी पहले जैसे नहीं रहेंगे !
~ रेचल फ़ील्ड
सौजन्य- भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण